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स्वदेशी, उद्यमिता और सहकारिता के भाव से ही स्वावलंबन

डॉ. पुनीत कुमार द्विवेदी
इंदौर (मध्यप्रदेश)
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वर्तमान में आधुनिकता की चाल में भाग रहे भोगवादिता के पुजारियों की स्थिति अत्यंत दयनीय प्रतीक हो रही है। पाश्चात्य का व्यापक दुष्प्रभाव भारतीय संस्कृति को बाज़ारवादी प्रवृत्ति की और ढकेलता जा रहा है। एक तरफ़ गाँव शहरों में परिवर्तित हो रहे हैं, वहीं छोटे क़स्बे शहर और शहर महानगरों में परिवर्तित हो रहे हैं। तेज़ी के साथ भोगवादी प्रवृत्तियों का विकास हुआ है, जो कहीं ना कहीं कलहकारी भी सिद्ध हुआ है। कहीं-कहीं तो नवाचार-उद्यमिता का हवाला देकर प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण विदोहन भी किया गया है। नवाचार या उद्यमिता का विरोध नहीं है, परंतु प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की चिंता हमें ही करनी पड़ेगी। व्यापार-व्यवसाय या अन्य व्यवहार तभी तक संभव हैं, जब तक यह वसुंधरा सुरक्षित है, सम्यक् है, स्वच्छ है, प्रदूषण मुक्त है। स्वदेशी विचार विदोहन का बहिष्कार करता है। सहकारिता के भाव के साथ सामाजिक सर्वकार को ध्यान में रखते हुए प्रकृति की अवहेलना किए बिना विकास करना ही वास्तविक विकास है। उद्यमिता एवं नवाचार क्षेत्रों में आई क्रांति ने समाज को एक दिशा दी है। ‘कोरोना’ महामारी ने आयुर्वेद के महत्व को पहचाना है। आयुर्वेद के क्षेत्र में अपार नवाचार की सम्भावनाएँ हैं। शोध से लेकर उत्पादन, प्रबंधन, विपणन आदि सभी क्षेत्रों में उल्लेखनीय कार्य किए जा सकते हैं। आधुनिक कृषि भू-क्षरण का कारण बन गई है। उर्वरकों एवं कीटनाशकों ने भूमि को बंजर कर दिया है। लंबे समय से जिस भूमि का हम लगातार विदोहन कर रहे थे, वह अब बेकार हो चुकी है। पुनः उर्वरा शक्ति को सुदृढ़ करने की संकल्पना ही भारतीय कृषि को पुनः स्थापित कर सकती है। जैविक खादों के उपयोग एवं कम्पोस्टिंग आदि के माध्यम से ही यह संभव है। उपयुक्त मात्रा में जैविक खादों के निर्माण हेतु नवाचार की आवश्यकता है। कम्पोस्टिंग की नई तकनीकी और तकनीकियों के क्षमता विकास हेतु काम करने की आवश्यकता है। ये सुलभ भी हैं, सस्ते भी हैं, और प्रभावशाली भी।
उद्यमिता विकास के कार्यक्रमों द्वारा व्यापक स्तर के जनजागरण की आवश्यकता है। समाज के प्रत्येक वर्ग तक उद्यमिता विकास को पहुँचाने का लक्ष्य तय हो। समस्याओं की पहचान एवं उनके समाधान हेतु तकनीकी का विकास क्षेत्रीय स्तर पर किया जाना सुनिश्चित होना चाहिए। प्रत्येक क्षेत्र की कोई ना कोई समस्या या कोई ना कोई विशेषता होती है। स्थानीय स्तर पर ही उन समस्याओं के समाधान हेतु स्टार्ट-अप्स सृजित कर रोज़गार के साधन भी बनाए जाएं एवं स्थानीय विशेषता (उत्पाद, सेवा, विधा, इत्यादि) को व्यावसायिक करने का प्रयास किया जाए। उदाहरण के लिए, जैसे-१ जिला-१ उत्पाद। ग्रामीण एवं जनजाति क्षेत्रों की कुशलता को बाज़ार प्रदान करना एवं सहकारिता के भाव से उन्हें समाज की मुख्य धारा से जोड़ना भी देवकार्य होगा। हमारे जनजाति क्षेत्र हथकरघा, कलात्मक, आकर्षक वस्तुओं के निर्माण, पशुपालन, उन्नत खेती आदि में कुशल हैं, महारथ हासिल किए हुए हैं। उन्हें आवश्यकता है सहकारिता की। हमारे सहकार एवं सहयोग से उनमें और कौशल विकास हो सकता है, उन्हें और प्रेरणा मिल सकती है। उनका अभावग्रस्त जीवन सुखमय हो सकता है। ऐसे प्रयोगों से स्थानीय समस्याओं का समाधान संभव है। तभी अन्त्योदय होगा और यहाँ से विकास की धारा बहेगी।
भारत इस समय दुनिया का सबसे बड़ा बाज़ार है। बाज़ार और बाज़ारवादी प्रवृत्ति में अंतर है। विश्व को हम तृप्त कर सकने की क्षमता रखते हैं।अनादिकाल से भारत सम्पूर्ण विश्व की जिज्ञासा, भूख, प्यास और आवश्यकताओं का ध्यान रखता आया है। ‘वसुधैव कुटुंबकम’ की अवधारणा भी यही है। समस्त वसुधा एक परिवार है, और इस परिवार का पोषण करना हमारा कर्तव्य है। शिक्षा अर्थात् ज्ञान के क्षेत्र में भी भारत ने सदा से विश्व का मार्गदर्शन किया है। तक्षशिला, नालंदा जैसे विद्यापीठ और महान विश्व ख्याति पुस्तकालयों के बारे में पूरा विश्व जानता है। सहकारिता के भाव से स्थाई चिरकालिक विकास संभव है। साथ ही साथ आनंद, सुख का व्यापक स्वरूप अनुभव करने को मिलेगा। सहकारिता का अर्थ प्रतिस्पर्धा नहीं, अपितु सहयोग है, सहकार है।
आईए, स्वदेशी-उद्यमिता एवं सहकार के भाव को धारण कर स्वावलंबी भारत का नवनिर्माण करने के इस सामाजिक सर्वकार में सहयोग दें। निज कर्तव्य निभाएँ। स्वयं बनाएं एवं सबके लिए उपलब्ध कराएं।

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