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हमारा भी एक सत्र

फिजी यात्रा:विश्व हिंदी सम्मेलन..

भाग-९

‘विश्व हिंदी सम्मेलन’ में फिजी जाने का सौभाग्य वक्ता के रूप में मिला, यह मेरे जैसे बालक के लिए अत्यंत सौभाग्य का विषय रहा। मुझ जिस सत्र में सहभागिता करना थी, उसकी अध्यक्षता अरुण भगत जी ने की (जो वर्धा विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के विभागाध्यक्ष रहे और वर्तमान में बिहार लोक सेवा आयोग के सदस्य), साथ में वक्ता के रूप में डॉ. नीरज गुप्ता दीदी (कुलपति सांची विश्वविद्यालय) और विजयानंद जी का वक्तव्य भी अत्यंत श्रेष्ठ रहा। मैंने अपनी बात रखते हुए सत्र के मूल विषय ‘प्रवासी साहित्य वर्तमान परिदृश्य’ विषय पर कहा कि, देश है तो हम हैं। प्रवासी साहित्यकार स्वयं की रचनाएं करके एकल योगदान तो दे रहे हैं किंतु समाज और राष्ट्र के लिए उनका योगदान क्या है, इस बात को भी रेखांकित करना चाहिए ? भारत से बाहर गए हुए प्रवासी भारतीय वास्तव में भारतीय संस्कृति के राजदूत हैं। यदि वे भारतीय संस्कृति की ध्वजा संपूर्ण विश्व के साहित्य जगत में फहराते हैं तो निश्चय ही यह भारतीय संस्कृति की भी विजय होगी और भारत की भी विजय होगी। हमें वामपंथी विचार से प्रभावित होकर पूरी दुनिया में चल रहे स्त्री विमर्श को भारतीय प्रतिमान के आधार पर परिवार विमर्श में परिवर्तित करना होगा।
आज दुनिया भारत की ओर अपेक्षा भरी दृष्टि से देख रही है। भारत से बाहर गए हुए प्रवासी साहित्यकारों को अपना दायित्व समझ कर भारत के मूल्यों के प्रचारक के रूप में स्वयं को स्थापित करना होगा।

सभी बड़ों का स्नेह और आशीष वक्तव्य पर प्राप्त हुआ। जीवन की धन्यता अनुभव कर रहा हूँ।

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