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हिन्दी योद्धा:बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री

डॉ. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल)
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जिन दिनों हिन्दी नवजारण के अग्रदूत कहे जाने वाले भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र, गद्य खड़ी बोली में लिख रहे थे,किन्तु कविता के लिए ब्रजभाषा को ही सबसे उपयुक्त मान रहे थे,उन्हीं दिनों बिहार के बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री ने कविता के लिए भी खड़ी बोली अपनाने का आन्दोलन चलाकर अपनी मौलिक और क्रान्तिकारी दृष्टि का परिचय दिया था और भारतेन्दु व उनके मंडल को चुनौती दी थी।

पुरुषोत्तम प्रसाद वर्मा ने मार्च १९०५ ई. की ‘सरस्वती’ में ‘अयोध्या प्रसाद खत्री’ शीर्षक लेख लिखा है,जिसमें उन्होंने लिखा है कि “खड़ी बोली के प्रचार के लिए खत्री जी ने इतना द्रव्य खर्च किया कि राजा-महाराजा भी कम करते हैं।” उन्होंने ब्राह्मण टोली में ब्राह्मणों के बीच घोषणा कर दी थी कि,जो पंडित अपने यजमानों के यहाँ सत्यनारायण कथा खड़ी बोली में बाँचेंगे,उन्हें वे हर कथा-वाचन के लिए १० रूपए देंगे।

गजेन्द्र कान्त शर्मा के अनुसार खड़ी बोली पद्य के प्रति उनका ऐसा अनुराग था कि,‘चंपारण-चंद्रिका’ में उन्होंने सूचना दी थी कि जो भगवान रामचंद्र जी के यश का खड़ी बोली में पद्यबद्ध वर्णन करेगा,उसे प्रति पद्य १ रूपया दिया जाएगा। ‘रामचरितमानस’ का भी खड़ी बोली में अनुवाद करने के लिए प्रति दोहे और चौपाई १ रूपया देने की उन्होंने घोषणा की थी। वे खड़ी बोली में कविता करने वाले को हर कविता पर ५ रूपया पुरस्कार अपने पास से देते थे।

बलिया (उत्तर प्रदेश) के सिकंदरपुर गाँव में जन्मे और बाद में मुजफ्फरपुर( बिहार) की कलेक्टरी में पेशकार रहे बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री (१८५७-१९०५) की जन्मतिथि के बारे में कहीं उल्लेख नहीं मिला। उनका परिवार १८५७ के सिपाही विद्रोह के कारण अंग्रेजों के भयंकर जुल्म का शिकार हुआ,अयोध्या प्रसाद खत्री के व्यक्तित्व का निर्माण इसी परिवेश में हुआ।

भारतेन्दु काल के आरंभ में खड़ी बोली तो गद्य की भाषा बन गई,किन्तु पद्य की भाषा बनने में उसे लम्बा संघर्ष करना पड़ा। पहले से चली आ रही ब्रजभाषा और उसके माधुर्य को छोड़कर खड़ी बोली को कविता की भाषा के रूप में स्वीकार करना कवियों के लिए असहज लग रहा था। इतना ही नहीं,कविताओं के विषय भी मध्यकालीन भाव-बोध से जुड़े हुए थे। ऐसे समय में अयोध्या प्रसाद खत्री खड़ी बोली के पक्ष में उठ खड़े हुए और उसे प्रतिष्ठा दिलाने में महती भूमिका निभाई। इस मुहिम में उन्हें बिहार के कुछ लोगों का साथ भी मिला। चंपारण के गाँव रतनमाल(बगहा)के कवि चंद्रशेखर मिश्र की कविता ‘पीयूष प्रवाह’ मासिक में छपी थी,जिसमें कवि अपील करता है,

“गद्य की भाषा विशुद्ध विराजित पद्य की भाषा वही मथुरा की,

आधी रहे मुरगी की छटा फिर आधी बटेर की राजै छटा की।

ऐसी कड़ी द्विविधा में पड़ी-पड़ी यों बिगड़ी कविता छवि बाँकी-

हिन्दी विशुद्ध में गद्य सुपद्य कै उन्नति कीजिए यों कविता की।”

खत्री जी गद्य और पद्य के लिए अलग-अलग भाषा के पक्ष में नहीं थे। उन्होंने ‘खड़ी बोली का पद्य’ नामक पुस्तक को २ खण्डों में प्रकाशित कराया और उसे काव्य-प्रेमियों के बीच मुफ्त में बँटवाया। इस पुस्तक का पहला भाग १८८८ ई. में लंदन से प्रकाशित हुआ था। भारत से बाहर इस काल-खण्ड में हिन्दी की किसी किताब का प्रकाशन एक असाधारण घटना थी। इस अकेली किताब की वजह से कविता की भाषा का यह मसला साहित्य जगत में व्यापक वाद-विवाद का विषय बन गया और तब तक चलता रहा,जब तक कविता की भाषा के रूप में खड़ी बोली प्रतिष्ठित नहीं हो गई।

खत्री जी द्वारा पद्य के लिए खड़ी बोली हिन्दी के प्रस्ताव का विरोध उन दिनों प्रतापनारायण मिश्र,बालकृष्ण भट्ट,राधाचरण गोस्वामी आदि भातेन्दु-मण्डल के लगभग सभी सदस्य कर रहे थे। भट्ट जी का कहना था कि हम अपनी पद्यमयी सरस्वती को किसी दूसरे ढंग पर उतारकर मैली और कलुषित नहीं करना चाहते। पद्य या कविता उसी का नाम है जिस मार्ग पर भूषण,मतिराम तथा सूर,तुलसी चल चुके हैं।

राधाचरण गोस्वामी को आपत्ति यह भी थी कि खड़ी बोली हिन्दी में कविता लिखने पर भाषा यानी जनभाषा के प्रसिद्ध छन्द छोड़कर उर्दू के बैत,शेर,गजल आदि का अनुकरण करना पड़ता है। गोस्वामी जी का मानना था कि संस्कृत नाटकों में साहित्य के लालित्य के लिए संस्कृत,प्राकृत,पैशाची आदि कई भाषाएं व्यवहार की गई हैं तो यदि हम हिन्दी साहित्य में दो भाषा व्यवहार करें तो हर्ज क्या है ?

यह खत्री जी के प्रभाव का ही फल था कि,उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में बिहार का हिन्दी आन्दोलन उर्दू और हिन्दी को साथ लेकर चल रहा था,जबकि तत्कालीन पश्चिमोत्तर प्रान्त का हिन्दी आन्दोलन उर्दू और मुसलमानों का प्रखर विरोध कर रहा था। ऐसे दुर्दिन में अयोध्या प्रसाद खत्री ने हिन्दी और उर्दू की एकता का पक्ष लेकर हिन्दी के जातिय चरित्र को बचाए रखने का ऐतिहासिक कार्य किया। भारतेन्दु मंडल के सदस्यों की इस भाषा-नीति का प्रतिवाद करते हुए अयोध्या प्रसाद खत्री ने ‘एक अगरवाले के मत पर खत्री जी की समालोचना’ शीर्षक पैम्फ्लेट छपवाकर बँटवाया,जिसमें उन्होंने लिखा, “बाबू भारतेन्दु हरिश्चंद्र ईश्वर नहीं थे। उनको शब्दों का कुछ भी बोध नहीं था। यदि फिलोलॉजी का ज्ञान होता तो खड़ी बोली पद्य में रचना नहीं हो सकती है, ऐसा नहीं कहते।”

जिस दौर में भारतेन्दु मंडल के सदस्यों की तूती बोलती थी,उसमें ऐसी टिप्पणी करना सामान्य साहस की बात नहीं है। उस दौर में अयोध्या प्रसाद खत्री ने उर्दू और हिन्दी को साथ लेकर चलने का पक्ष ही नहीं लिया अपितु उसका नेतृत्व भी किया। उन्होंने भाषा को धर्म के आधार पर बाँटने का कड़ा विरोध किया।

खत्री जी ने ‘खड़ी बोली का पद्य’ के पहले भाग में जो भूमिका लिखी है उसमें उन्होंने खड़ी बोली को ५ भागों में बाँटा है- ठेठ हिन्दी,पंडित जी की हिन्दी,मुंशी जी की हिन्दी,मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी। उन्होंने मुंशी जी की हिन्दी को आदर्श हिन्दी माना है जिसमें कठिन संस्कृतनिष्ठ शब्द न हों तथा अरबी-फारसी के भी कठिन शब्द न हों।

सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी उस समय खड़ी बोली में पद्य लिखे जाने का विरोध किया था।दुखद पक्ष यह है कि ग्रियर्सन के अनुयायियों की एक बड़ी संख्या पैदा हो गई थी। परवर्ती भाषा वैज्ञानिकों में से अधिकाँश ने ग्रियर्सन की भाषा-नीति को यथावत मान लिया। इसी तरह परवर्ती साहित्येतिहासकारों ने भी ग्रियर्सन का अंधानुकरण किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसे महान आचार्य ने भी गार्सां द तासी की ‘हिन्दुस्तानी’ से किनारा कर लिया ,जबकि आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ग्रियर्सन की भाषा नीति का विरोध करते हुए अपनी पैनी दृष्टि का परिचय दिया था। आचार्य द्विवेदी लिखते हैं,-“इस देश की सरकार के द्वारा नियत किए गए डॉ. ग्रियर्सन ने यहाँ की भाषाओं की नाप-जोख करके संयुक्त प्रान्त की भाषा को ४ भागों में बाँट दिया है-माध्यमिक पहाड़ी,पश्चिमी हिन्दी,पूर्वी हिन्दी,बिहारी। आप का यह बाँट-चूँट वैज्ञानिक कहा जाता है और इसी के अनुसार आप की लिखी हुई भाषा विषयक रिपोर्ट में बड़े-बड़े व्याख्यानों,विवरणों और विवेचनों के अनंतर इन चारों भागों के भेद समझाए गए हैं,पर भेद के इतने बड़े भक्त डॉ. ग्रियर्सन ने भी प्रान्त में हिन्दुस्तानी नाम की एक भी भाषा को प्रधानता नहीं दी।”

हिन्दी पत्रकारिता और साहित्य में जब भारतेन्दु की तूती बोलती थी,देवकीनंदन और अयोध्याप्रसाद,यही २ लेखक थे,जिन्होंने भारतेन्दु की संस्कृतनिष्ठ हिन्दी का खुलकर विरोध करने का साहस किया था।”( रस्साकसी:उन्नीसवीं सदी का नवजागरण और पश्चिमोत्तर प्रान्त,पृष्ठ-७७)

खत्री जी ने ‘हिन्दी व्याकरण’ नाम से खड़ी बोली का व्याकरण लिखा है। इसमें उन्होंने स्थापित किया है कि हिन्दी और उर्दू में महज लिपि का फर्क है।

४ जनवरी १९०५ को ४८ वर्ष की उम्र में प्लेग से खत्री जी का निधन हो गया। खेद है, उन्हें बड़ी तेजी से भुला दिया गया। संप्रति उनके स्मारक के रूप में उनकी कर्मस्थली मुजफ्फरपुर ( बिहार) में उन्हीं के द्वारा ब्राह्मण टोली में बनवाया गया एक छोटा-सा शिव मंदिर मौजूद है।

जुलाई २००७ में मुजफ्फरपुर में उनकी स्मृति में ‘अयोध्या प्रसाद खत्री जयंती समारोह समिति’ की स्थापना हुई। यह समिति प्रतिवर्ष किसी विशिष्ट व्यक्ति को सम्मानित करती है। अयोध्या प्रसाद खत्री के जीवन तथा कार्यों पर वीरेन नन्दा ने ‘खड़ी बोली के भगीरथ’ नाम से एक फिल्म भी बनाई है। इसके अलावा राम निरंजन परिमलेन्दु ने साहित्य अकादमी के लिए खत्री जी पर एक विनिबंध भी लिखा है।

अयोध्या प्रसाद खत्री की पुण्यतिथि पर हम खड़ी बोली की प्रतिष्ठा के लिए उनके द्वारा किए गए असाधारण योगदान का स्मरण करते हैं और श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन,मुम्बई)

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