दिल्ली
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पिछले कुछ दशकों तक यह मान्यता रही कि जीवन की मध्य आयु वर्ग (४०-५० वर्ष) के लोग ही सबसे अधिक अवसादग्रस्त, तनावग्रस्त, क्रोधित और दुखी होते हैं। युवावस्था और बुजुर्गावस्था अपेक्षाकृत अधिक प्रसन्न और संतुलित मानी जाती थी, लेकिन हाल के वैश्विक अध्ययनों ने इस धारणा को पूरी तरह बदल दिया है। दुनिया में मानसिक स्वास्थ्य पर नजर रखने वाली ग्लोबल माइंड प्रोजेक्ट सहित अनेक शोध बताते हैं कि दु:ख और तनाव की शुरुआत अब युवावस्था से ही होने लगी है। सबसे खुशी, मस्त एवं तनावमुक्त जीवन जीने वाली यह पीढ़ी अब सबसे अधिक तनावग्रस्त हो गई है, जो गहन चिन्ता का सबब है। अमेरिका, ब्रिटेन, एशिया, अफ्रीका और मध्यपूर्व जैसे ४४ देशों के आँकड़े स्पष्ट संकेत हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से आज की युवा पीढ़ी बुजुर्गों से भी अधिक कमजोर है। युवाओं की इस स्थिति के पीछे कई कारण बताए जाते हैं, जैसे- रोजगार की असुरक्षा, भविष्य की अनिश्चितता, कार्यस्थलों का दबाव, प्रतिस्पर्धा का वातावरण और सबसे बड़ा कारक सोशल मीडिया का बढ़ता हस्तक्षेप। आभासी दुनिया युवाओं को बड़े सपने तो दिखाती है, लेकिन जीवन की कठोर सच्चाइयों से उनका सामना नहीं कराती। यही कारण है, कि वास्तविक चुनौतियों से टकराते ही वे टूटने लगते हैं।
आज के युवा सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय रहते हैं। देर रात तक पर्दे से चिपके रहना उनकी नींद और दिनचर्या दोनों को प्रभावित कर रहा है। आभासी मित्रता की दुनिया में उन्हें वास्तविक संबंधों की गर्मजोशी नहीं मिल पाती। संवाद की जगह इमोजी ले लेते हैं और भावनाओं का स्थान कृत्रिम पोस्ट। परिणामस्वरूप वे वास्तविक सामाजिक जीवन से कटते जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि जब इंसान अपने मित्रों, परिवार और समाज के साथ आमने-सामने संवाद करता है, तो तनाव कम होता है। कृतज्ञता का भाव मानसिक संतुलन को बनाए रखता है, परंतु डिजिटल आभामंडल में जीने वाला युवा जब तुलना लगातार दूसरों की सफलता और भौतिक समृद्धि से करता है, तो उसमें हीनभावना और निराशा जन्म लेती है। यही निराशा कई बार आक्रोश का रूप ले लेती है।
सवाल यह है, कि मानसिक तनाव का सीधा रिश्ता हिंसा से कैसे जुड़ रहा है। दरअसल, जब कोई व्यक्ति भीतर से असुरक्षित, असंतुष्ट और हताश होता है तो उसकी ऊर्जा रचनात्मकता की बजाय विध्वंसक रास्ते पकड़ लेती है। जिन युवाओं को उचित दिशा, रोजगार और सामाजिक मान्यता नहीं मिल पाती, वे गुस्से में समाज के खिलाफ खड़े हो जाते हैं। यही गुस्सा कई बार सामाजिक अशांति के रूप में सामने आता है। यह वैश्विक चलन केवल पश्चिमी देशों तक सीमित नहीं है। भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और विशेष रूप से नेपाल में हालिया परिदृश्य इसका उदाहरण हैं। नेपाल में पिछले महीनों हुए दंगे, हाल की युवा क्रांति ने इस सच्चाई को सामने ला दिया है कि निराशा से भरे युवाओं की ऊर्जा किस तरह हिंसा और अराजकता का रूप ले सकती है। नेपाल का इतिहास ही युवा आंदोलनों से भरा रहा है। राजतंत्र से लोकतंत्र और फिर लोकतांत्रिक अस्थिरता के बीच युवा हमेशा निर्णायक शक्ति रहे हैं। नेपाल के युवा लंबे समय से बेरोजगारी, भ्रष्टाचार और राजनीतिक अस्थिरता से जूझ रहे हैं। वहां की जनसंख्या का बड़ा हिस्सा ३० वर्ष से कम आयु का है, लेकिन रोजगार और अवसरों की कमी उन्हें या तो प्रवासी मजदूरी की ओर धकेल रही है या फिर हिंसक आंदोलनों की ओर। एक तरफ वhan पर नई राजनीतिक चेतना के स्वर सुनाई देते हैं, दूसरी तरफ यह चेतना जब रचनात्मक दिशा नहीं पाती तो दंगे, हिंसा और अराजकता का रूप ले लेती है।
नेपाल के हालिया आंदोलन यह भी बताते हैं कि युवा सिर्फ रोजगार और आर्थिक अवसर ही नहीं चाहते, वे सामाजिक न्याय, ईमानदार एवं भ्रष्टाचारमुक्त शासन और राजनीतिक स्थिरता की भी मांग कर रहे हैं, लेकिन जब इन मांगों को अनसुना किया जाता है, तो वही आक्रोश सड़क पर हिंसा के रूप में फूट पड़ता है। यदि हम नेपाल की घटनाओं को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह सिर्फ एक देश की समस्या नहीं है। यह उस वैश्विक संकट की झलक है, जिसमें पूरी दुनिया की युवा पीढ़ी फंसी हुई है। अमेरिका और ब्रिटेन जैसे विकसित देशों में भी २०१६ के बाद से ४० वर्ष से कम उम्र के युवाओं में अवसाद और चिंता बढ़ी है। एशिया और अफ्रीका जैसे विकासशील देशों में रोजगार की असुरक्षा ने युवाओं को और हताश किया है। तकनीकी विकास और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के बढ़ते प्रयोग ने श्रम आधारित रोजगार के अवसर सीमित कर दिए हैं।
युवाओं के दु:ख, तनाव और हिंसा की प्रवृत्ति को केवल नीतियों या आर्थिक सुधारों से नहीं रोका जा सकता। इसके लिए बहुस्तरीय प्रयासों की जरूरत है। युवाओं को आभासी जीवन से बाहर लाने और वास्तविक संवाद व संबंधों की ओर प्रेरित करना होगा। सरकारों को युवाओं के लिए स्थायी और सुरक्षित रोजगार के अवसर सृजित करने होंगे। शिक्षा को केवल उपाधि तक सीमित न रखकर जीवन कौशल और मानसिक स्वास्थ्य पर भी केंद्रित करना जरूरी है। युवाओं की ऊर्जा को रचनात्मक सामाजिक और राजनीतिक भागीदारी में लगाना होगा, ताकि उनकी निराशा हिंसा की ओर न मुड़े।
युवा पीढ़ी किसी भी समाज का भविष्य होती है, लेकिन जब यही पीढ़ी दु:ख, तनाव और हिंसा के दुष्चक्र में फंस जाती है तो समाज का भविष्य ही संकटग्रस्त हो जाता है। युवा सपनों को आकार देने का अर्थ है सम्पूर्ण मानव जाति के उन्नत भविष्य का निर्माण। यह सच है कि हर दिन के साथ जीवन का एक नया लिफाफा खुलता है, नए अस्तित्व के साथ, नए अर्थ की शुरूआत के साथ, नयी जीवन दिशाओं के साथ हर नई आंख देखती है इस संसार को अपनी ताजगी भरी नजरों से। इनमें जो सपने उगते हैं इन्हीं में नये समाज- आदमी की नींव रखी जाती है। यह सिर्फ नेपाल का प्रश्न नहीं, बल्कि पूरी दुनिया का प्रश्न है। आज आवश्यकता इस बात की है कि हम युवाओं को केवल सपने ही न दिखाएँ, बल्कि उन्हें वास्तविक जीवन की चुनौतियों से जूझने का संबल दें। असीमित आकांक्षाओं और कठोर यथार्थ के बीच संतुलन स्थापित करना ही मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक शांति की कुंजी है। यदि हम यह संतुलन नहीं बना पाए, तो युवा आक्रोश स्थिरता को चुनौती देगा एवं महाविनाश का कारण बनेगा।