साहित्योत्सव…
भोपाल (मप्र)।
यह सच है कि भारत में बाल साहित्य सबसे उपेक्षित विधा रही है, जबकि विदेशों में तो बाल साहित्य के लिए विश्वविद्यालय तक उपलब्ध हैं। भारत ने ही संपूर्ण विश्व को ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ का सूत्र दिया था, अतः यही भावना यदि भारतीय बाल साहित्यकार अपने सृजन में भी लाएं, तो वो रचना वैश्विक स्तर पर लोगों तक पहुंच पाएगी। संस्कारों से पोषित हमारे देश का बच्चा ए.के. फोर्टी सेवन नहीं मांगता, बल्कि कहता है माँ खादी की चादर दे दे। अतः अनुवाद भी ऐसा हो जो संस्कार पोषित करे व संस्कृति के निकट रहे।
साहित्य अकादमी मध्य प्रदेश के निदेशक, ‘देवपुत्र’ के सम्पादक, राष्ट्रीय बाल साहित्यकार और केंद्र सरकार की साहित्य अकादमी में सदस्य डॉ. विकास दवे ने यह बात ‘उन्मेष’ अंतरराष्ट्रीय साहित्योत्सव (भोपाल) के तृतीय दिवस नीलांबरी सभागार में आयोजित सत्र ‘बच्चों के साहित्य का अनुवाद’ विषय पर कही। आपने बताया कि, कुछ वर्ष पहले हमारे अनुवाद पुरुष को हाथीपाँव का रोग लगा था कि वो सिर्फ एक ही भाषा में अनुवाद करते जा रहे थे, मगर नवीन शिक्षा नीति के आने के बाद अब अनुवाद को सार्वभौमिक बनाने के प्रयास हो रहे हैं और अब पुस्तकें विभिन्न भारतीय भाषाओं एवं आँचलिक भाषाओं में भी उपलब्ध होने जा रही हैं। आपने बताया कि स्रोत भाषा से लक्ष्य भाषा में अनुवाद करते समय नामकरण, देश, काल, परिस्थिति, सांस्कृतिक वातावरण एवं राजनीतिक व सामाजिक संदर्भ को भी यदि ध्यान में रखा जाता है तो अनुदित साहित्य की ग्राहिता, आत्मीयता एवं आनंदमूलकता बढ़ जाती है। अनुवाद की गंगा को बहाना चाहते हैं तो वह रसतत्व होना चाहिए, जो गंगाजल में होता है और वह रसतत्व संस्कार का होता है। संस्कार के हनन को रोकने के लिए हमें बाह्य विकृतियों से बचाना चाहिए। पौराणिक आख्यान और अमरचित्र कथाओं से भी परिचित करवाना आवश्यक है।
सत्र की अध्यक्षता तपन बंदोपाध्याय ने करते हुए कहा कि, बच्चों के मस्तिष्क में अद्भुत क्षमता होती है कि वो शब्दों को बहुत अच्छी तरह से समझ लेते हैं। अतः हम उन्हें ऐसा साहित्य परोसें, जिसमें परिष्कृत भाषा का उपयोग हो। भारत में गीत-संगीत के लिए, नाट्यकला के लिए अलग अलग अकादमी हैं, मगर बाल साहित्य के लिए कोई भी अकादमी नहीं है, जिसकी बहुत आवश्यकता है।
वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. दिविक रमेश (नोएडा) ने कहा कि, बाल साहित्य के प्रति उदासीनता हमें फिजी के अंतराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भी देखने को मिली। आपने बताया कि मराठी और बंगाली में वृदह बाल साहित्य उपलब्ध है, मगर हिन्दी में नहीं। इसलिए अब बाल साहित्य को सृजित एव अनुवादित करने की बहुत आवश्यकता है। अनुवाद करते समय ध्यान रखें कि भाषा की निजता खत्म न हो। आपने सुझाव दिया कि साहित्य अकादमी को भी बाल साहित्य की पुस्तकों का अनुवाद अन्य भाषाओं में करना चाहिए। आपने उन सुक जुंग की कविता ‘घर का काम मिला है मुझको’ भी सुनाई।
दिल्ली से आए वरिष्ठ साहित्यकार रिषिराज ने बताया कि, बाल साहित्य में नई सोच लाने का वक्त है, अतः अनुवाद ऐसे होने चाहिए कि जो संस्कृति-संस्कार को संरक्षित कर अगली पीढ़ी को स्थानांतरित करने की योग्यता रखते हों।
केरल से आए टी. विष्णुकुमारन ने बताया कि, अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करने से ज्यादा समस्या द्रविड़ भाषा से या में अनुवाद करने में उत्पन्न होती है, लेकिन अनुवाद विहीन दुनिया की कल्पना असंभव है। इसलिए, यह आवश्यक है कि जो भी बाल साहित्य से संबंधित सृजन और अनुवाद हो, वो नैतिक मूल्यों को अवश्य ध्यान में रखें।