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अपना-पराया

श्रीमती चांदनी अग्रवाल
दिल्ली
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हम सबने परिवारों की बातचीत में अक्सर सुना है कि अपना तो अपना ही होता है। पराया अपना नहीं हो सकता। मुझे तो ऐसा लगता है कि जिस व्यक्ति से हमारा मन मिल जाता है,वह अपना-सा लगने लगता है। दूसरी ओर कोई अपना निकट का होकर भी पराया लगता है।
अभी पिछले महीने ही मेरी पक्की सहेली मालिनी अपनी बेटी को परीक्षा दिलाने के लिए हमारे घर दिल्ली आई थी। परीक्षा खत्म होने के बाद शाम को हम दोनों गपशप करने लगीं। सहेलियां जब मिलती है तो उनके गपशप के पसंदीदा विषय होते हैं- बचपन की खट्टी-मीठी यादें,पति,बच्चे,ससुराल और मायके के सभी सदस्य। बातों ही बातों में मालिनी को २० वर्ष पहले की बात याद आ गई। कहने लगी कभी-कभी ससुराल वाले नई बहू को समझने में भूल कर देते हैं। कुछ ऐसी बातें कह देते हैं,जो हम कभी भूल नहीं पाते। तब मैंने उत्सुकता से पूछा- ऐसी क्या बात है जो तुझे अचानक याद आ गई ? मालिनी कहने लगी-जब मैं इस परिवार में नई बहू बन कर आई थी तब परिवार में छ: सदस्य थे। मैं, पति सुधीर,जेठ,जेठानी,उनका बेटा और सासू माँ। कुछ समय बाद जेठ जी का तबादला होने से जेठ- जेठानी हैदराबाद चले गए। अब जब भी समय मिलता,सुधीर मेरे साथ ही समय बिताने लगे। हम दोनों में अच्छी समझ विकसित हो रही थी कि अचानक एक दिन सासू माँ ने मुझसे कहा कि, तुम्हारे आने के बाद मेरा तीस साल का बेटा पराया हो गया। पहले तो मैं उनके कहने का मतलब समझ ही नहीं पाई,परन्तु जब समझ आया तो मैं बहुत दुखी हो गई। मैं विवाह के बाद सुधीर और परिवार को खुश रखना चाहती थी,परन्तु सासू माँ के शब्दों के बाणों ने मुझे विचलित कर दिया। मैं इस समस्या का समाधान खोजने लगी। जब कुछ समझ नहीं आया तो मैंने इस बात को समय पर छोड़ दिया। कुछ समय के लिए हमारे घर का माहौल गंभीर हो गया था। मैंने सुधीर से इस बारे में कुछ नहीं कहा। कुछ समय बाद सासू माँ उनके घर अजमेर चली गई। वह घर पापाजी ने बनवाया था,इसलिए उस घर से उनका मोह अधिक था। पापा जी के साथ उन्होंने उस घर में १५ बरस बिताए थे। अब वहां अकेली ही रहती है और घर की देख-रेख करती हैं। जब भी सुधीर उनसे अपने पास आने को कहते तो यह कह कर मना कर देती कि मेरा यहां अच्छा मन लगा रहता है। यहां पास-पड़ोस के लोगों के साथ मेरा समय अच्छा गुजर जाता है। मैं तुम्हारे यहां बोर हो जाती। फिर भी आग्रह करके सुधीर उन्हें साल भर में एक बार तो बुला ही लेते हैं।
कुछ वर्ष इसी तरह बीते। अब हम दोनों २ से ४ हो गए थे। १ बेटा और १ बेटी के अब हम माता- पिता बन चुके थे। अब जब भी अम्मा जी आती तो मैं तो बच्चों में व्यस्त रहती,परंतु अम्मा जी और सुधीर अपना समय एकसाथ व्यतीत करते।
मैंने मालिनी से पूछा-आज तुम्हें यह सब बातें क्यों याद आ रही है ?
तब मालिनी ने कहा-अभी अम्मा जी आई हुई है और पूर्व की तरह ही अम्मा जी और सुधीर दोनों माँ-बेटे साथ-साथ बालकनी में बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ अखबार पढ़ते हैं और अपना समय व्यतीत करते हैं,हरियाली का आनंद लेते हैं। सुधीर मुझे भी उनके साथ बैठने को कहते हैं परंतु मैं रोज कोई ना कोई बहाना बनाकर स्वयं को व्यस्त कर लेती हूँ। जब भी अम्माजी आती है,तो मुझे उनकी २० साल पहले कही हुई बात याद आ जाती है। मै बहू हूँ,इसलिए कुछ कह नहीं सकती परन्तु जब भी अम्मा जी आती हैं तो उनके बेटे और उनको अकेला छोड़ देती हूँ। इस तरह अम्मा जी की समस्या को दूर करने का प्रयास करती हूँ।
मालिनी की बात सुनकर लगा कि यह समस्या कईं परिवारों में देखने को मिलती है। मेरी नजर में इस समस्या का हल यह है कि परिवार के हर सदस्य को अपनी जिम्मेदारी का अहसास होना चाहिए। तब जबकि,घर में कोई नई बहू का आगमन हो। माता-पिता को समझना चाहिए कि अब उनके पुत्र का प्रेम साझा करने के लिए अब उसकी पत्नी आ गई है। यदि परिवार के सभी सदस्य उस नई बहू को प्यार और दुलार देंगे तो वह जल्दी ही परिवार के अनुरूप ढल जाएगी। दूसरी और सुधीर जैसे पुत्र को दिन-भर की भाग दौड़ में से कुछ समय अपने माता-पिता के लिए भी निकालना चाहिए। सभी माता-पिता से यही निवेदन कि,जब वे अपने पुत्र के प्रेम को अपनी बहू से बाँटने का मन बना लें,तभी उसका विवाह करें।

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