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आदेशों के आलोक में जनभाषा में न्याय की व्यवस्था करे सरकार

जनभाषा में न्याय…

दिल्ली।

स्वतंत्रता के ७८ वर्ष बाद भी औपनिवेशिक भाषा अंग्रेजी न आने के कारण देश के नागरिकों को अपने ही देश में अपने उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में और काफी हद तक निचली अदालतों में भी गूंगों-बहरों की तरह क्यों खड़े होना पड़ता है ? यह देश के १४० करोड़ देशवासियों के साथ अन्याय है। अब भारत सरकार को चाहिए कि वह राष्ट्रपति के १९६० के आदेशों के आलोक में जनभाषा में न्याय की व्यवस्था करे।
यह बात वैश्विक हिंदी सम्मेलन
(मुम्बई) के निदेशक डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’ ने जनभाषा में न्याय के लिए जंतर-मंतर पर आयोजित धरने-प्रदर्शन के दौरान कही। यह आयोजन सम्मेलन, अखिल भारतीय भाषा संरक्षण संगठन तथा अखिल भारतीय अंग्रेजी अनिवार्यता विरोधी मंच द्वारा किया गया। संगठन के अध्यक्ष हरपाल सिंह जटराणा ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद ३४८ (२) के तहत राष्ट्रपति की पूर्व अनुमति से राज्य का राज्यपाल अधिसूचना जारी करके राज्य के उच्च न्या. में राज्य की राजभाषा लागू कर सकता है, लेकिन संविधान के इस प्रावधान के प्रतिकूल तत्कालीन सरकार के मंत्रिमंडल ने १९६५ में यह आदेश जारी किया, कि जब किसी राज्य से उस राज्य की उच्च न्यायालय में वहाँ की भाषा लागू करने का प्रस्ताव आए तो पहले उच्चतम न्यायालय से पूछा जाए। वर्तमान सरकार को चाहिए कि मंत्रिमंडल के निर्णय को तत्काल समाप्त करे।
आयोजकों द्वारा भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और गृहमंत्री को सौंप गए ज्ञापनों में राष्ट्रपति के आदेशों को लागू करने की बात कही गई, जिसमें कहा गया था कि समय आने पर सर्वोच्च न्यायालय में हिंदी में न्याय की व्यवस्था की जाएगी तथा उच्च न्यायालय में भारतीय भाषाएं लागू होंगी। धरने में संस्थाओं की तरफ से कहा गया कि जो काम १९६५ तक होना चाहिए था, वह २०२५ तक भी नहीं हो सका है। अब यह सही समय है कि आदेशों को तत्काल कार्यान्वित किया जाए।
मंच के अध्यक्ष मुकेश जैन ने कहा कि राष्ट्रपति के २४ नवंबर १९९८ के राजभाषा आदेशों को भी अभी तक लागू नहीं किया गया है जिनमें सर्वोच्च न्या. में निर्णयों तथा समग्र प्रशासनिक कार्य हिंदी में करने की बात कही गई है। यह सर्वोच्च न्या. की मनमानी है, जिसे समाप्त किया जाना चाहिए।
कार्यक्रम की अध्यक्षता शिवसागर तिवारी (अधिवक्ता उच्चतम न्या.) द्वारा की गई। मुख्य अतिथि पटना उच्च न्या. के निलंबित अधिवक्ता इंद्रदेव प्रसाद रहे। दोनों महानुभावों का पटका पहनाकर सम्मान किया गया। उपस्थित समुदाय ने यह निर्णय किया कि जनभाषा में न्याय की व्यवस्था होने तक यह संघर्ष जारी रहेगा। आयोजन में न्यू मीडिया सृजन संसार की संस्थापक-निदेशक डॉ. पूनम चतुर्वेदी शुक्ला का
महत्वपूर्ण योगदान रहा।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)