डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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अभी रेलवे अस्पताल की ड्यूटी के लिए निकला ही था कि पड़ोस वाले शर्मा जी मिल गए। उन्होंने पूछा, “आपका रेलवे अस्पताल का टाइमिंग क्या है ?”
मैंने कहा, “अरे, आप पड़ोसी हैं, आपको रेलवे अस्पताल में आने की क्या ज़रूरत है ? आप मेरे क्लिनिक पर ही आ जाइए न। आपके लिए टाइमिंग क्या है ? जब चाहें, आ जाइए।”
शर्मा जी बोले, “नहीं, मेरे पिताजी को भर्ती कराना है। आप तो जानते हैं, पिताजी रेलवे से रिटायर हुए हैं।”
मुझे यह सुनकर थोड़ी झिझक हुई। उनके पिताजी रेलवे से सेवानिवृत्त हुए, यह बात मुझे अभी-अभी पता चली। पड़ोसी होने के नाते पड़ोसी की जन्म कुंडली पूरी तरह खंगालना शायद मुझे नहीं आया था। मैंने अपनी झेंप को छुपाते हुए कहा, “हाँ, याद है, आपने ज़िक्र किया था, लेकिन फिर भी उन्हें यहीं दिखा लीजिए। क्यों उन्हें परेशान करते हैं ? आप कहें तो मैं घर आकर भी देख सकता हूँ।”
शर्मा जी बोले, “नहीं-नहीं, वो बात नहीं है। असल में हमें उन्हें भर्ती कराना है, लेकिन वहाँ जो हॉस्पिटल इंचार्ज हैं डॉ. वर्मा जी, वो भर्ती नहीं कर रहे। आप भी वहाँ कार्यरत हैं, आपकी सिफारिश से काम हो जाएगा। आप लिख देंगे, तो उन्हें भर्ती करना ही पड़ेगा।”
मैंने कहा, “ठीक है, लेकिन कोई ऑर्थो समस्या है क्या ?” दरअसल, मेरी मजबूरी थी। मेरे अधिकार क्षेत्र में मैं सिर्फ अपने विषय से संबंधित मरीजों को ही भर्ती कर सकता था।
शर्मा जी बोले, “नहीं, ऑर्थो की समस्या नहीं है। बस कमजोरी है, खाना-पीना ढंग से नहीं ले रहे। चलने में समस्या है। बार-बार बिस्तर से सहारा देकर उठाना पड़ता है। रात को ४ बार पेशाब के लिए उठ जाते हैं। चिल्लाते रहते हैं, हमें सोने नहीं देते। बहुत बीमार हैं, लेकिन रेलवे अस्पताल वाले जानबूझकर इन्हें सामान्य बुढ़ापे के लक्षण बताकर भर्ती नहीं कर रहे।”
मुझे मामला समझ नहीं आया। शर्मा जी से जैसे-तैसे पीछा छुड़ाकर रेलवे अस्पताल पहुँचा और सीधा अस्पताल के इंचार्ज वर्मा जी के चेम्बर में गया।
मैंने वर्मा साहब से इस बारे में बात की तो उन्होंने बताया, “आपके पड़ोसी के पिताजी हर महीने १५-२० दिन किसी न किसी बहाने अस्पताल में लाए जाते हैं और यहाँ उन्हें भर्ती करवा जाते हैं। उसके बाद कोई नहीं आता उन्हें देखने। बड़ी मुश्किल से शर्मा जी को बुलाकर इन्हें भेजते हैं। उन्हें समझाते हैं कि भाई, ये बुढ़ापे की समस्याएं हैं, बीमारी नहीं। बड़ी जद्दोजहद के बाद ये इन्हें ले जाते हैं, लेकिन कुछ दिन बाद फिर किसी बहाने इन्हें लेकर लौट आते हैं। यहाँ आकर झगड़ा करते हैं कि इन्हें भर्ती क्यों नहीं किया जा रहा। बहस करते हैं, शोर-शराबा करते हैं। यूनियन वालों से फोन कराते हैं, ऊपर के अधिकारियों से फोन कराते हैं। कहते फिरते हैं, ‘रेलवे अस्पताल कर्मचारी की सुविधा के लिए है, मगर ये लोग मरीज को घर पर ही भेज देते हैं। ये अस्पताल खासकर रेलवे पेंशनर्स की सुविधाओं के लिए ही तो है। अगर इन्हें यहाँ नहीं रखेंगे, तो क्या हम अपने घर रखेंगे ?”
मुझे अब मामला साफ हो गया। आजकल सरकारी और रेलवे अस्पताल आधुनिक वृद्धाश्रम ही तो बन गए हैं। मुफ्त में इलाज, देखभाल, सुबह-शाम का खाना-पीना और घर की चिक-चिक से छुटकारा-और क्या चाहिए किसी परिवार को ?