हरिहर सिंह चौहान
इन्दौर (मध्यप्रदेश )
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वर्तमान समय में मनुष्य के विचार आधुनिक होते जा रहे हैं। इस दुनिया में जब हम माँ-बाप की अंगुली पकड़कर आए थे, तो खुशी का सुखद अहसास हुआ करता था। हमारे परिजनों ने हमें अच्छा बच्चा बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। हमें अच्छी शिक्षा दी, संस्कार व सभ्यता का पाठ पढ़ाया। माता-पिता ने हम बच्चों को परिवार व रिश्तों के बंधन में बंधकर रखा हुआ था। स्नेह- वात्सल्य की वही मजबूत डोर हम सभी को परिवार की एकजुटता से जोड़ कर रखती है, पर वर्तमान समय में अब यह विचार पुराने कहे जा रहे हैं। इस समय अपनत्व को रूढ़िवादी कहा जा रहा है। नए युग में मनुष्य आधुनिकता के इस चक्रव्यूह में घिरा हुआ है। आखिर हम लोग आज अपनी जड़ों से क्यों दूर हो रहे हैं, यह समझ में नहीं आ रहा है।
वर्तमान समय में शहरों में देखें तो वृध्दाश्रम की संख्या दिन- पर-दिन बढ़ रही है। ईंट-पत्थरों के घरों में परिवार कम हो गए हैं। वह घर-मकान अब फ्लैट में तब्दील हो चुके हैं। अपने आस-पास, पड़ोसी से हम लोगों ने बातचीत करना बंद कर दिया है। संवाद की हर दीवार अब बंद हो चुकी है। एक-दूसरे की बात व जान-पहचान खत्म हो गई है। मतलब के लिए हम अब मतलबी बन चुके हैं। संयुक्त परिवार अब इस नए जमाने में दूर की कौड़ी हो गई है।
आजकल की पीढ़ी में अब सभी अकेला रहना पसंद करते हैं। तभी तो माँ-बाप वृध्दाश्रम में पहुंच गए हैं। माता-पिता को उनके घरों से निकाल कर बेटे-बहू ऐसे में पुण्य कमाने तीर्थयात्रा करने जा रहे हैं, पवित्र नदियों में स्नान कर रहे हैं। आखिर यह क्या दिखाना चाहते हैं दुनिया को ? क्या यह इन लोगों का असली चरित्र-दर्शन है, जो फेसबुक, इंस्टाग्राम, व्हाट्सएप और यू-ट्यूब पर रील डाल कर बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। गंगा स्नान की रील से ज्यादा असली पुण्य व पाप को इन भटके हुए लोगों को समझाने की जरूरत अब समाज को है। जो लोग अपने परिजनों एवं माता-पिता को उनके घरों से निकाल रहे हैं और उन्हें जीवन-यापन के लिए मदद नहीं कर रहे, ऐसे लोगों के सही में विचार ख़राब हैं। ऐसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। जिनकी खुद के नजरिए में अपनों व परिवार के बड़े-बुजुर्गों की कोई जगह नहीं हो, उनसे समाज व राष्ट्र क्या आशा करता है, यह समझना होगा। जिन माँ-बाप ने उन्हें अपने पैरों पर खड़ा किया है, उनके दुःख-तकलीफ एवं बुढ़ापे में सहयोग नहीं देने वाले ऐसे बच्चों से क्या उम्मीद कर सकते हैं! वह दिशाभ्रमित व भटके हुए ढोंगी बच्चे तथा बहू-बेटे पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्रा कर रहे हैं, नदियों में डुबकी लगा रहे हैं। ऐसे लोग कितनी भी तीर्थयात्रा कर लें, कितने भी घाटों में पूजा कर लें, पर विफल ही होगी।
पुराणों में एक कहानी मिलती है, कि माता-पिता की सेवा क्या होती है-जब भगवान महादेव व पार्वती माता ने अपने बच्चों गणेश व कार्तिक की परीक्षा ली और कहा कि तीनों लोकों की तीन परिक्रमा जो सबसे पहले लगाएगा, वह प्रथम पूज्य होगा। कार्तिक अपने वाहन मोर पर बैठकर निकल गए। गणेश जी का बुद्धि कौशल शुरू से था। उन्होंने सोचा कि तीनों लोकों में माता-पिता ही सबसे बड़े व पूजनीय हैं तो अपने वाहन मूषक पर बैठकर भगवान शिव व माता पार्वती जी की ३ परिक्रमा लगा ली और तीनों लोकों के सबसे बुद्धिमान व प्रथम पूजनीय देव बन गए। आज के इस नये दौर में भी यह कहानी प्रशंसनीय और अनुकरणीय बन सकतीं है, तब जब सन्तानें अपने बुजुर्ग परिजनों व माता-पिता की सेवा का संकल्प लें।
आजकल के युवक-युवतियों को ‘एकला चलो’ से बचना ही चाहिए, क्योंकि संयुक्त परिवारों की छाया में वृटवक्ष का अनुभव मिलता है। इससे दु:ख व सुख दोनों बहुत प्रभावित होते हैं। अकेले रहने वाले लोग व उन लोगों की परिवार से दूरी उन्हें हमेशा दुखी रखती है। वर्तमान समय में हमारे यह आधुनिक आपसी खींचतान व पारिवारिक झगड़ों का कारण बनते जा रहे हैं, तभी तो वृद्ध लोगों की अपने परिजन सेवा नहीं करते। इसी के चलते शहरों के वृध्दाश्रम में बुजुर्गों की संख्या बढ़ती जा रही है। इसी पुण्य-पाप की कड़ी में वर्तमान में नयी पीढ़ी राह भटक गई है। इन्हें सही रास्ता दिखाने के लिए सामाजिक स्तर पर जागरूकता लानी होगी। इन्हें सेवा-समर्पण के भावों को समझाने हेतु हम सभी को मिल-जुलकर पतन की इस बुराई को फैलने से रोकना होगा।
हमारी सार्थक व सकारात्मक पहल से ही शहरों में बढ़ते वृद्धाश्रम कम होंगे और बच्चे माता-पिता व परिजनों की नि:स्वार्थ सेवा करेंगे।