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एक दिन

सरोजिनी चौधरी
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
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नहीं सुने जाते ये रोज़-रोज़,
बस अब मैं बहुत ऊब गई हूँ
नए-नए उसके बहाने,
क्या करूँ! किससे कहूँ!

चाय बनाते हुए सोच रही थी,
एक घण्टे से राह देख रही थी
फ़ोन तो वह कभी करती नहीं,
और फ़ोन करो तो कभी उठाती नहीं।

सोच कर हाथ-पैर ढीले हो रहे थे
कितना समय लग गया था कल
नहीं-नहीं आज फिर नहीं कर पाऊँगी,
इतना संबल मैं कैसे जुटा पाऊँगी!

कभी कुछ और कभी कुछ और,
एक दिन तो ग़ज़ब ही हो गया
नीली साड़ी में एक अभिसारिका-सी,
चली आयी सीधी मेरे बहुत पास।

कानों में नई बालियाँ और नई साड़ी,
दिखाते हुए वह हो गई थी सुहास
दीदी एक साल बाद वह घर आया है,
देखो यह सब वह मेरे लिए लाया है।

मैं कल नहीं आ पायी थी इसी लिए,
अब क्या कहती ?
मेरी भी आँख भर आई थी,
उसकी इस ख़ुशी से॥