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एनसीआरबी के आँकड़े और डरती सरकार

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

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छप्पन इंची छाती रखने वाली,पाकिस्तान को आए दिन ठोंकने वाली और कश्मीर से धारा ३७० एक झटके में हटाने वाली मोदी सरकार भला आँकड़ों से क्यों डरती है ? बेजान से लगने वाले इन आँकड़ों में ऐसी कौन- सी चिंगारी छिपी है,जिसकी वजह से सरकार को डर है कि कहीं वह आग में न बदल जाए ? जमीनी यथार्थ को अंकों में झलकाने वाले आँकड़ों में ऐसा क्या रखा है,जिसको लेकर एक सर्वशक्तिमान सरकार भीतर से शंकित है ? और अगर ऐसा कुछ नहीं है तो सालभर से रूके एनसीआरबी के आँकड़े इतने चयनित तरीके से क्यों जारी किए चाहिए ? यानी सरकार ने जो चाहा,जितना चाहा बता दिया और जो छुपाना था,जितना छुपाना था,छुपा लिया।
देश में ऐसा संभवत: पहली बार हुआ कि, किसी सरकार ने आँकड़ों में भी एक ‘गुप्त आतंकवाद’ देखा। वरना हर साल जारी होने वाले एनसीआरबी के आँकड़े देश की कानून व्यवस्था,सामाजिक दशा और सोच को काफी हद तक तटस्थता के साथ बयान करते रहे हैं। एनसीआरबी (राष्ट्रीय अपराध रिकाॅर्ड ब्यूरो) सरकार द्वारा १९८६ में गठित एक ऐसी संस्था है,जो देशभर से अपराध के आँकड़े एकत्र कर विश्लेषण के साथ उन्हें पेश करती रही है। इसका गठन राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिश पर किया गया था। ब्यूरो द्वारा आँकड़ों का एकत्रीकरण और विश्लेषण काफी हद तक विश्वसनीय और वैज्ञानिक पद्धति से होता रहा है। इसका दायरा काफी विस्तृत है। इसमें अपराध के कारणों,अपराधियों से सम्बन्‍धित सूचनाएं, अपराधियों के फिंगर ‍प्रिंट्स तथा अपराधियों के पुनर्वास से लेकर विदेशों से अपराध के आँकड़ों के आदान-प्रदान के लिए भरोसेमंद डाटा बेस तैयार करना है। लिहाजा,देश में अपराधों की स्थिति को समझने के लिए एनसीआरबी डाटा का सभी को इंतजार रहता है,क्योंकि इसी से देश में अपराधों तथा कानून व्यवस्था की तुलनात्मक स्थिति का भी पता चलता है।
एनसीआरबी बीते ३० वर्ष से ये आँकड़े हर साल जारी करता रहा है,बिना यह देखे या सोचे कि केन्द्र में सत्ता किसकी है। किसी सरकार ने भी इन आँकड़ों में कोई अड़ंगा इसलिए नहीं लगाया क्योंकि,उनकी मान्यता यह रही कि आँकड़ों से डरने के बजाए, उनको खुले मन से स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि आँकड़ों का राजनीतिक सत्ता से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं होता। वे अपनी सच्चाई खुद बयान करते हैं,लेकिन इस बार एनसीआरबी के आँकड़े भी विवाद में इसलिए घिरे,क्योंकि मोदी सरकार ने १ साल तक तो आँकड़े जारी ही नहीं होने दिए। हाल में जब ये जारी ‍किए गए तो उसमें माॅब लिंचिंग,दलित अत्याचार,सामूहिक दुष्कर्म जैसे गंभीर अपराधों के आँकड़े नदारद थे। यानी जो आँकड़े सरकार को असहज कर सकते थे,या उसे राजनीतिक रूप से मुश्किल में डाल सकते थे,उन्हें सफाई से छुपा लिया गया। इसीलिए,बसपा सुप्रीमो मायावती ने केन्द्र पर आरोप लगाया कि वह सच्चाई को छुपाना चाहती है,क्योंकि देश में २०१७ में महिलाओं पर अत्याचार के ३.५९ लाख मामले दर्ज हुए,जिसमें सर्वाधिक ५६.११ हजार मामले भाजपा शासित उप्र में दर्ज हुए। इसके बाद महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश का क्रम है।
हालांकि,इस बारे में केन्द्र सरकार के सूत्रों का कहना है कि आँकड़ों को जारी करने में देरी की वजह ‘सच का सामना’ से डर नहीं,बल्कि आँकड़ों के संग्रहण और विश्लेषण के मापदंड(पैरा‍मीटरों) को बदला जाना है। इस सम्बन्ध में केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने सफाई थी कि आँकड़े जारी करने में देरी की वजह भारत में हुए अपराधों का नियमानुरूप व्यापक पुनरीक्षण किया जाना है। इसके अंतर्गत ‘त्रुटियों’ को दूर किया गया तथा अपराध के मदों में अतिरिक्त मापदंड लागू किए गए। यह सब करने में वक्त लगा। इसी के बाद अंतिम आँकड़े जारी किए गए। एक आला पुलिस अधिकारी के मुताबिक नए मापदंड में माॅब लिंचिंग शामिल नहीं था। इसके अलावा खाप पंचायतों के आदेश पर की जाने वाली हत्याओं,धार्मिक कारणों से की जाने वाली हत्याओं तथा समाज के दबंगों द्वारा की या कराई जाने वाली हत्याओं के आँकड़े भी इस रिपोर्ट में शामिल नहीं हैं। एक अंग्रेजी अखबार की रिपोर्ट के मुताबिक एनसीआरबी के डाटा संग्रहण की प्रक्रिया में संगठन के पूर्व अध्यक्ष ईश कुमार ने कुछ बदलाव किए थे। जो नई श्रेणियां जोड़ी गई, उनमें माॅब लिंचिंग (भीड़ का हमला या उन्माद) व धार्मिक कारणों से की गई हत्याएं भी शामिल थीं। इनके आँकड़े भी ४ साल से इकट्ठे किए जा रहे थे,लेकिन जब अंतिम रिपोर्ट सामने आई तो ये आँकड़े उसमें से नदारद थे। पूर्व केन्द्रीय मंत्री हंसराज अहीर ने पिछले साल संसद में बताया था ‍कि सरकार के पास माॅब लिंचिंग के कोई आँकड़े नहीं है। वैसे पूरी रिपोर्ट बताती है कि देशभर में अपराधों की संख्या ३.६ फीसदी बढ़ी है। वर्ष २०१७ में पूरे देश में ५० लाख से ‍अधिक अपराध दर्ज हुए,लेकिन जो रिपोर्ट सार्वजनिक की गई,उससे इस पूरी रिपोर्ट की विश्वसनीयता ही संदेह के घेरे में आ गई है। कई सामाजिक संगठनों तथा आरटीआई कार्यकर्ताओं ने एनसीआरबी रिपोर्ट को लेकर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन किया। उनका आरोप है कि,सरकार सच्चाई को जनता से छिपाना चाहती है। वह यह संदेश जाने देना नहीं चाहती कि,देश में जघन्य किस्म के अपराधों में वृद्धि हो रही है,क्योंकि ऐसा करने से कानून व्यवस्था चाक-चौबंद होने के सरकार के दावों की पोल खुल जाएगी,पर ऐसे आरोप केवल एनसीआरबी रिपोर्ट को लेकर ही नहीं हैं। नेशनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ)द्वारा देश में जारी बेरोजगारी के आँकड़ों के मामले में भी ऐसा ही हुआ था। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि देश में बेरोजगारी पिछले ४५ साल में सर्वाधिक हो गई है,पर सरकार ने अपनी ही संस्था की रिपोर्ट को गलत ठहरा दिया। इसके बाद केन्द्रीय सांख्यिकी ब्यूरो के अध्यक्ष पी.सी. मोहनन ने पद से इस्तीफा दे दिया। ऐसा ही एक चौंकाने वाला खुलासा भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीकार टीसीए अनंत ने किया था। उन्होंने बताया था कि केन्द्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को मापने के आधार वर्ष में बदलाव के बाद बैक सीरिज़ डेटा तैयार कर लिया था,लेकिन नीति आयोग ने उसे रूकवा दिया। यह आरोप भी लगा कि मोदी सरकार ने जीडीपी मापने का आधार वर्ष २०९४-०५ के बजाए २०११-१२ ‍कर दिया था,जिससे जी‍डीपी दर में वृद्धि बढ़ी हुई दिखने लगी। भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने तो मोदी सरकार पर खुला आरोप लगाया था कि मोदी सरकार ने केन्द्रीय सांख्‍यिकी संगठन पर वो आँकड़े परोसने के लिए दबाव डाला,जिससे यह साबित हो कि नोटबंदी का देश की अर्थव्यवस्था पर कोई असर नहीं पड़ा है।
यानी सवाल वही कि,सरकार आँकड़ों के माध्यम से जमीनी हकीकत सामने क्यों नहीं आने देना चाहती ? देश की जिस आर्थिक, सामाजिक विकास की तस्वीर वो जनता के सामने पेश करना चाहती है,वो हकीकत से मेल क्यों नहीं खाती ?,जबकि सरकारी दावे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और चौतरफा खुशहाली के हैं। दरसअल,दावों और आँकड़ों में बुनियादी फर्क यही है कि दावों के लिए आँकड़ों की हमेशा जरूरत नहीं होती,जबकि विश्वसनीय और प्रामाणिक आँकड़ों के आधार पर ठोस दावे और नियोजन किए जा सकते हैं। राजनीति से हटकर आँकड़ों की अपनी पवित्रता और प्रामाणिकता होती है। बशर्ते कि,उनका संग्रहण और इस्तेमाल ईमानदारी से हो। अगर आँकड़े विरोधाभासी, फर्जी और बदनीयती से भरे हों तो उन पर किसी को क्यों यकीन करना चाहिए ? दरसअल,कोई भी आँकड़े सरकार की खामियों और खूबियों का आईना होते हैं। उन्हें प्रामाणिकता से स्वीकार करना और तदनुरूप अपने काम-काज में सुधार करना किसी भी अच्छी और ‍जिम्मेदार सरकार की निशानी है। आँकड़ों को ‘दुश्मन’ मानकर जनता से सच्चाई को छिपाना खुद को भी मूर्ख बनाने जैसा है।

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