कुल पृष्ठ दर्शन : 179

You are currently viewing कांग्रेस पर सत्ता और प्रतिपक्ष की ‘गिद्ध दृष्टि’…!

कांग्रेस पर सत्ता और प्रतिपक्ष की ‘गिद्ध दृष्टि’…!

अजय बोकिल
भोपाल(मध्यप्रदेश) 

******************************************

भारतीय राजनीति का यह दिलचस्प मोड़ है,क्योंकि, जहां एकतरफ भाजपा (एनडीए) कांग्रेस के खत्म होते जाने में अपने लिए सत्ता का स्थायी स्थान देख रही है,वहीं ममता बनर्जी और उनके राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर कांग्रेस की सिकुड़न में विपक्ष का स्थान बूझ रही है। दोनों में एक समानता है और वो है कांग्रेस जैसी मध्यमार्गी और कुछ वाम तो कुछ दक्षिण ओर झुकी पार्टी की लाश पर सत्ता साकेत की तामीर का का सुनहरा स्वप्न। यह अपने-आपमें राजनीतिक ‘गिद्ध दृष्टि’ है। उधर,कांग्रेस है कि खुद को अमरबेल मानकर अपनी राख से जी उठने और पहले जैसी हुंकार भरने का ख्वाब पाले हुए है। अभी भी उसका भरोसा किसी ‘दैवी चमत्कार’ में है। कांग्रेस की इसी अवस्था को बूझते हुए ममता ने कहा कि यूपीए जैसा अब कुछ नहीं बचा। यानी कांग्रेस और उसकी अगुवाई में विपक्षी दलों की यह गोलबंदी कागजों में ज्यादा बची है। बावजूद इसके कि कांग्रेस अभी भी ३ राज्यों में सत्ता में है। याद करें कि,२०१४ के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ का नारा दिया था। यह इस बात का सूचक था कि कांग्रेस के सिमटते जाजम में ही भाजपा का कालीन बिछ सकता है। इस नारे का असर हुआ और कांग्रेस के नेतृत्व में १० साल से सत्तारूढ़ संयुक्त प्र‍गतिशील गठबंधन (यूपीए) सिमट कर ६० सीटों पर आ गया। उस वक्त यूपीए में कांग्रेस सहित १३ पार्टियां शामिल थीं। २०१९ के लोकसभा चुनाव में लगा था कि अब शायद यूपीए के ‍दिन फिरेंगे। यूपीए की सीटें बढ़कर ८८ जरूर हुईं,लेकिन ज्यादा कुछ नहीं बदला। वह भी तब कि जब यूपीए में इस चुनाव में २४ पार्टियां साथ लड़ी थीं। इनमें सर्वाधिक ५२ सीटें कांग्रेस को मिली थीं।

दरअसल,पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में महा-जीत और चुनाव के बाद भी राज्य में भाजपा को झटके देते रहने वाली ममता बैनर्जी अब खुद को नरेन्द्र मोदी के विकल्प के रूप में देखने लगी हैं, बावजूद इस सच्चाई के कि पूरा देश पश्चिम बंगाल नहीं है,और हर राज्य के राजनीतिक समीकरण अलग-अलग हैं। दिशाहीनता के बावजूद कांग्रेस की जड़ें गहरी हैं। शायद इसीलिए,कांग्रेस ने सवाल किया‍ कि,ममता मोदी के खिलाफ लड़ना चाहती हैं या फिर कांग्रेस के ? चू‍ंकि,मोदी को हटाकर केन्द्र में सत्ता में आना अभी दूर की कौड़ी है,इसलिए ममता को कांग्रेस आसान शिकार लगता है। उन्हें पता है कि कांग्रेस को निशाना बनाकर मोदी ने दिल्ली में परचम फहराया तो ममता यही काम विपक्षी विकल्प बनने के रूप में कर सकती हैं। यह सच्चाई है कि तमाम खामियों और वंशवाद के बाद भी कांग्रेस ही आज अकेली राष्ट्रीय विपक्षी पार्टी है। इसलिए ममता को सलाह दी गई है कि,वो पहले कांग्रेस को मारें, बाद में भाजपा से दो-दो हाथ करें। बंगाल से बाहर छा जाने का यही कारगर तरीका है। सो ममता ने इसकी शुरूआत गोवा और उत्तराखंड जैसे छोटे राज्यों के विधानसभा चुनावों में त्रमूकां उम्मीदवार उतारने की घोषणा से की है। त्रमूकां के मैदान में आने से कांग्रेस का ही स्थान घटेगा। मुमकिन है कि अपेक्षित आक्रामकता,ठोस रणनीति के अभाव और दिशाभ्रम के चलते वो इन राज्यों में हाशिए पर ही चली जाए। ममता ने कांग्रेस और प्रकारांतर से ‘परिवार’ को बेदखल करने के इरादे से कांग्रेस के सहयोगी दलों के क्षत्रपों से हाथ मिलाना शुरू कर ‍िदया है। राकांपा,शिवसेना,समाजवादी पार्टी,राजद आदि ऐसे दल हैं,जो अपने-अपने इलाकों में दम रखते हैं। कोशिश यही है कि ये क्षत्रप ‘एक देवी’ की जगह ‘दूसरी देवी’ को अपना नेता मान लें। यह संदेश देने का प्रयास है कि,भाजपा की आक्रामक राजनीति और चुनावी रणनीति का जवाब केवल ममता शैली की सियासत में है। हालांकि,अभी यह साफ नहीं है कि कांग्रेस के ‘राजनीतिक अंगरक्षक’ रहे ये दल ममता को नेता के रूप में कितना झेल पाएंगे ?,लेकिन यह माहौल बनाने की शुरूआत हो चुकी है कि,कांग्रेस और गांधी परिवार में अब वैसा दम और आकर्षण नहीं बचा,जैसा तख्त के लिए जान लड़ाने वाली किसी सेना और सेनापति में होना चाहिए। ममता का मानना है कि भाजपा की साम्प्रदायिक और राष्ट्रवादी राजनीति का जवाब केवल वही दे सकती हैं। यानी जैसे को तैसा। यही वजह है कि,प्रशांत किशोर ने भी राहुल गांधी पर उनकी कार्य-शैली को लेकर परोक्ष रूप से हमला किया। आशय यही था कि,केवल नेक-नीयती से सत्ता की राजनीति नहीं हो सकती,खासकर तब,जब सामने मोदी शाह जैसे साम-दाम-दंड-भेद की सियासत करने वाले धुरंधर हों। ऐसे में देश में विपक्ष को जिंदा रहना है तो ईंट का जवाब पत्‍थर से देने वाली सियासत करनी होगी। फिर चाहे कोई कुछ भी कहता रहे।

वैसे २००४ में यूपीए जिन हालातों में बना था,वो बहुत अनुकूल और विश्वास से भरे नहीं थे,क्योंकि अटल बिहारी वाजपेयी जैसे कद्दावर नेता के नेतृत्व में राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन(एनडीए)सत्ता में था। बार-बार कहा जा रहा था कि,गठबंधन सरकार चलाने का शऊर केवल भाजपा में है,लेकिन जमीनी हकीकत दूसरी थी। अटल सरकार ‘फीलगुड’ में चली गई और अनायास सत्ता सूत्र उस यूपीए के हाथ आ गए,जो मध्यमार्गी और वामपंथी दलों का गठजोड़ था। इसमें कुल १२ पार्टियां शामिल थीं। दूसरी तरफ अटल जी का जलवा घटता गया और उनके उत्तराधिकारी माने जाने वाले लालकृष्ण आडवाणी को उनके अपनों ने ही विवादास्पद बना दिया। लिहाजा एनडीए २००९ के लोकसभा चुनाव में भी सत्ता से बाहर ही रहा,जबकि इस बार ११ पार्टियों वाले यूपीए को जनता ने फिर सत्ता सौंप दी। इसमें कांग्रेस की २०६ सीटें थीं। वामपंथी इससे बाहर रहे, लेकिन यूपीए-२ सरकार भ्रष्टाचार और कुशासन के आरोपों में घिर गई। इसके बाद कांग्रेस और साथ में यूपीए का आँकड़ा भी गिरता चला गया। हिंदुत्व की घोषित राजनीति में कांग्रेस अपनी प्रासंगिकता तलाशने लगी। उधर,कांग्रेस की कीमत पर भाजपा मजबूत होती गई और विपक्ष कमजोर होता गया। यह बात अलग है कि इतने झटकों के बाद भी कांग्रेस में शीर्ष स्तर पर पारिवारिक संगीतमयी कुर्सी दौड़ का खेल जारी है। उधर लोग टूटते जा रहे हैं,लेकिन किसी के माथे पर कोई शिकन नहीं है। ऐसे में ममता को लगता है ‍कि असमंजस में डूबे कांग्रेसियों में वो दम भर सकती हैं। कांग्रेस की जगह प्रतिपक्ष के नेतृत्व का ध्वज वो खुद थाम सकती हैं और इसी ध्वज तले भाजपारोधी ताकतों को गोलबंद कर सकती हैं,पर यह काम इतना आसान इसलिए नहीं है,क्योंकि भाजपा को मात तभी दी जा सकती है,जब चुनाव में मुकाबला एक-एक से हो। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि जो दल कांग्रेस के अपेक्षाकृत नरम नेतृत्व की रहनुमाई में जैसे-तैसे एक बंधे हो,वो ममता की तानाशाही तासीर से कदमताल कैसे कर पाएंगे। इस बात से कम ही लोग सहमत होंगे कि मोदी की कथित ‘कठोर तानाशाही’ को ममता की ‘उदार तानाशाही’ से खत्म किया जा सकता है,लेकिन सत्ता सिंहासन पर काबिज होने का रास्ता पहले विपक्ष का स्थान हथिया कर ही खुल सकता है,क्योंकि जनता का भरोसा कमाना,उसे गंवाने से ज्यादा मुश्किल है। इस दृष्टि से प्रशांत किशोर का यह ट्वीट महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस जिस विचार और स्थान का प्रतिनिधित्व करती है,वो एक मज़बूत विपक्ष के लिए काफ़ी अहम है,लेकिन इस मामले में कांग्रेस नेतृत्व का व्यक्तिगत तौर पर किसी को दैवी अधिकार नहीं है;वो भी तब जब पार्टी पिछले १० सालों में ९० फ़ीसद चुनावों में हारी है। विपक्ष के नेतृत्व का फ़ैसला लोकतांत्रिक तरीक़े से होने दें। यानी ममता और पीके की यह लड़ाई दरअसल विपक्ष की रहनुमाई हासिल करने की लोकतांत्रिक लड़ाई है। ऐसी लड़ाई जिसमें दोनों ओर से ‘लूजर’ सिर्फ कांग्रेस रहने वाली है। इसी के साथ यह सवाल भी नत्थी है कि,कांग्रेस अपना स्थान बचाए रखने के लिए क्या कर रही है,और कुछ करना चाहती भी है या नहीं ?