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खामोश यादें

दीप्ति खरे
मंडला (मध्यप्रदेश)
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आज सुरम्या को गए २ दिन हो गए। कभी सोचा नहीं था, वह अचानक चली जाएगी। वह जब तक थी, कभी उसकी तरफ विशेष ध्यान ही नहीं गया। बस है घर में तो है, उसमें विशेष ध्यान देने वाली क्या बात ?, यह मेरा सोचना था। मेहमान भी लगभग जा चुके थे। मेरा अपना भी बहुत बड़ा परिवार है, पर चूल्हे-चौके सबके अलग-अलग ही हैं तो जाहिर-सी बात है रात को घर पर मैं अकेला ही हूँ। शायद इतने दिन बिना काम-काज के रहने की आदत नहीं है, इसलिए मुझे बैचेनी हो रही है। मैं अपने-आपको दिलासा देने की कोशिश करता, पर पता नहीं क्यों रह-रह कर मेरा ध्यान सुरम्या की तरफ ही चला जाता, और जब वह थी तो तो अपने काम के समय मैं उसका फोन भी नहीं उठाता था। आखिर कस्टमर्स को डील करना उससे बात करने से ज्यादा जरूरी था। “खैर १०-१५ दिन की बात है, फिर काम में लग जाऊंगा तो सब ठीक हो जाएगा।” मैंने मन ही मन कहा और सोने की कोशिश करने लगा।
सुरम्या को मेरा खाना खाकर तुरंत सोना जरा भी पसंद नहीं था। वह कहती,-“दिनभर में बस इसी समय हम साथ होते हैं, कुछ बात करनी है तो कब करूँ ? आप थोड़ा पहले काम खत्म किया करिए, ताकि थोड़ा समय हम एक-दूसरे को दे सकें ?” इस बात पर से एक-दो बार हमारी बहस भी हुई। धीरे-धीरे उसने कहना छोड़ दिया। मैं बहुत खुश था, कि चलो इसे समझ में तो आ गया कि मैं काम करते-करते थक जाता हूँ तो सोना जरूरी है। अब खाने के बाद वह अपने लेखन के काम में लग जाती। उसे लिखना बहुत पसंद था। मुझे इसमें कोई आपत्ति नहीं थी, पर मुझे इन सबमें कोई रुचि नहीं थी। मैंने कभी भी उसकी रचना पूरी नहीं पढ़ी। कभी बहुत खुश होती, तो खुद सुनाने लगती, तब भी मैं आधी नींद में ही होता। खैर…, आज जब मैं बिल्कुल निश्चिंत हूँ। कभी भी सोने, किसी की कोई उम्मीद नहीं। फिर भी मुझे नींद नहीं आ रही थी। आज सुरम्या को होना चाहिए था। आज उसके साथ बात करके उसकी शिकायत दूर कर देता, पर अब वो थी कहाँ ?
सुबह उठते ही रोज की तरह मेरे मुँह से निकला- “सुरम्या चाय दे दो मुझे।” फिर अचानक याद आया अब वह नहीं है यहाँ। हमारी सुबह बहुत खामोश होती थी। पहले उसके पास बहुत बातें होती थी, मगर मुझे वो सब बचकानी-सी लगती और मैं उनपर ध्यान ही नहीं देता। कभी वह इसकी शिकायत भी करती, तो अपने तर्कों से उसे चुप कर देता उसे। फिर धीरे-धीरे वह चुप रहने लगी। अब मैं ही कोई बात करता तो वह हाँ-हूँ में जवाब देती या गलत लगने पर पलटकर जवाब दे देती, जो मुझे जरा भी पसंद नहीं था। नतीजा, फिर चुप्पी छा जाती। तब तो मुझे यह शांति अच्छी लगती थी, पर अब जबकि कोई है नहीं बोलने वाला, तो मुझे अच्छा नहीं लग रहा। “उफ्फ मुझे इतनी याद क्यों आ रही है तुम्हारी सुरम्या…।” जब वह थी, तब कभी उसके होने का अहसास नहीं हुआ और अब जबकि वह नहीं है, उसका अहसास एक क्षण के लिए भी नहीं जा पा रहा।
कुछ समय बाद परिवार के लोग आ गए और आगे के कार्यक्रम की रूपरेखा बनने लगी। सुरम्या को अलग-अलग तरह के कार्यक्रम आयोजित करने का बहुत शौक था। हर खुशी को एंजॉय करना चाहती थी वह। जन्मदिन, शादी की सालगिरह, होली, दिवाली सब उसके लिए खास ही होता। वह चाहती थी, इन सबमें मैं भी उसका साथ दूँ, पर मेरे लिए एक तो यह सब समय की बर्बादी थी। इन सब में पड़ना, यानी व्यापार में १ दिन का नुकसान, दूसरे सब भाई-बहिनों के परिवार एक ही परिसर में रहते हैं, तो सब क्या कहते! शुरू-शुरू में वह इन दिनों का बहुत इंतजार करती, पर बाद में सब बंद हो गया। हमारे लिए सब दिन एक समान ही थे। मुझे भी शांति मिली। मैं भी मन लगाकर बिना एक भी दिन नुकसान किए काम करता। वहीं, मैं आज सब काम छोड़कर उसके कार्यक्रमों की तैयारी कर रहा था, वह भी पूरे परिवार के साथ। आज पहली बार मन में टीस-सी उठी, काश! मैं उसके प्लान में उसके रहते शरीक होता, तो कितनी खुश होती वह।
ऐसा नहीं था कि मैं उसे पसंद नहीं करता था, पर ये भी सही था कि परिवार मेरी पहली प्राथमिकता थी और वह भी तो परिवार ही थी, लेकिन वह चाहती थी कि मैं उसके लिए कुछ अलग से करूँ, उसे बाकी सबसे अलग रखूं। उसके कहने पर तो नहीं, पर अब मैं जो भी कर रहा था सब सिर्फ उसी के लिए था। उसकी बात मुझे इस तरह माननी पड़ेगी, कभी सोचा नहीं था।
क्या करूँ मैं! समझ में नहीं आ रहा। पहले कभी सुरम्या का ख्याल आता ही नहीं था और अब उसका ख्याल दिल से निकाल ही नहीं पा रहा। कभी वह मैके या कहीं भी जाती (वह अकेले ही जाती थी क्योंकि अपना काम छोड़कर उसके साथ कैसे जा सकता था।), तो अक्सर कहती “आपको तो मेरी याद ही नहीं आती।” अब उसकी याद आ रही है, कैसे बताऊं उसे।
समय के साथ सारे कार्यक्रम निपट गए। १०-१५ दिन बाद मैंने भी अपना काम फिर संभाल लिया। मुझे लगा था, अब सब ठीक हो जाएगा, पर यहाँ भी मैं कहाँ, उसकी यादें साथ थीं। मैं उसकी फोन की घंटियाँ बहुत मिस कर रहा था, जबकि पहले कई बार उसका कॉल मैं जान-बूझ कर अनदेखा कर देता था। कई बार वह समझ जाती थी, कि मैंने जान-बूझकर फोन नहीं उठाया। थोड़ा गुस्सा भी होती, फिर खुद ठीक भी हो जाती, क्योंकि मैंने उसे कभी मनाया ही नहीं। मेरे हिसाब से औरतों की ज्यादा तारीफ नहीं करना चाहिए और न ही ज्यादा महत्व देना चाहिए, पर अब मुझे उसकी हर बात याद आती है। उसकी हर छोटी-बड़ी ख्वाहिशें, उसका इंतजार, न जिससे जुड़ी उम्मीदें और भी सब कुछ…।
मैंने कभी उसके साथ बैठकर बातें नहीं की, पर अब मैं उससे बातें करना चाहता हूँ। घर के कामों में मैंने कभी भी सुरम्या का हाथ नहीं बंटाया, क्योंकि इससे मेरा कथित पुरुषत्व आहत होता था। अब अपने सारे काम मैं खुद ही कर रहा हूँ। कभी-कभी सोचता हूँ, उसके रहते हुए कभी उसके काम में हाथ बंटा देता तो वह कितनी खुश होती।
अजीब-सी बात है पहले मैं उसके बारे में अलग से कभी सोचता ही नहीं था, और अब उसे खयालों से निकाल नहीं पा रहा था।

मैं समझ नहीं पा रहा था, कि ये यादें थीं… या उसे खुश न रख पाने की आत्मग्लानि…. जिससे मैं उभर नहीं पा रहा था।