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‘गुरुदेव’ के साथ चलती थी रौशनी

ललित गर्ग

दिल्ली
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रवीन्द्रनाथ टैगोर जयन्ती (७ मई) विशेष…

भारत के राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’ के रचयिता एवं भारतीय साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर एक महान एवं विश्वविख्यात कवि, लेखक, साहित्यकार, दार्शनिक, समाज सुधारक और चित्रकार थे। उन्हें बांग्ला साहित्य के माध्यम से भारतीय सांस्कृतिक चेतना में नयी जान फूँकने वाले युगदृष्टा, युगस्रष्टा एवं युग-निर्माता माना जाता है। रवींद्रनाथ टैगोर को उनकी अनूठी, हृदयस्पर्शी एवं आध्यात्मिक रचनाओं के लिए लोग ‘गुरुदेव’ कहकर पुकारते हैं। उनका जन्मदिन विचारों और मूल्यों को याद करने और उनके सद्भाव, संपूर्णता और अखंडता के आदर्शों और आकांक्षाओं के अमूल्य योगदान का सम्मान करने का भी एक अवसर है। श्री टैगोर एक ऐसे दिव्य, अलौकिक व्यक्ति एवं समाजक्रांति के प्रेरक थे, रोशनी जिनके साथ चलती थी।
रवीन्द्रनाथ टैगोर ने लगभग २२३० गीतों की रचना की। आपके संगीत को साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएं तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ध्रुपद शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं एवं संवेदनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं।
गुरुदेव टैगोर की कविताओं में हमें अस्तित्व के असीम सौन्दर्य, प्रकृति और भक्ति के दर्शन होते हैं। उनकी बहुत-सी कविताएं प्रकृति के सौन्दर्य से जुड़ी हैं। गुरुदेव ने जीवन के अंतिम दिनों में चित्र बनाना शुरू किया। इसमें युग का संशय, मोह, क्लान्ति और निराशा के स्वर प्रकट हुए हैं। मनुष्य और ईश्वर के बीच जो चिरस्थायी सम्पर्क है, उनकी रचनाओं में वह अलग-अलग रूपों में उभरकर सामने आया। श्री टैगोर और महात्मा गाँधी के बीच राष्ट्रीयता व मानवता को लेकर हमेशा वैचारिक मतभेद रहा। जहां मोहन दास गांधी पहले पायदान पर राष्ट्रवाद को रखते थे, वहीं श्री टैगोर मानवता को राष्ट्रवाद से अधिक महत्व देते थे, लेकिन दोनों एक- दूसरे का बहुत सम्मान करते थे।
गुरुदेव के कई गीतों और कहानियों ने मानव चेतना को बदलने और कार्य करने के लिए साहस और प्रतिबद्धता को प्रेरित किया। उन्होंने कला का अभ्यास कला के लिए नहीं किया, न ही आत्म-अभिव्यक्ति के तरीके के रूप में और कम से कम मनोरंजन के लिए तो कतई नहीं किया, बल्कि उनकी कला भी नए मानव एवं विश्व की संरचना से प्रेरित थी। उनकी कला जीवन के गहरे अर्थ को स्पष्ट करने और आत्मा को ठीक करने की पेशकश थी। अपने शिल्प के उस्ताद के रूप में श्री टैगोर ने कविता की शुद्धता को जीने के उद्देश्य के साथ जोड़ा। उन्होंने न केवल अपने जीवन में मृत्यु, अवसाद और निराशा के कारण अनुभव किए गए दु:ख और पीड़ा को ठीक किया, बल्कि भारतीय समाज के भीतर अन्याय और असमानता के घावों को भरने के लिए भी काम किया। उन्होंने उन्नत कृषि, अच्छे विद्यालयों, आरामदायक आर्थिक स्थितियों और बेहतर जीवन स्तर के माध्यम से मानव समुदायों के बाहरी विकास के लिए काम किया, पर साथ ही आत्मा के नवीनीकरण, आत्मा की देखभाल, हृदय को पोषण और कल्पना को पोषित करने के माध्यम से आंतरिक विकास पर जोर दिया। वे एक ऐसे पुरुषार्थी पुरुष का महापुरुष के रूप में जाना-पहचाना नाम है, जिन्होंने हर इंसान के महान बनने का सपना संजोया और उसके लिए उनके हाथ में सुनहरे सपनों को साकार होने की जीवन-शैली भी सौंपी।
टैगोर गहन आध्यात्मिक एवं साधक पुरुष थे। उनके अनुसार मौन की भाषा शब्दों की भाषा से किसी भी रूप में कमजोर नहीं होती, बस उसे समझने वाला चाहिए। जिस प्रकार शब्दों की भाषा का शास्त्र होता है, उसी प्रकार मौन का भी भाषा विज्ञान होता है। मौन को समझा तो जा सकता है, पर समझाया नहीं जा सकता। संभवतः इसीलिए रवीन्द्रनाथ टैगोर ने कहा था कि मौन अनंत की भाषा है। टैगोर अध्यात्म एवं विज्ञान के समन्वयक थे। टैगोर ने विज्ञान, प्रौद्योगिकी और भौतिक कल्याण के साथ आध्यात्मिक विकास की आवश्यकता व्यक्त की। वे आध्यात्मिक-वैज्ञानिक व्यक्तित्व निर्माण के प्रेरक थे। इस संतुलित और समग्र विश्वदृष्टि की अब पहले से कहीं अधिक आवश्यकता है, क्योंकि यह हमारे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्थायी व लचीले भविष्य के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता एवं शर्त है। श्री टैगोर ने विज्ञान और तर्क के माध्यम से सत्य की खोज करते हुए शब्दों और कर्मों में शाश्वत ज्ञान और कालातीत मूल्यों को व्यक्त किया। उन्होंने मानवता की एकता और स्वतंत्रता, न्याय और शांति के सर्वाेपरि महत्व की घोषणा करते हुए अमेरिका से रूस, चीन से अर्जेंटीना तक समूचे विश्व की अथक यात्रा की। उन्होंने अपने लाखों देशवासियों को अपने संकीर्ण स्वार्थ को त्यागने और राष्ट्रीयता, समानता, एकजुटता और नैतिकता को अपनाने के लिए अपने जातिगत पूर्वाग्रहों को दूर करने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने आत्म-भोग को त्याग दिया और सामाजिक विभाजन को दूर करने के लिए अथक प्रयास किया। विशेष रूप से उन्होंने विज्ञान और अध्यात्म के बीच की खाई को भरने की कोशिश की। वे कभी घटना से, कभी शब्दों से, कभी क्रिया से, कभी पत्रों से, तो कभी किसी उदाहरण या संस्मरण से व्यक्ति की चेतना को झकझोर कर आदर्श और ज्ञान के प्रति अनुराग और जोश जगाते थे। वे इस कला में निष्णात थे कि कब किसको किन शब्दों में उचित प्रेरणा दी जाए।

रवीन्द्रनाथ टैगोर के पुरुषार्थी जीवन की एक पहचान थी गत्यात्मकता। वे अपने जीवन में कभी कहीं रुके नहीं, झुके नहीं। प्रतिकूलताओं के बीच भी अपने अपने लक्ष्य का चिराग सुरक्षित रखा। यही कारण है कि आज उनके प्रयत्नों से न केवल भारतीय समाज, बल्कि विश्व मानवता का जीवन प्रेरक बना है, सार्थक बना है।