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चिंता छोड़ सार्थक चिंतन करें

राधा गोयल
नई दिल्ली
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यह तो हमें ही तय करना है, कि हम केवल चिंतन की चिंता करते रहें या उस पर कुछ अमल भी करें ? जो करना है, उसकी केवल चिंता करने से तो काम नहीं होगा। काम तो अमल करने से ही होगा। लोग ऐसे हैं, कि समस्या पर सिर्फ चिंता ही करते रहते हैं और मुद्दे से भटक जाते हैं। समस्या के समाधान की तरफ उनका ध्यान ही नहीं जाता। घंटों अतार्किक बहस करते रहेंगे। तर्क-कुतर्क करते रहेंगे। एक नहीं, अनेक घरों में देखने में आता है कि बेमतलब की बहस होती रहती है। मेरे अपने ही घर की बात है। कुछ अग्र बंधु अग्रसेन भवन का निर्माण करना चाहते थे और उसके लिए हर सप्ताह मेरे ही घर में वैठक होती थी। २५ लोगों की ३ घंटे की बेमतलब की बहस होती थी। “इसने मुझे पिछले हफ्ते यह क्यों कहा ?वह क्यों कहा ?” हर सप्ताह यही ड्रामा, मुद्दे की बात नदारद, बस बेकार की बहसबाजी। आखिरकार एक दिन मुझे कहना पड़ा कि “२५ बुद्धिजीवी मिलकर ३ घंटे व्यर्थ की बहस करते हो। यदि वही ३ घंटे (२५ लोगों के ३ घंटे का मतलब ७५ घंटे) में कुछ सार्थक काम किया जाता तो अब तक यह काम सिरे चढ़ गया होता।

बेमतलब की बहस होती रहती है तो सार्थक कुछ निकलकर नहीं आता। हर छोटी-छोटी बात पर प्रवचन शुरू हो जाता है जो अनवरत २ घंटे चलता रहता है और मुद्दे की बात वहीं रह जाती है। मैं मौनी बाबा बनकर सुनती रहती हूँ। कुछ लिखना चाहूँ तो सारे भाव तिरोहित हो जाते हैं।
बस इतनी बात जरूर है, कि डाँट खाने के बाद मैं चिंता करके रोने नहीं बैठती। अपने-आपको किसी सार्थक काम में व्यस्त कर लेती हूँ। जितनी देर चिंता में नष्ट करूँ, बेहतर है कुछ सार्थक कर लूँ, क्योंकि बीता वक्त लौटकर नहीं आता। कहा भी गया है ना-
चिंता से चतुराई घटे घटे बुद्धि और ज्ञान,
रही-सही माया घटे, चिंता चिता समान।
कई लोग तो ऐसे हैं, कि अपनी चिंताओं की पोटली लेकर किसी के घर जाएंगे। ३ घंटे इसकी उसकी बुराई करेंगे या अपना दुखड़ा रोएंगे।केवल अपना रोना रोने से मतलब है। किसी के समझाने का उन पर कोई असर नहीं होने वाला। ऐसे लोगों को झेलना कितना मुश्किल है। निंदा ऐसे लोगों के लिए टॉनिक होती है।
हमारी एक वृद्धा पड़ोसन बीमार थीं। उठा नहीं जाता था। किसी ने आकर कहा कि पड़ोसी डॉक्टर साहब की लड़की किसी के साथ भाग गई। बस चाची उठी और २४ पड़ोसियों को यह बात अपने व्यक्तिगत कमेंट के साथ सुना दी, और उस दिन से उनकी हालत सुधरने लगी। कितना मुश्किल है ऐसे लोगों से पीछा छुड़ाना!!
ये सब बेकार की बातें हैं, मुद्दे की बात यह कि क्या केवल चिंता करने से कुछ हो जाएगा ? बेहतर है कि चिंता के बजाय चिंतन करो और कर्मपथ पर बढ़ते रहो। जीवन का कोई लक्ष्य निर्धारित करो और उसे पूरा करने में जुट जाओ।
वही व्यक्ति खुश है, जिसने दिमाग को तकलीफ पहुँचाने वाली जंजीर को तोड़ दिया है और चिंता से खुद को हमेशा के लिए मुक्त कर लिया है। किसी ने कहा भी है कि-
बहसें फिज़ूल थीं ये खुला हाल देर में,
अफसोस उम्र कट गई लफ्जों के फेर में।