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जंगली कुत्ते…

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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एक ही जंगल में साथ में,
विचरण करने वाले जानवर
जब तक मरते नहीं,
वो राह ताकते रहते हैं
मरने के बाद ही,
उसे नोंच-नोंच कर खा जाते हैं
एक तरह से कुदरत से दिया हुआ,
सफ़ाई का काम करते हैं
झुंड में रहते हैं,
लड़ते हैं, झगड़ते भी हैं
वो गिद्ध…
आजकल साथी जानवरों को,
ज़िंदा ही फाड़कर खा जाते हैं
खुद का स्वार्थ साधकर,
केवल अपना पेट भरने के लिए
झुंड बनकर टूट पड़ते हैं
तड़पा-तड़पा कर मार डालते हैं
वे जंगली कुत्ते…।

इन कुत्तों से गिद्ध ही ठीक थे,
पर अब वे विनाश की कगार पर हैं
किंतु स्वार्थी जंगली कुत्तों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही है,
अब वे मनुष्यों में भी,
नज़र आने लगे हैं
तरह-तरह के मनुष्य,
जंगली कुत्तों की तरह
झुंड में विचरने लगे हैं,
इंसानों की बस्तियों में…
धर्म की राजनीति में।
और राजनीति के अखाड़ों में,
सभ्य कहे जाने वाले समाज में
जंगली कुत्ते…॥