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जलवायु संकट:अमीर देशों की उदासीनता खतरनाक

ललित गर्ग
दिल्ली
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जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए अमीर एवं शक्तिशाली देशों की उदासीनता एवं लापरवाह रवैया एक बार फिर मिस्र के अंतरराष्ट्रीय जलवायु शिखर सम्मेलन में देखने को मिला है। दुनिया में जलवायु परिवर्तन की समस्या जितनी गंभीर होती जा रही है, इससे निपटने के गंभीर प्रयासों का उतना ही अभाव महसूस हो रहा है। इस तरह का नुकसान गरीब देश ही भुगतते हैं। इस सम्मेलन में इसकी भरपाई के लिए धन मुहैया कराने समेत अन्य अहम मुद्दों को लेकर गतिरोध ने इस कड़वे यथार्थ एवं खौफनाक सच को फिर रेखांकित कर दिया कि अमीर एवं शक्तिशाली देश इस वैश्विक समस्या के प्रति उदासीन हैं। गंभीर से गंभीरतर होते इस संकट को लेकर सम्मेलन के समापन पर ‘नुकसान और क्षति’ कोष स्थापित करने पर सहमति भले ही बन गई, लेकिन यह कब तक बनेगा, कौन सहयोगी होंगे और किस तरह काम करेगा, यह स्पष्ट नहीं है। सम्मेलन में स्वीकार किया गया कि पिछले सम्मेलन में कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए जो संकल्प किया गया था, वह पूरा नहीं हो सका। इसलिए एक बार फिर सभी १९७ देशों ने कमी लाने का संकल्प किया है। कॉप-२७ से इसलिए भी काफी उम्मीदें थीं कि जलवायु परिवर्तन से पिछले १ साल में दुनिया में हालात ज्यादा गंभीर हुए हैं, बिगड़े हैं। दरअसल, उत्सर्जन घटाने एवं जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर अमीर देशों ने जैसा रुख अपनाया हुआ है, वह इस संकट को गहराने वाला है। जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभावों ने भारत ही नहीं, पूरी दुनिया की चिंताएं बढ़ा दी हैं। अभी भी नहीं चेते तो यह समस्या हर देश, हर घर एवं हर व्यक्ति के जीवन पर अंधेरा बनकर सामने आएगी।
भारतीय उपमहाद्वीप और कई यूरोपीय देशों को भीषण गर्मी तथा बाढ़ की मार झेलनी पड़ी है। भारत में ग्लोबल तापमान के चलते होने वाला विस्थापन अनुमान से कहीं अधिक है। मौसम का मिजाज बदलने के साथ देश के अलग-अलग हिस्सों में प्राथमिक आपदाओं की तीव्रता आई हुई है। भारत में जलवायु परिवर्तन पर इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फार एनवायरमेंट एंड डेवलपमेंट की पूर्व में जारी की गई रिपोर्ट में कहा गया था कि बाढ़-सूखे के चलते फसलों की तबाही और चक्रवातों के कारण मछली पालन में गिरावट आ रही है। देश के भीतर भू-स्खलन से अनेक लोग अपनी जान गंवा चुके हैं। भू-स्खलन उत्तराखंड एवं हिमाचल जैसे राज्यों तक सीमित नहीं, बल्कि केरल, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल आदि की पहाड़ियों में भी भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन के चलते लोगों की जानें गई हैं। इन प्राकृतिक आपदाओं के शिकार गरीब ही अधिक होते हैं, गरीब लोग प्राथमिक विपदाओं का दंश नहीं झेल पा रहे और अपनी जमीनों से उखड़ रहे हैं। महानगर और घनी आबादी वाले शहर गंभीर प्रदूषण के शिकार हैं, जहां जीवन जटिलतर होता जा रहा है।
भारत का पड़ोसी देश पाकिस्तान तो इतिहास की सबसे विनाशकारी बाढ़ से अब तक नहीं उबर पाया है। धरती की आबो-हवा बिगाड़ने में रूस-यूक्रेन युद्ध ने आग में घी का काम किया है। इस युद्ध से गैस की आपूर्ति में बाधा के कारण कोयला आधारित बिजलीघरों को फिर सक्रिय करना पड़ा। इससे यूरोपीय देशों में मौसम इतना गर्म हुआ कि कई नदियों का पानी सूख गया। कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए दुनियाभर में कोयले का इस्तेमाल घटाने पर जोर दिया जा रहा है, जबकि युद्ध ने कोयले का इस्तेमाल कई गुना बढ़ा दिया।
एक बड़ा सवाल उठना लाजिमी है कि शून्य कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य आखिर हासिल कैसे होगा ? पर्यावरण के बिगड़ते मिजाज एवं जलवायु परिवर्तन के घातक परिणामों ने जीवन को जटिल बना दिया है। जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने के लिए विकसित देशों को गरीब मुल्कों की मदद करनी थी। इसके लिए समझौता भी हुआ था, जिसके तहत अमीर देशों को हर साल १०० अरब डालर विकासशील देशों को देने थे, पर विकसित देश पीछे हट गए। इससे कार्बन उत्सर्जन कम करने की मुहिम को भारी धक्का लगा। इसलिए अब समय आ गया है जब विकसित देश इस बात को समझें कि जब तक वे विकासशील देशों को मदद नहीं देंगे तो कैसे ये देश अपने यहां ऊर्जा संबंधी नए विकल्पों पर काम शुरू कर पाएंगे।
वैज्ञानिक और पर्यावरणविद चेतावनी दे रहे हैं कि आने वाले दशकों में वैश्विक तापमान और बढ़ेगा, इसलिए अगर दुनिया अब भी नहीं सतर्क होगी तो इक्कीसवीं सदी को भयानक आपदाओं से कोई नहीं बचा पाएगा। अमेरिका, चीन और ब्रिटेन जैसे देश भी कोयले से चलने वाले बिजली घरों को बंद नहीं कर पा रहे। भारत के साथ पाकिस्तान और अफगानिस्तान सहित ११ ऐसे देश हैं जो जलवायु परिवर्तन के लिहाज से चिंताजनक श्रेणी में हैं। ये ऐसे देश हैं, जो जलवायु परिवर्तन के कारण सामने आने वाली पर्यावरणीय और सामाजिक चुनौतियों से निपटने की क्षमता के लिहाज से खासे कमजोर हैं। आने वाले समय में विश्व तापमान की दशा तय करने में चीन और भारत की अहम भूमिका रहने वाली है। आखिर चीन दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश है। भारत भी चीन के साथ जुड़ इसलिए जाता है, क्योंकि इन दोनों ही देशों में उत्सर्जन की मात्रा साल-दर-साल बढ़ रही है। हालांकि यह भी कोई छुपा तथ्य नहीं है कि भारत जैसे देशों के लिए उत्सर्जन कम करना आसान नहीं है। इसके लिए जिम्मेदार सबसे बड़ा कारक कोयले का बहुतायत में इस्तेमाल है, जिसे रातो-रात कम करना संभव नहीं, क्योंकि इसके सारे विकल्प अपेक्षाकृत महंगे पड़ते हैं।
पर्यावरण के निरंतर बदलते स्वरूप ने निःसंदेह बढ़ते दुष्परिणामों पर सोचने पर मजबूर किया है। वर्तमान समय में पर्यावरण के समक्ष तरह-तरह की चुनौतियां गंभीर चिन्ता का विषय बनी हुई हैं। वैश्विक ताप की वजह से हिमखंड तेजी से पिघल कर समुद्र का जलस्तर तीव्रगति से बढ़ा रहे हैं। इससे समुद्र किनारे बसे अनेक नगरों एवं महानगरों के डूबने का खतरा मंडराने लगा है। जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर धरती की हालत ‘मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की’ वाली है। इसीलिए, इंसानी सभ्यता के सामने अब सिर्फ ‘सहयोग करने या खत्म हो जाने’ का विकल्प बचा है। जाहिर है, पानी सिर के ऊपर से गुजर चुका है। सभी देश कार्बन उत्सर्जन की रोकथाम के साथ-साथ ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने और जैव विविधता के नुकसान को खत्म करने के प्रयासों को जितना तेज करेंगे, उसी में सबकी भलाई है। इसके लिए वैश्विक महाअभियान इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है।

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