संगोष्ठी…
दिल्ली।
जो आदमी दिल में उतर जाये, उससे बड़ा कोई रचनाकार नहीं होता। शैलेन्द्र जनता के रचनाकार थे, जिन्होंने साहित्य के मापदंडों से कोई समझौता नहीं किया। एक कलाकार आवारा होता है। उसमें जब तब आवारगी नहीं होगी, तब तब वो जनता के लिए नहीं लिख सकता।
यह बात अध्यक्षीय भाषण में वरिष्ठ रचनाकार लीलाधार मंडलोई ने कही, जिसका अवसर बना
हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा ३० अगस्त को त्रिवेणी सभागार में सुप्रसिद्ध गीतकार, कविराज श्री शैलेन्द्र की १०१वीं जन्मशती मनाना। श्री मंडलोई की अध्यक्षता में डॉ. राजीव श्रीवास्तव, डॉ. इंद्रजीत सिंह, डॉ. भावना बेदी के वक्तव्यों के साथ यह संगोष्ठी आयोजित की गई। मुख्य अतिथि श्री शैलेन्द्र के सुपुत्र मनोज शैलेन्द्र उपस्थित रहे। दीप प्रज्ज्वलन के पश्चात शैलेन्द्र के ऊपर बने वृत्तचित्र को सभागार में दर्शकों के सामने प्रदर्शित किया गया। अकादमी के सचिव संजय कुमार गर्ग ने सभी वक्ताओं व मुख्य अतिथि को स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया।
सैनफ्रांसिस से आए शैलेन्द्र के पुत्र ने अपने संस्मरणों को सुनाते हुए कहा कि ग़रीब-पीड़ित लोगों को देख वो बहुत दुखी होते थे। मेरे बाबा सभी का ध्यान रखते थे। यह बात गलत है कि शैलेंद्र की मृत्यु आर्थिक समस्या के चलते हुई। वक्ताओं में डॉ. श्रीवास्तव ने कहा कि शैलेन्द्र ज़मीन से जुड़े थे। बिहार की मिट्टी से उनका संबंध था, उसकी झलक उनकी कविताओं में मिलती थी। उनके गीतों में लोकतत्व मिलता है। डॉ. सिंह ने शैलेन्द्र की प्रमुख फ़िल्मों- तीसरी क़सम, मधुमती, जिस देश में गंगा बहती है, श्री ४२० की चर्चा करते हुआ कहा कि शैलेन्द्र के गीत ‘आवारा हूँ… आवारा हूँ…’ की धूम रुस में भी रही। शैलेन्द्र के गीत मीरा के पदों की तरह, ग़ालिब के शेरों की तरह गाए और गुनगुनाए जाते हैं। डॉ. बेदी ने कहा कि शैलेन्द्र के गीतों में भविष्य के प्रति सकारात्मक सोच है, यही वह विज्ञान है जो पाठक और श्रोता को अपना-सा लगता है।
शैलेन्द्र द्वारा रचित गीतों की संगीतमय प्रस्तुति प्रदीप शर्मा एवं सुश्री जया शर्मा द्वारा की गई। इन गीतों ने उपस्थित दर्शकों का मन मोह लिया। ऋषि कुमार शर्मा ने सभी का धन्यवाद व्यक्त किया।
(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुम्बई)