कुल पृष्ठ दर्शन : 6

झेंपने की बजाय अगले प्रयास की तैयारी करो

पद्मा अग्रवाल
बैंगलोर (कर्नाटक)
************************************

ये बात १८९८ की है, जब बनारस के क्वींस कॉलेज से मैट्रिक पास करने वाले छात्र ग्यारहवीं में प्रवेश के लिए कतार लगाए खड़े थे। एक छात्र ऐसा था, जिससे कहा गया कि तुम्हारे नंबर कम हैं इसलिए दूसरी जगह प्रयास करो। इसी साल एनी बेसेंट ने सेंट्रल हिंदू कॉलेज भी खोला था। वहाँ पर भी इस छात्र को योग्यता जाँच में सफलता नहीं मिली। प्रवेश न मिलने पर उसने एक वकील के यहाँ ५ ₹ महीने पर ट्यूशन करना शुरू किया, ताकि वह बनारस में रह कर गणित विषय की तैयारी करके अगले वर्ष योग्यता जाँच में सफलता प्राप्त कर सके, लेकिन ५ ₹ में महीने का खर्च चलाना मुश्किल था। पिता के निधन के कारण ढाई ₹ उसे अपने घर पर देना पड़ता था। महीने के आखिरी दिन उधारी में कटते थे, पर एक बार उसे उधार नहीं मिला। उसकी जेब में २ पैसे थे। एक पैसे का चना खाकर दिन कटा, दूसरा दिन दूसरे पैसे से कटा। तीसरे दिन उसने मजबूरी वश गणित की चक्रवर्ती की कुंजी बेचने का निश्चय किया । कुंजी का मूल्य २₹ था। दुकानदार आधा दाम देने के लिए राजी हुआ। मजबूरी में नौजवान १₹ लेकर आगे बढ़ा ही था कि दुकान पर खड़ा हुआ आदमी बोला, -“कहाँ पढ़ते हो ?”
जवाब पाकर उस आदमी ने कहा,-“मैं चुनार के एक विद्यालय में हेडमास्टर हूँ। मुझे १८ ₹ महीने के वेतन पर १ मैट्रिक पास लड़के की जरूरत है।”
इसे युवक ने तुरंत स्वीकार कर लिया, क्योंकि इस काम से पढ़ाई और कमाई दोनों का रास्ता मिल गया। इस नौजवान का नाम था- धनपत राय, जो बाद में मुंशी प्रेमचंद्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। समय चक्र देखिए कि उनके लिखे साहित्य को उनको प्रवेश न देने वाले महाविद्यालयों में भी पढ़ाया गया, यानी जीवन में हुनर जरूरी है। अभिप्राय यह है कि अंक कम आने पर छात्रों को झेंपने की बजाय अगले प्रयास की तैयारी करना चाहिए।
प्रेमचंद्र जी ने पहली बार हिंदी साहित्य में कहानी और उपन्यास को समाज के यथार्थ की खुरदुरी जमीन का एहसास करा कर साहित्य को समाजोन्मुखी बनाया। उनका जन्म ३१ जुलाई १८८० को हुआ था। पहला कहानी संग्रह ‘सोजे वतन’ (उर्दू में लिखा) प्रकाशित हुआ था। इसकी कहानियाँ अँग्रेज सरकार विरोधी और जनता को भड़काने वाली कह कर प्रतिबंध लगा दिया। वह सरकारी शाला में शिक्षक थे, इसलिए नवाब राय के नाम से लिखा करते थे। सरकार ने बिना अनुमति के लिखने पर रोक लगा दी, तो ‘जमाना’ के संपादक दया नारायण निगम ने उन्हें ‘प्रेम चंद्र’ नाम दिया था। उन्होंने ३०० से अधिक कहानियाँ लिखीं जो मानसरोवर के ८ भागों में संकलित हैं। इसके अतिरिक्त दर्जनों उपन्यास भी लिखे। उन्होंने अपने उपन्यास और कहानियों में समाज की हर समस्या को उठाया। ‘गोदान’ उनके लेखन का शिखर था।
प्रेमचंद्र जी को मुम्बई की फिल्म कंपनियाँ भी अपने यहाँ लेखन के लिए प्रस्ताव देती रही। अजंता मूवी सिनेमा कंपनी ने बड़ी रकम के एवज में इनको अनुबंध पर रखा, लेकिन साहित्य और सिनेमा का साथ ज्यादा नहीं निभ सका।
उनका मानना था कि लेखक पर किसी तरह का दबाव नहीं होना चाहिए।
प्रेमचंद्र जी पहले गाँधीवाद से काफी प्रभावित थे, लेकिन बाद में यथार्थवादी हो गए। ऐसा कहा जाता है कि अपने अंतिम उपन्यास ‘मंगलसूत्र’ तक आते-आते वह मार्क्सवाद से प्रभावित हो गए थे।
उनकी कलम ८ अक्तूबर १९३६ को शांत हो गई, परंतु उनके लेखन की आँच आज भी सुलग रही है और भविष्य में भी रहेगी।