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दशलक्षण पर्व:परिग्रह का त्याग कर खुद को पहचानें

डॉ.अरविन्द जैन
भोपाल(मध्यप्रदेश)
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आज विश्व में हिंसा, युद्ध, अशांति, मार-काट, जमाखोरी आदि जो भी विसंगतियां हो रही, होती रही और भविष्य में भी होगी, उसका मुख्य आधार अधर्म है। मानव के रूप में जो दानव बैठे हुए हैं, जो नेता, अभिनेता ,संत-महंत जो भी हो, उनको धर्म का मर्म नहीं मालूम है। एक बार धर्म का मर्म समझ लो तो विश्व में, मानव समाज में अहिंसा, शांति, दया आदि को स्थापित करने में कोई देरी नहीं होगी। आज धर्म को समाज में विभाजन का कारण माना जा रहा है। कोई भी ‘हम किसी से कम नहीं’ इस भाव से अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को हीनता की दृष्टि से देखता है।
“मेरे लिए सत्य से परे कोई धर्म नहीं है और अहिंसा से बढ़कर कोई परम कर्तव्य नहीं है। (गाँधी जी)”
“कोई आदमी जो धर्म को इसलिए अलग रख देता है कि, उसे सोसाइटी में जाना है, उस आदमी के मानिंद है कि जूतों को इसलिए उतारकर रख देता है कि उसे काँटों पर चलना है। (सेसिल )”
जैन दर्शन में सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र को ही धर्म कहा गया है, क्योंकि इन तीनों की एकता ही इस जीव को संसार के दुखों से निकालकर उत्तम सुख में पहुंचाती है।
‘वस्तुसहावो धम्मो’ वस्तु का स्वाभाव धर्म है। इन शब्दों द्वारा आत्मा का जो ज्ञाता द्रष्टा स्वभाव है, उसे धर्म कहते हैं।
“चरित्तं खलु धम्मो जो सो समो ट्टि निद्दिट्ठो। मोहखोहविहीनो परिणामो अप्पणो हि समो।” अर्थात चरित्र धर्म को कहते हैं, आत्मा का सम परिणाम है, वह धर्म कहलाता है और मोह-मिथ्यात्व तथा क्षोभ -राग-द्वेष से रहित आत्मा का परिणाम सम परिणाम है-इन शब्दों द्वारा चरित्र को धर्म कहते हैं।
मनु स्मृति में मनु ने धर्म के १० लक्षण गिनाए हैं-अर्थ-धृति (धैर्य ), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना), दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना), धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना), सत्यम (हमेशा सत्य का आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना)।
ब्रह्मचर्य, सत्य, तप, दान, संयम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शांति और अस्तेय इन १० अंगों से युक्त होने पर ही धर्म की वृद्धि होती है।
जिस नैतिक नियम को आजकल ‘गोल्डन रूल’ या ‘एथिक ऑफ रेसिप्रोसिटी’ कहते हैं, उसे भारत में प्राचीन काल से मान्यता है। सनातन धर्म में इसे ‘धर्मसर्वस्वम्” (=धर्म का सब कुछ) कहा गया है:’रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चाप्यवधार्यताम्।’
जैन धर्म में दिगम्बर अनुयायियों द्वारा आदर्श अवस्था में अपनाए जाने वाले गुणों को दशलक्षण धर्म कहा जाता है। इसके अनुसार जीवन में सुख-शांति के लिए उत्तम क्षर्मा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, अकिंचन और ब्रह्मचर्य आदि दशलक्षण धर्मों का पालन हर मनुष्य को करना चाहिए।
दसलक्षण पर्व पर इन १० धर्मों को धारण किया जाता है। जैन धर्म में इन दस धर्मों की पूजा उपासना की जाती है और नियम रूप से मन दिन के हिसाब से माना भी जाता है।
जब तक हम धर्म के मर्म को नहीं जानेंगे, तब तक स्वयं, परिवार, समाज, देश और विश्व में शांति की कल्पना करना असंभव है। हर पशु-पक्षी, नदी आदि अपने धरम का पालन करते हैं, पर मानव मन के कारण धर्म अंगीकार करने में कठिनाई महसूस करता है।
क्रोध की उत्पत्ति के कारण आक्रोश,
ताड़न, मरण आदि के अत्यंत संभव होने पर भी अर्थात अपने ऊपर उक्त आपत्तियों के आ जाने पर भी चित्त में कलुषता या विकार भाव को उतपन्न नहीं होने देना उत्तम क्षमा है। हम उनसे क्षमा मांगते हैं, जिनके साथ हमने बुरा व्यवहार किया हो और उन्हें क्षमा करते हैं, जिन्होंने हमारे साथ बुरा व्यवहार किया हो।
उत्तम क्षमा धर्म हमारी आत्मा को सही राह खोजने में और क्षमा को जीवन और व्यवहार में लाना सिखाता है, जिससे सम्यक दर्शन प्राप्त होता है। सम्यक दर्शन वो चीज है, जो आत्मा को कठोर तप त्याग की कुछ समय की यातना सहन करके परम आनंद मोक्ष को पाने का प्रथम मार्ग है।
अक्सर धन, दौलत, शान और शौकत इन्सान को अहंकारी और अभिमानी बना देता है। ऐसा व्यक्ति दूसरों को छोटा और अपने-आपको सर्वोच्च मानता है। ये सभी चीजें नाशवान हैं, ये सभी एक दिन आपको छोड देंगी या फिर आपको एक दिन मजबूरन इन चीजों को छोडना ही पडेगा। इन नाशवंत चीजों के पीछे भागने से बेहतर है कि, अभिमान और परिग्रह को छोडा जाए और सभी से विनम्र भाव से पेश आएँ। सभी जीवों के प्रति मैत्री-भाव रखें, क्योंकि सभी जीवों को अपना जीवन जीने का अधिकार है।
सभी को एक न एक दिन जाना ही है, तो फिर इन सब परिग्रहों का त्याग करें और बेहतर है कि खुद को पहचानो। परिग्रहों का नाश करने के लिए खुद को तप, त्याग के साथ साधना रूपी भट्टी में झोंक दो, क्योंकि इनसे बचने और परमशांति-मोक्ष को पाने का साधना ही एकमात्र विकल्प है।
हम सबको सरल स्वभाव रखना चाहिए, बने उतना कपट को त्याग करना चाहिए। कपट के भ्रम में जीना दुखी होने का मूल कारण है।लोभ के त्याग करने पर मनुष्य के हृदय में पूर्ण पवित्रता आती है। किसी चीज़ की इच्छा होना इस बात का प्रतीक है कि हमारे पास वह चीज नहीं है! तो बेहतर है कि हम अपने पास जो कुछ है, उसके लिए परमात्मा का शुक्रिया अदा करें और संतोषी बनकर उसी में काम चलाएं। भौतिक संसाधनों और धन- दौलत में खुशी खोजना यह महज आत्मा का एक भ्रम है।
कर्मों के क्षय करने के लिए बिना किसी सांसरिक प्रलोभन के जो तपश्चर्या की जाती है, वह तपोधर्म माना गया है। तप का मतलब सिर्फ उपवास में भोजन नहीं करना, असली मतलब है कि इन सभी क्रिया-कलापों के साथ अपनी इच्छाओं और ख्वाहिशों को वश में रखना। ऐसा तप अच्छे गुणवान कर्मों में वृद्धि करता है। पहले तीर्थंकर भगवान आदिनाथ ने करीब ६ महीने तक ऐसी तप-साधना की थी और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त किया था। हमारे तीर्थंकरों जैसी तप-साधना करना इस जमाने में शायद मुमकिन नहीं है, पर हम भी ऐसी ही भावना रख कर पर्यूषण पर्व के १० दिन के दौरान उपवास करते हैं और परम आनंद मोक्ष को प्राप्त करने की राह पर चलने का प्रयत्न करते हैं।
‘त्याग’ शब्द से ही पता लग जाता है कि, इसका मतलब छोडना है और जीवन को संतुष्ट बना कर अपनी इच्छाओं को वश में करना है। छोडने की भावना जैन धर्म में सबसे अधिक है, क्योंकि जैन-संत सिर्फ अपना घर-बार ही नहीं, अपने कपडे भी त्याग देता है और पूरा जीवन दिगंबर मुद्रा धारण करके व्यतीत करता है। इन्सान की शक्ति इससे नहीं परखी जाती है कि उसके पास कितनी धन -दौलत है, बल्कि इससे परखी जाती है कि उसने कितना छोडा है, कितना त्याग किया है। उत्तम त्याग धर्म हमें यही सिखाता है कि मन को संतोषी बनाकर ही इच्छाओं और भावनाओं का त्याग करना मुमकिन है। त्याग की भावना भीतरी आत्मा को शुद्ध बनाने पर ही होती है।

परिचय- डॉ.अरविन्द जैन का जन्म १४ मार्च १९५१ को हुआ है। वर्तमान में आप होशंगाबाद रोड भोपाल में रहते हैं। मध्यप्रदेश के राजाओं वाले शहर भोपाल निवासी डॉ.जैन की शिक्षा बीएएमएस(स्वर्ण पदक ) एम.ए.एम.एस. है। कार्य क्षेत्र में आप सेवानिवृत्त उप संचालक(आयुर्वेद)हैं। सामाजिक गतिविधियों में शाकाहार परिषद् के वर्ष १९८५ से संस्थापक हैं। साथ ही एनआईएमए और हिंदी भवन,हिंदी साहित्य अकादमी सहित कई संस्थाओं से जुड़े हुए हैं। आपकी लेखन विधा-उपन्यास, स्तम्भ तथा लेख की है। प्रकाशन में आपके खाते में-आनंद,कही अनकही,चार इमली,चौपाल तथा चतुर्भुज आदि हैं। बतौर पुरस्कार लगभग १२ सम्मान-तुलसी साहित्य अकादमी,श्री अम्बिकाप्रसाद दिव्य,वरिष्ठ साहित्कार,उत्कृष्ट चिकित्सक,पूर्वोत्तर साहित्य अकादमी आदि हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-अपनी अभिव्यक्ति द्वारा सामाजिक चेतना लाना और आत्म संतुष्टि है।

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