राधा गोयल
नई दिल्ली
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कहाँ गया रिश्तों से प्रेम…?…
किसी वृद्ध ने बहुत ही सुंदर बात कही है,-
“आज की पीढ़ी इकठ्ठा करने के लिए जी रही है,
और हमारी पीढ़ी इकठ्ठा रहने के लिए जीती रही।
जब से सबके अपने अपने मकान हो गए,
सगे भाई भी एक-दूसरे के मेहमान हो गए।”
यह आज की कड़वी सच्चाई है। आजकल बच्चे माता-पिता की इज्जत नहीं करते। पिता को ही झुकना पड़ता है। बच्चों को माता-पिता की जायदाद और वसीयत तो चाहिए, लेकिन कोई उनकी सेवा करना नहीं चाहता। हर बेटा यही चाहता है, कि पिता की सारी जायदाद उसी को मिल जाए जिसके कारण विवाद भी खूब होते हैं। भाई…भाई का दुश्मन बन जाता है। बहन-भाई में प्यार खत्म हो जाता है, दूरियाँ बढ़ जाती हैं। एक ही घर में रहते हुए अजनबी की तरह व्यवहार करते हैं। ऐसे एक नहीं, अनेक घर देखे।
वैसे भी आजकल संस्कार तो बिल्कुल ही लुप्त हो गए हैं। बड़ों से कैसे बोलना है, बच्चे इसकी तमीज तक भूल गए हैं। उन्हें रिश्तों का मोल समझ नहीं आता, केवल स्वार्थ साधने के लिए रिश्ते बनाए-निभाए जाते हैं। वरना तो कौन किसका भाई और कौन किसी का माँ-बाप। माँ-बाप तक से तू-तड़ाक पर उतर आते हैं। ये वो लोग हैं, जो बहुत पढ़े-लिखे हैं और खुद को बहुत समझदार समझते हैं, लेकिन समझदार तो वो लोग हैं जो गुस्से में भी बात करने की तमीज नहीं भूलते।
स्वार्थ, ईर्ष्या और लालच के कारण ही रिश्ते निभाए जाते हैं या समाज के डर से मजबूरी में ढोए जाते हैं। यह भी शुक्र है, कि समाज का डर है;क्योंकि आजकल तो जहाँ देखो, वहीं यह सुनने में आता है कि बच्चों ने माता-पिता की जायदाद हड़प ली और उन्हें वृद्ध आश्रम के हवाले कर दिया या माता-पिता दोनों में से कोई एकाकी रह गया तो अपने साथ ले जाने के नाम पर बच्चे उसकी जायदाद बिकवा देते हैं। फिर विमानतल या प्लेटफार्म पर अकेला-बेसहारा छोड़कर खिसक जाते हैं।
हम इतने अधिक संस्कारहीन हो गए हैं, कि सारी मर्यादा लाँघ रहे हैं। अपने संस्कार… अपनी संस्कृति… अपनी सभ्यता को ताक पर रखते जा रहे हैं। सारे नैतिक मूल्य खोते जा रहे हैं। पहले माता-पिता को भगवान मानकर पूजा जाता था। आज सिर्फ कहने के लिए माता-पिता भगवान हैं, लेकिन उनका कितना अपमान होता है, यह उन माता-पिता से पूछो;जो भुक्तभोगी हैं।
आज रिश्तों की संवेदनाएं मर रही हैं। संबंधों की मधुरता के लिए संबोधन की मिठास अनिवार्य है। एक बात जरूर है, कि परिवार में हर छोटी-बड़ी बात को मुद्दा नहीं बनाना चाहिए। रिश्तों व हालातों से थोड़ा समझौता कर लें, तो पूरा जीवन ही सुंदर हो जाता है-
दिल में दरवाजे बनाएं, परन्तु दिल में दीवारें कभी न बनाएं
अपनों का आना-जाना लगा रहे,
तो ज़िंदगी चलती रहती है, निर्बाध।
२ चीजें रिश्तों को खराब करती हैं-गलतियाँ और गलतफहमियाँ।गलतियों को तो सुधार सकते हो, पर गलतफहमियों का कोई इलाज नहीं है। कभी-कभी यही गलतफहमियाँ रिश्तों में दूरियों की वजह बन जाती हैं।
लोग कहते हैं कि जब कोई अपना दूर चला जाता है, तो बहुत दर्द होता है, किन्तु उससे भी ज्यादा दर्द तो तब होता है;जब कोई अपना पास होकर भी दूरियाँ बना लेता है।आजकल रिश्तों की हकीकत यही है।
रिश्तों की अदालत में जो पैरवी करनी पड़ती है, उसमें मीठी वाणी का बड़ा योगदान होता है। झाड़ू में जब तक बन्धन होता है, तब तक वो कचरे को साफ करती है। बन्धन खुल जाने पर झाड़ू खुद कचरा बन जाता है। इसलिए हमेशा अपनों से बंधे रहिए। एक-एक से हम अनेक बनते हैं। इस बंधन को बनाए रखें-
जो सुख में साथ देते हैं वे रिश्ते होते हैं,
और जो दु:ख में साथ देते हैं, वे फरिश्ते होते हैं।
आजकल रिश्तों में दूरियों का बहुत बड़ा कारण मोबाइल भी है। रिश्ते केवल मोबाइल पर ही निभाए जा रहे हैं। यहाँ तक कि शादी का निमंत्रण-पत्र भी जो पहले घर जाकर दिया जाता था और शादी में शामिल होने का आग्रह किया जाता था, वह भी व्हाट्सएप कर दिया जाता है। विवाह समारोह में या अन्य किसी भी समारोह में जाओ तो सब बच्चे अपने मोबाइल की दुनिया में व्यस्त दिखाई देते हैं। समारोह के कारण एक-दूसरे से जान पहचान बढ़ाने का मौका मिलता है। रिश्तों में नजदीकी आती हैं, लेकिन इस मोबाइल के कारण वह भी खत्म हो गया है। बच्चे अब रिश्तेदारों के बच्चों से मेल-जोल नहीं बढ़ाते। इसी कारण एक-दूसरे को नहीं पहचानते। सच तो यह है, कि-
इंसान जितना ऑन लाईन होता जा रहा है,
इंसानियत उतनी ऑफ लाईन होती जा रही है।
आजकल के व्यस्त जीवन और एकल परिवार के कारण परिवार वालों को मिलने-जुलने के मौके कम मिलते हैं। बच्चे अपने रिश्तेदारों को पहचानते नहीं, पर गलती उनकी नहीं, हमारी है। दादी-नानी के घर महीना बिताने के बजाय हम उनको छुट्टी पर ले गए। प्यार तभी बढ़ता है जब साथ उठते-बैठते, हँसते-खेलते हैं। एक-दूसरे को जानते हैं, झेलते हैं-
आज आत्मीयता कम होती जा रही है,
आज हर दिल ढूँढ रहा है अपनों को
लेकिन भागता है पीछे सपनों के।