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पश्चाताप के आँसू

ताराचन्द वर्मा ‘डाबला’
अलवर(राजस्थान)
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दिनेश, ओ दिनेश…
भैंस को पानी पिला दे बेटा। अब तो तू बड़ा हो गया है। थोड़ा बहुत घर के काम-काज में भी हाथ बटा लिया कर। मैं ही करुँ सारे काम-काज। डूगँर सू बलितों लेकर आऊं,गोबर चौथ,रोटी टूक सब मैं ही करुँ। क्या-क्या करुँ मैं। हे भगवान मरी भी तो नही आवे मुझे। जिन्दगी नरक बन गई है मेरी…।
बस इसी तरह कड़-कड़ बड़-बड़ चलती रहती थी धनबाई के घर में। बेचारी नाम की ही धनबाई थी। धन से तो जैसे बैर ही था। पति रोज दारू पीता था। कोई काम-काज का नहीं था। बेचारी मेहनत- मजदूरी कर के बच्चों का पेट पालती थी। १ बड़ा बेटा था दिनेश और ३ बेटियां थी। गरीबी और आर्थिक तंगी की वजय से धनबाई का स्वभाव चिड़चिडा़ हो गया था।
पिला तो दिया माँ,क्यों चिल्ला रही हो। दिनेश ने कहा।
चिल्लाऊँ नहीं तो और क्या करुँ। मेरी तो किस्मत ही फोड़बा लायक है। सत्यानाश हो वा मामा का जिसने चिकनी-चुपडी़ बातें करके मुझे यहाँ भूखा के ब्याह दी। पता नहीं कौन-से जन्म का बदला चुकाया है बैरी ने।
अरे! माँ चुप हो जाओ। तुम भी हमेशा बड़-बड़ करती रहती हो। तुम्हारी जबान नहीं थकती क्या।
हम्बे,अब तू भी नार हो जा मेरा जीव कू।
अरे! मम्मी सुनो तो सही,पापा का फोन आया था। कह रहे थे दादू तू कहां है,मेरी तबियत खराब है। तेरी मम्मी से सौ रूपये लेकर बाजार आजा। मैं सोनू चाय वाले की दुकान पर मिलूँगा। पापा की जबान काँप रही थी माँ।
सोनू चाय वाले की दुकान पर…? धनबाई सब समझ गई। वहीं तो दारू का ठेका हैं। वो हरामी बीमार-वीमार नहीं है। दारू पीने का बहाना बना रहा है। हे भगवान कब छोड़ेगो ये दारु ? अब मैं क्या करूं। खबरदार जो पैसा लेकर गया। धनबाई जोर से चिल्लाई। हाय!मेरी तो किस्मत ही मारी गई और बेचारी फूट-फूट कर रोने लगी। बेचारी का दिल बैठ गया। पढ़ी-लिखी नहीं थी। गाँव की रहने वाली थी,पर अच्छा-बुरा सब समझती थी।
दिनेश चुपचाप खड़ा था। तीनों बेटियां सिमट कर एक कोने में जा बैठी और डरी-डरी सी एक- दूसरे को देख रही थीं। बेचारी करती भी क्या! समझ गई थी कि आज फिर बवाल होने वाला है घर में।
एक घंटे बाद फिर से दिनेश के पास फोन आता है। दादू कहाँ है तू,कब तक आएगा। मदनलाल की आवाज डगमगा रही थी।
पापा,माँ के पास पैसे नहीं है तुम घर पर आ जाओ, दिनेश ने डरते हुए कहा।
अरे दादू तेरी माँ पागल है,वो समझती नहीं है। तू जल्दी से सौ रूपए लेकर आजा।
इतने में ही धनबाई ने दिनेश से फोन छीन लिया और फिर जो मुँह में आया बकने लगी। नीच,हरामी कब सुधरेगा तू। बीमारी का बहाना बनाकर पैसे मंगा रहा है और वहां बैठ कर दोस्तों के साथ दारू पी रहा है। तू क्या चाहता है हमसे। चुपचाप घर आजा। तूने क्यूँ आनसी बिगाड़ रखी है हमारी। थोड़ा-बहुत बच्चों की तरफ तो देख,कुण धणी है इनका।
तेरा फिर भाषण शुरू हो गया। तू समझाएगी मुझे। ठहर जा आज तेरी खैर नहीं… और मदनलाल ने फोन काट दिया।
बेचारी धनबाई जोर-जोर से रोने लगी। हे भगवान तू मुझे उठा क्यूँ नहीं लेता। इस हरामी ने मेरी जिंदगी बर्बाद कर रखी है। न तो इसको रोटी टूकन को फिकर,न बच्चों की पढाई-लिखाई की फिकर। या कब सुधरेंगो। बेचारी रोते-रोते छाती पीटने लगीं।
बच्चे डरे हुए थे। छोटी बेटी हिम्मत करके माँ के पास आई। मासूमियत से कहने लगी,माँ रो मत भूख लगी है। खाना दो ना।
मुझे खा जाओ तुम,धनबाई चिल्लाते हुए बोली। हे भगवान इनको जन्म देते ही क्यूँ नहीं मार दिया। अब कुण धणी है इनका। चारों बच्चे सिसक-सिसक कर रो रहे थे। धनबाई की आँखों से आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे।
आखिर माँ तो माँ ही होती हैं। बेचारी खड़ी हुई और बच्चों को खाना खिलाने लगी। उसके दिमाग में बार-बार ये ख्याल आ रहा था कि हरामी शाम को पता नहीं क्या करेगा। कैसे समझाऊँ इसको कि दारू अच्छी चीज नहीं है। या दारु ने अच्छे-अच्छों का घर बर्बाद कर दिया। घर में कोई बड़ा-बूढ़ा होता तो इसको समझाता। अब मैं किससे कहूँ। बेचारी धनबाई बड़बड़ाते हुए बच्चों को खाना खिला कर घर के काम-काज में लग गई। कब शाम हो गई,पता ही नहीं चला। दिमाग में बार-बार वो शब्द गूँज रहे थे ‘आज तो तेरी खैर नहीं’।
रात के करीब १० बज गए थे। मदनलाल अभी तक घर नहीं आया था। सभी बच्चे सो गए थे। दिनेश और उसकी माँ जाग रही थी। अचानक दरवाजे पर दस्तक हुई। दादू दरवाजा खोल। दादू मेरा शेर कहाँ है तू। दादू ओ दादू…दरवाजा खोल। मदनलाल अपने बेटे दिनेश से बहुत प्यार करता था। उसे प्यार से दादू कहता था।
मम्मी,पापा आ गए। दिनेश ने घबराते हुए कहा। धनबाई ने धीरे से दरवाजा खोला। नशे में धुत्त मदनलाल खड़ा नहीं हो पा रहा था। धनबाई को देखते ही आग-बबूला हो गया। साली,तू क्या समझती है मेरे पास पैसे नहीं हैं। एक इशारे में हजारों आदमी आ जाते हैं मेरे पास। और मदनलाल ने धनबाई को जोर से धक्का दे मारा। बेचारी दूर जा गिरी। एकदम से चारों बच्चे चिल्लाने लगे-माँ..माँ.. धनबाई जैसे-तैसे खड़ी हुई और रोते हुए दिल की भड़ास निकालने लगी। नीच,पापी मार दे तू मुझको। जहर लाकर दे दे हम सबको,जिससे रोज-रोज को कलेश मिट जाए। धनबाई छाती पीटने लगी,सिर फोड़ने लगी। बच्चे घबरा गए। तीनों बच्चियाँ माँ से लिपट गई। थोड़ी-सी देर में कोहराम मच गया। सभी बच्चे चिल्लाने लगे। धनबाई ने जैसे-तैसे अपने-आपको सम्भाला। बच्चियों को छाती से लगाते हुए बोली,अरे हरामी तुझे सरम क्यों नहीं आती। इन बच्चों की तरफ तो देख,कौन धणी है इनका। तू समझता क्यों नहीं है। देख इन बच्चों की तरफ कैसे बिलबिला रहे हैं। तुझे दया नहीं आती क्या। और फिर धनबाई जोर-जोर से चिल्लाने लगी।
तू फिर भाषण देने लग गई हरामजादी। तू मुझे समझाने की कोशिश मत कर। मैं सब समझता हूँ। ये नाटक बन्द कर। मेरा दादू कहाँ हैं,दादू…मेरा शेर…मेरा दीनू …और मदनलाल बड़बड़ाता हुआ अपने कमरे में चला गया।
धनबाई बैठी बैठी सिसक रही थीं। उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। सोचने लगी,इस दारुबाज के साथ कैसे जिन्दगी कटेगी मेरी। हे भगवान तू मुझे ऊठा क्यूँ नहीं लेता और बेचारी जोर-जोर से फिर चिल्लाने लगी। अपने कर्मों को कोसने लगी।
रो-धोकर सोच-समझकर बेचारी खडी हुई। थाली में दो रोटी और आलू की चटनी लेकर दिनेश को बोली,जा दिया तेरा बाप को,खा लेगा खाएगा तो। यहां तो सुख से खाने देता है,न पीने देता है। दिनेश डरते हुए पापा के कमरे में गया। पापा रोटी खा लो। कौन दादू मेरा शेर,तू घबराना मत,मेरे पास बहुत पैसे हैं। तेरी माँ को अक्ल नहीं है। मैं तुझे साईकिल दिलाऊँगा।और देखना एक दिन तुझे बहुत बड़ा आदमी बनाऊँगा। दिनेश डर के मारे कुछ नहीं बोला। खाना रख कर माँ के पास आकर सो गया। मदनलाल ऐसे ही रातभर बड़बड़ाता रहा और सो गया।
सुबह होते ही धनबाई घरेलू काम-काज में लग गई। बच्चे भी जाग गए थे। दिनेश समझदार लड़का था। चाय की केटली चूल्हे पर चढ़ा दी। छोटी बहनों को चाय पिलाई और एक कप अपने पापा को देने के लिए उसके कमरे में गया। झिझकते से बोला पापा…पापा….चाय पी लो। जब उधर से कोई जवाब नहीं मिला तो दिनेश ने जैसे ही हाथ से करवट बदली,उसकी चीख निकल गई…माँ- माँ…पापा को क्या हो गया। माँ जल्दी आओ। मदनलाल की गर्दन लटकी हुई थी। मुँह से खून बह रहा था। बेचारी धनबाई गिरती-पड़ती कमरे में आई। देखते ही धड़ाम से गिर पड़ी। हे भगवान इनको क्या हो गया। अरे कोई डाक्टर को बुला दो। धनबाई के ऊपर एकदम जैसे पहाड़ टूट पड़ा हो। वो बुरी तरह घबरा गई थी।
बेचारी जैसे-तैसे मदनलाल को अस्पताल लेकर गई। डॉक्टर ने देखते ही कहा कि इनका लीवर खराब हो गया है। अगर इसने शराब नहीं छोड़ी तो ये मर जाएगा।
ये सुनते ही धनबाई का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। कहने लगी-डॉक्टर साहब इनको बचा लो। मैं बहुत गरीब हूँ। मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। डाँक्टर ने कहा,घबराने की जरूरत नहीं है। मैंने इंजेक्शन दे दिया है,थोड़ी देर में होश आ जाएगा। अगर थोड़ी देर और हो जाती तो इनकी जान को खतरा हो सकता था। मैंने दवा दे दी है,लेकिन ध्यान रखना ये शराब नही पिए। अगर फिर से शराब पी तो कुछ भी हो सकता है।
बेचारी धनबाई बच्चों की तरफ देख कर रोने लगी। छोटी बेटी मासूमियत से बोली,मम्मी पापा मर जाएंगें ?
नहीं बावली क्या बोल रही है तू। कुण धणी है फिर तुम्हारा। ये जैसा भी है घर का धणी है। अगर इसको कुछ हो गया तो हमारा क्या होगा। धनबाई की आँखों से आँसू बह रहे थे। भगवान इनको जल्दी ठीक कर दे। अब नहीं पीने दूंगी इनको दारु। इनके हाथ जोड़ूंगी,पाँव पकडूंगी। हे भगवान अबकी बार और बचा ले मेरे आदमी को। बेचारी बोलती जा रही थी और रोती जा रही थी।
मदनलाल ये सब सुन रहा था। उसको आत्मग्लानि हो रही थी। मम्मी,पापा मर जाएंगे… मम्मी,पापा मर जाएंगे… बार-बार उसके दिमाग मे ये शब्द गूंज रहे थे। मदनलाल की आँखों से आँसू बह रहे थे। कुण धणी है हमारो,हे भगवान अबकी बार और बचा ले… हाथ जोडूंगी,पाँव पकडूंगी…। मदनलाल के सिर की नसें फटी जा रही थी। वो सोच रहा था कि इतनी गाली-गलौज करने के बाद भी धनबाई मुझे कितना चाहती है। उससे बोला नहीं जा रहा था लेकिन वो मन ही मन कह रहा था मुझे माफ कर दो धनबाई…अब कभी नहीं पीऊंगा…मैं कसम खाता हूँ… उसकी आँखों से पश्चाताप के आँसू बह रहे थे।

परिचय- ताराचंद वर्मा का निवास अलवर (राजस्थान) में है। साहित्यिक क्षेत्र में ‘डाबला’ उपनाम से प्रसिद्ध श्री वर्मा पेशे से शिक्षक हैं। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कहानी,कविताएं एवं आलेख प्रकाशित हो चुके हैं। आप सतत लेखन में सक्रिय हैं।

 

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