राधा गोयल
नई दिल्ली
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प्यासी धरती तपस्विनी-सी ताक रही है अम्बर को,
थोड़ा जल बरसा दे रे मेघा, रोक दे ऐसे मंजर को।
जगह-जगह से मेरा आँचल दरक गया है,
बिन पानी के जगह-जगह से तड़क गया है।
आज मेरे बेटों की धनलिप्सा के कारण,
मेरी सुंदर काया का यह क्षरण हुआ है।
कहने को मानव ने बहुत विकास किया है,
किंतु विकास के नाम पे बहुत विनाश किया है।
जंगल काट डाले, तालाब पाट डाले हैं,
कांक्रीटों के महल वहाँ बनवा डाले हैं।
वृक्षों के कटने से ही यह हाल हुआ है,
छाँव बची ही नहीं, जीना बेहाल हुआ है।
वृक्षों से ही जीव, प्राण-वायु पाता है।
उनके कंदमूल फल से, भोजन पाता है।
तप्त धूप का ये पादप, अवशोषण करते,
मेघों का भी यही पेड़ आवाहन करते।
पेड़ बचे ही नहीं, मेघ भी नहीं बरसते,
सूख रहा है हलक, सभी पानी को तरसते।
कहने को धरती पर सत्तर प्रतिशत जल है,
किंतु नहीं पीने को एक बूँद भी जल है।
यदि ऐसा ही रहा तो कुछ भी नहीं बचेगा,
तेरा संचित धन भी फिर बेकार रहेगा।
अभी समय है जाग जा प्राणी, वृक्ष लगा तू,
तालाब, कुएँ-बावड़ी बना, जल संचय कर तू।
हरित क्रांति ला, जगह-जगह पर पेड़ लगा तू,
कैंप लगाकर लोगों को प्रोत्साहित कर तू।
धरती करे पुकार, सुन लो उसकी गुहार,
मत कर इतना दोहन, जीना होगा दुश्वार॥