डॉ. मीना श्रीवास्तव
ठाणे (महाराष्ट्र)
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पंचकन्या (भाग २)…
“अहल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्या ना स्मरेन्नित्यं महापातकनाशम्॥”
आज हम जानेंगे इस श्लोक की द्वितीय पंचकन्या ‘द्रौपदी’ के बारे में। राजा द्रुपद को द्रोणाचार्य से बदला लेने हेतु पुत्र चाहिए था। इसलिए पुत्रकामेष्टी यज्ञ के समय यज्ञनारायण ने उसे धृष्टद्युम्न और द्रौपदी नामक अयोनिज पुत्र और पुत्री दिए! साक्षात अग्नि से उत्पन्न हुई रूपगर्विता, बुद्धिमती याज्ञसेनी, पांचाल देश की राजकन्या पांचाली, महाभारती (महाराज भरत के वंशज, अर्थात पांडवों की पत्नी), पांडु-शर्मिला (राजा पांडु की पुत्रवधु), नित्य यौवना द्रुपद कन्या, यही है द्रौपदी! कल्याणी, नीलपद्मगन्धा, मालिनी, श्यामला और कृष्ण की अभिन्न सखी कृष्णा! महाभारत का एक अत्यंत महत्वपूर्ण ही नहीं, अपितु मध्यवर्ती पात्र। उसकी कथा महाभारत में विस्तार से प्रकट होती है। कुंती की आज्ञानुसार और अपने पूर्वजन्म के वरदान के कारण बहुपतित्व को स्वीकार करने वाली पंच पांडवों (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल तथा सहदेव) की भार्या, उन पाँचों पतियों को समत्व से ममत्व तथा प्रेम देनेवाली यह अलौकिक पंचवल्लभा है, हमारी दूसरी पंचकन्या। अपने पतियों के गुण-दोषों सहित उन्हें अपने जीवन के प्रत्येक अच्छे-बुरे प्रसंग में समाहित करने वाली यह पतिव्रता अद्भुत स्त्री है।
केवल सौंदर्य ही नहीं, बल्कि विलक्षण बुद्धिमत्ता और कुछ प्रसंगों में अपने ही पतियों पर (यहाँ बुद्धिमान युधिष्ठिर भी) पर तीक्ष्णातितीक्ष्ण कटु वाग्बाणों से उन्हें घायल करते हुए उनके कर्तव्य के प्रति जागरूक करने वाली यही है याज्ञसेनी। पंच पांडवों की अस्मिता, उनके पौरुष और पराक्रम को सदैव धधकता रखने वाली, मानों जाज्वल्य अग्निशिखा! इंद्रप्रस्थ और उसके पश्चात् हस्तिनापुर की इस बुद्धिमती महारानी से युधिष्ठिर सदैव अपने शासनकाल में परामर्श लेता था, साथ ही सक्षमता से द्रौपदी संपूर्ण कोषागार की व्यवस्था देखती थी। महाभारत में वस्र हरण के कठिनतम प्रसंग में भी अपनी मेधावी बुद्धिमत्ता का प्रदर्शन करते हुए भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य, धृतराष्ट्र आदि दिग्गजों को भरी राज्यसभा में प्रश्न पूछकर निरुत्तर करने वाली स्वाभिमानी द्रौपदी ही थी। उस समय कुरु कुल के ज्येष्ठों से उसने जिस प्रकार वाद-विवाद किया है, उससे पांचाली की प्रगाढ़ बुद्धिमत्ता, संस्कार एवं अपने स्त्रीत्व का भरी सभा में हुआ अपमान होते देख क्रोधावेश के भाव अनायास ही प्रगट होते हैं। जब कोई भी उसकी सहायता नहीं करता, तब असहाय द्रौपदी कृष्ण को पुकारती है तथा प्रत्यक्ष भगवान् की कृपा इस कृष्णे पर होती है। उसे असहाय भी कैसे कहें ? प्रसंग आने पर यह तेजस्वी स्त्री श्रीकृष्ण से अपने शासनकाल में वाद-विवाद करती है। वस्र हरण के दारुण प्रसंग में उसे सबसे अंत में यह ध्यान में आता है कि, मेरा सखा कृष्ण ही मेरा त्राता है! बाद में उसने कृष्ण को ही प्रश्न किया-“हे घनश्याम, तुम पहले क्यों नहीं आए ?” तब कृष्ण ने उसे समर्पक उत्तर दिया-“कृष्णे, तुमने मुझे जैसे ही पुकारा, मैं उस क्षण ही आ गया था!”
द्यूत क्रीड़ा के बाद धृतराष्ट्र के वरदान देने पर वह अपने पतियों को दास्यत्व से मुक्त करती है और अंतिम वर के रहने पर भी वह मांगती नहीं, क्योंकि उसे अपने पतियों के कर्तृत्व पर गहरा विश्वास है। आवश्यक न होते हुए भी इस पतिव्रता ने अपने पतियों के साथ १२ वर्षों का वनवास और तेरहवें वर्ष के अज्ञातवास की पीड़ा सही। इस कठिन काल में उसने अपने तेजस्वी तथा स्फूर्तिदायक व्यक्तित्व से पांडवों का मनोबल सदा ऊँचा रखने का और उनके पौरुष को जागृत रखने का महान कार्य किया। अज्ञातवास में तो उसे मत्स्य देश की महारानी सुदेष्णा की सेविका (सैरंध्री) का रूप लेकर रहना पड़ा। इसी काल में उसने कीचक की कामुक नजर का सामना किया और भीम के हाथों कीचक-वध भी करवाया, वह भी अज्ञातवास के कठोर नियमों को सुरक्षित रखकर! कुरुक्षेत्र के युद्ध में पांडवों की विजय तो हुई, परन्तु लाखों वीर योद्धाओं समेत द्रौपदी के पिता, बंधु और पांचों ही पुत्र वीरगति को प्राप्त हुए।
द्रौपदी का जीवन प्रवास देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि, यह एक अबला गृहिणी नहीं, बल्कि अपने लक्ष्य को साध्य करने में यशस्वी हुई अत्यंत तेजस्वी विद्युत शलाका ही है। राजसुख का त्याग कर अपने पतियों के साथ हिमालय में मुक्ति मार्ग पर जाते हुए सबसे प्रथम उसके प्राण-पखेरु उड़ जाते हैं। इसके लिए एक प्रचलित कारण यह दिया जाता है कि, वह अर्जुन से कहीं अधिक प्रेम करती थी। कदाचित अर्जुन ने मत्स्य भेद कर शर्त तो जीती ही, परन्तु पांचाली का हृदय भी जीता होगा और बाद में उसे पाँचों भाइयों के साथ विवाह करना पड़ा। उसके चरित्र से एक निष्कर्ष निश्चित रूप से निकाल सकते हैं कि, अपने जीवनकाल में उसने पाँच पांडवों से समान प्रेम किया।
द्रौपदी का एक और विलोभनीय रूप है, उसका कृष्ण से भाव-भीना तथा सुकोमल ऐसा सखी का नाता। यह अशरीरी, निराकार, लेकिन श्रीकृष्ण से अद्वैत साधा हुआ सखी-रूप, यानी स्त्री-पुरुष के ऐसे पवित्र तथा अति निकट नाते का आदर्श ही मान लीजिए। यह दूसरी पंचकन्या, श्यामवर्णी सौंदर्यशालिनी कृष्ण सखी, पंच पांडवों की भार्या और पाँच पुत्रों की माता होकर भी एक सशक्त, स्वतंत्र विचारधारा समेत अपने स्त्रीत्व के प्रति पूर्ण जागरूक रहने वाली तथा इसी स्त्री-शक्ति का सही समय पर अचूकता से उपयोग करने वाली एक आदिशक्ति और महाभारत की आत्मा ही है। इसी लिए, पंच प्राणों के समान अति प्रिय पाँच पतियों की भार्या होकर भी उसका स्त्री-पावित्र्य अबाधित रहा और वह प्रातःपूजनीय ऐसी दूसरी पंचकन्या मानी जाती है।