दिल्ली
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नाबालिग लड़की के साथ दुष्कर्म की कोशिश से जुड़े मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले पर रोक लगाकर न्याय की संवेदनशीलता को संबल दिया है। इससे जहां न्याय की निष्पक्षता, गहनता एवं प्रासंगिकता को जीवंत किया गया है, वहीं महिला अस्मिता एवं अस्तित्व को कुचलने की कोशिशों को गंभीरता से लिया गया है। शीर्ष अदालत के जजों ने इसको असंवेदनशील बताते हुए इलाहाबाद अदालत के इस विवादित फ़ैसले पर गंभीर नाराजगी दर्शाई एवं खेद प्रकट किया है, क्योंकि इलाहाबाद अदालत ने कहा था- “नाबालिग लड़की के ब्रेस्ट पकड़ना और उसके पायजामे के नाड़े को तोड़ना रेप नहीं है।” सर्वोच्च अदालत ने यौन अपराधों की गंभीरता को कम करने वाली या पीड़ितों के अनुभवों को कमतर आंकने वाली भाषा एवं सोच का इस्तेमाल न करने की चेतावनी देते हुए उच्चतम अदालत मुख्य जज को भी ऐसा फैसला देने वाले जज से ऐसे संवेदनशील मामलों की सुनवाई न कराने का निर्देश दिया है। सर्वोच्च न्यायालय के जजों ने कहा कि यह फैसला तुरंत नहीं लिया गया, बल्कि सुरक्षित रखने के ४ महीने बाद सुनाया गया। यानी पूरे विचार के बाद फैसला दिया गया है।
नारी अस्मिता को कुचलने की शर्मसार करने वाली निचली अदालतों की ऐसी न्यायिक घटनाएं चिन्ताजनक है। एक बार फिर सर्वोच्च न्यायालय की पहल से समाज में सकारात्मक संदेश दिया गया और महिलाओं की सुरक्षा व अस्तित्व सुनिश्चित करने का सार्थक प्रयास भी किया गया है।
इलाहाबाद उच्च न्यायालय में राममनोहर नारायण मिश्रा ने फ़ैसले में कहा था कि “पीड़िता के स्तन को छूना और पायजामे की डोरी तोड़ने को बलात्कार या बलात्कार की कोशिश के मामले में नहीं गिना जा सकता है।” यह घटना २०२१ में नाबालिग लड़की के साथ हुई थी, जिसमें ३ युवकों ने उसके निजी अंगों को छुआ तथा पायजामे की डोरी तोड़ थी। इसे पास से गुजरने वाले ट्रैक्टर चालकों ने बचाया था। अभियुक्तों पर आईपीसी की धारा ३७६ व पॉक्सो एक्ट की धारा १८ लगाई गई। इसको अभियुक्तों ने इलाहाबाद उच्च अदालत में चुनौती दी थी। ११ साल की इस लड़की के साथ हुई इस घटना के बारे में जस्टिस मिश्रा का निष्कर्ष था कि यह महिला की गरिमा पर आघात का मामला है। इसे दुष्कर्म या दुष्कर्म की कोशिश नहीं कह सकते। इस फैसले के बाद देशभर में गहरा आक्रोश, गुस्सा एवं नाराजगी सामने आई। महिला संगठनों व बौद्धिक वर्गों में तल्ख प्रतिक्रिया देखी गई। सोशल एवं मीडिया ने इसे न्याय की बड़ी विसंगति और अमानवीयता के रूप में प्रस्तुत किया। शीर्ष अदालत के जस्टिस बीआर गवई और जस्टिस एजी मसीह की बेंच ने माना कि फैसला न केवल असंवेदनशील है, बल्कि अमानवीय नजरिया भी दर्शाता है, जिसके चलते इस फैसले पर रोक लगाना आवश्यक हो जाता है। शीर्ष अदालत ने इस मसले पर केंद्र व उत्तर प्रदेश सरकार को भी नोटिस जारी किया है। यह बात किसी के गले नहीं उतर पा रही कि जब ‘पाक्सो’ कानून में स्पष्ट रूप से किसी बच्चे के साथ गलत हरकतों को आपराधिक कृत्य माना गया है, तब कैसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय के संबंधित न्यायाधीश को न्यायिक विवेचन करते समय यह गंभीर दोष नहीं जान पड़ा। महिलाओं के यौन उत्पीड़न से संबंधित कानूनों में तो उन्हें घूरने, गलत इशारे करने, पीछा करने आदि को भी आपराधिक कृत्य माना गया है। फिर उस लड़की के मामले में हर पहलू पर विचार क्यों नहीं किया गया ? इस फैसले की निन्दा, भर्त्सना एवं आलोचना ने देश में एक बार फिर जताया है कि देश ऐसे संवेदनशील मामलों में जागरूक है, किसी भी तरह की लापरवाही एवं कोताही को बर्दाश्त नहीं करेगा। सर्वोच्च न्यायालय ने देखा था कि पीछा करने, छेड़छाड़ करने और उत्पीड़न जैसे अपराधों को सामान्य बनाने वाले रवैये का ‘पीड़ितों पर स्थायी और हानिकारक प्रभाव पड़ता है।’ महिलाओं के सम्मान के प्रति सर्वोच्च न्यायालय संवेदनशील है, यही आशा की किरण है। यहां यह अपेक्षित हो जाता है कि महिला मामलों की सुनवाई करने वाले जजों को इसकी बारीकियों एवं गहनताओं का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए। ऐसे प्रशिक्षित जजों को ही ऐसे मामलों की सुनवाई का मौका दिया जाना चाहिए। यह भी अपेक्षित है कि ऐसे मामलों में कोताही या दुराग्रह बरतने वाले जजों के लिये उचित जांच का भी प्रावधान होना चाहिए।
एक ऐसे ही मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ के फैसले को पलट कर कानून की संवेदनशीलता को संबल दिया था। तब भी सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष २०२१ में कहा था कि किसी बच्चे के यौन अंगों को यौन इरादे से छूना ‘पॉक्सो’ अधिनियम की धारा ७ के तहत यौन हिंसा माना जाएगा। इसी तरह कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भी २०२३ में एक फैसला सुनाते हुए टिप्पणी की थी कि “किशोरियों को अपनी यौन इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए, वे २ मिनट के सुख के लिए समाज की नजरों में गिर जाती हैं।” इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि “जज से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वे फैसला सुनाते समय अपने विचार व्यक्त करें।” तब सर्वोच्च न्यायालय ने यह दिशा-निर्देश भी जारी किए थे कि फैसले किस तरह लिखे जाने चाहिए। इसके अलावा कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले को भी पलट दिया था।
ऐसे फैसले न्यायिक भ्रष्टता, संवेदनहीनता एवं लापरवाही के प्रतीक हैं, जिससे अपराधियों, बलात्कारियों, व्यभिचारियों एवं यौन शोषकों का नारी से खिलवाड़ करने का हौसला बुलन्द होता है।
देश में बढ़ रही यौन-शोषण, दुष्कर्म एवं नारी दुराचार की घटनाओं को देखते हुए न्याय-व्यवस्था को अधिक सशक्त एवं निष्पक्ष बनाए जाने की अपेक्षा है। इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ मामलों में ‘पाक्सो’ और महिला सुरक्षा से जुड़े कानूनों का दुरुपयोग देखा गया है, मगर इसका अर्थ यह नहीं कि इससे किसी को हर महिला के साथ हुए दुर्व्यवहार और यौन शोषण को असंवेदनशील तरीके से देखने की छूट मिल जाती है।
यदि हम सच में नारी के अस्तित्व एवं अस्मिता को सम्मान देना चाहते हैं तो ईमानदार स्वीकारोक्ति और पड़ताल से ही यह संभव होगा।