दिल्ली
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११ जुलाई २००६ को मुम्बई की भीड़भरी स्थानीय ट्रेनों में हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों ने समूचे देश को झकझोर कर रख दिया था। इसने पीड़ित परिवारों के साथ-साथ जन-जन को आहत किया था। ७ जगह पर हुए इन धमाकों में १८७ निर्दाेष लोगों की जान गई और ८२४ से ज्यादा लोग घायल हुए। यह भारत के सबसे बड़े आतंकी हमलों में से एक था, लेकिन इन धमाकों को लेकर बॉम्बे उच्च न्यायालय ने बड़ा फैसला सुनाया। अदालत ने विशेष ‘मकोका’ अदालत की ओर से १२ अभियुक्तों को दी गई सजा को गैरकानूनी करार दिया। इन सभी आरोपियों का बरी हो जाना सवाल के साथ-साथ चिन्ता भी पैदा करता है। इसीलिए करीब १९ साल बाद आए अदालत के इस फैसले को लेकर न केवल कानूनी दायरे में, बल्कि सामाजिक व नैतिक दृष्टिकोण से भी कई सवाल खड़े हो रहे हैं, क्योंकि बॉम्बे उच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद सवाल वहीं घूमकर आ जाता है, कि इतने बड़े नुकसान का दोषी कौन है ?
लम्बी न्यायिक प्रक्रिया एवं जांच के बाद २०१५ में मुम्बई की विशेष ‘मकोका’ अदालत ने १२ अभियुक्तों को दोषी करार दिया, जिसमें से ५ को फांसी और ७ को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई। यह फैसला लगभग ८ वर्षों की सुनवाई, २५० से ज्यादा गवाहों और हजारों पन्नों की गवाही के बाद आया, लेकिन २०२३ और २५ में कुछ संगठनों, मानवाधिकार समूहों और कानूनी विशेषज्ञों ने फैसले पर सवाल उठाए। इसी को आधार बनाकर अदालत में जिस तरह से एक-एक करके सारे सबूतों की धज्जियां उड़ाई गईं, उससे पूरे तंत्र को लेकर संदेह उठता है। जब इतने अहम मामले में इतनी लचर एवं लापरवाहीपूर्ण जांच हुई, तो फिर दूसरे तमाम प्रकरण में क्या होता होगा ? गवाहों के बयान दर्ज करने से सबूत जुटाने तक हर जगह लापरवाही एवं कोताही बरती गई।
“दोषी को सजा मिलनी चाहिए”-यह एक सार्वभौमिक सिद्धांत है, लेकिन “निर्दाेष को दंड न मिले”-यह उससे भी अधिक महत्वपूर्ण नैतिक सिद्धांत है। भारतीय दंड संहिता, मकोका और गैरकानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे सख्त कानून आतंकवाद से निपटने के लिए बनाए गए, लेकिन इनका उपयोग अक्सर राजनीतिक प्रभाव या जनभावनाओं को शांत करने के लिए किया गया है। बम धमाकों के मामले में अनेक ज्वलंत सवाल खड़े हुए हैं कि क्या सभी दोषियों को वास्तव में पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर दोषी ठहराया गया है ? यदि नहीं, तो यह न्याय व्यवस्था के लिए एक गंभीर प्रश्न है। क्या पुलिस या जांच एजेंसियों ने निष्पक्ष जांच की ? कई बार जांच एजेंसियों पर ‘नतीजे पहले, जांच बाद में’ का आरोप लगा है। क्या विशेष अदालतों का गठन निष्पक्ष सुनवाई सुनिश्चित करता है या त्वरित दंड की नीति अपनाता है ? क्या कानून केवल सख्ती का पर्याय बन गया है या उसमें मानवीय संवेदना का स्थान है ? इन प्रश्नों के उत्तर मिलना ही चाहिए।
देश के सामने आतंकवाद के विरुद्ध कठोर कार्रवाई की चुनौती है, तो वहीं न्याय की नैतिकता बनाए रखने की भी जिम्मेदारी है। अगर कानून का इस्तेमाल अन्याय के लिए किया गया, तो आतंकवाद के खिलाफ जंग की नैतिकता ही सवालों में पड़ जाएगी। जो निर्दाेष है, उसे दोषमुक्त करना और जो दोषी है, उसे यथोचित दंड देना-यही कानून का आदर्श उद्देश्य है। बम धमाके जैसी वीभत्स घटनाएं देश के लिए चुनौती हैं, लेकिन इनसे निपटने के नाम पर अगर हम न्याय और कानून के मूलभूत सिद्धांतों से समझौता करते हैं, तो हम एक असुरक्षित और अन्यायपूर्ण समाज की नींव रखेंगे।
एक बड़ा सवाल है कि न्याय व्यवस्था पर भरोसा कैसे बना रहे ? इसके लिए जरूरी है कि जांच प्रक्रिया पारदर्शी हो, आरोपों की पुष्टि डिजिटल और वैज्ञानिक सबूतों से हो। अदालतें किसी दबाव, राजनीतिक प्रभाव या जनभावना से परे निर्णय लें। सभी मामलों में उच्च न्यायालय व सर्वाेच्च न्यायालय में स्वतंत्र और निष्पक्ष पुनरावलोकन की व्यवस्था रहे। सर्वोच्च न्यायालय
ने हाल में एक आरोपी की मौत की सजा को खारिज करते हुए कहा कि “जब दांव पर इंसानी जिंदगी लगी हो और उसकी कीमत खून हो, तो मामले को पूरी ईमानदारी से देखा जाना चाहिए।” दुर्भाग्य से इस जांच में इस भावना का सही से पालन नहीं किया गया। मामले में सभी आरोपियों का बरी हो जाना न केवल न्याय प्रक्रिया पर, बल्कि जांच एजेंसियों पर सवाल पैदा करता है। निचली अदालतों के कामकाज के तरीकों पर भी बड़ा सवालिया निशान है।
यह पहला मामला नहीं, जहां जांच में खामियों, गवाही में कमी और कमजोर सबूतों के चलते ऊपर की अदालतों में प्रकरण खारिज हो गया हो। अब इस प्रकरण को लेकर महाराष्ट्र सरकार ने बड़ा फैसला लिया है। महाराष्ट्र सरकार ने बम धमाके में आरोपियों को निर्दाेष छोड़ने के फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती देते हुए अपील दायर की है। देश उम्मीद करता है कि इस बार तथ्यों को सही ढंग से रखा जाएगा, क्योंकि यह न्याय व्यवस्था पर आम लोगों के यकीन का मामला है।