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बेटियों के लिए मोह बढ़ना अच्छा संकेत

ललित गर्ग

दिल्ली
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दुनियाभर में माता-पिता आमतौर पर अब तक बेटियों की तुलना में बेटों को ज्यादा पसंद करते आ रहे हैं, लेकिन प्राथमिकताओं को लेकर वैश्विक दृष्टिकोण में एक महत्वपूर्ण और बड़ा बदलाव देखने को मिल रहा है। इस बात के संकेत मिल रहे हैं कि अब लड़के की तुलना में लड़कियों को अधिक पसंद किया जाने लगा है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि लड़कियों के प्रति पूर्वाग्रह कम है और संभवतः लड़कों के प्रति पूर्वाग्रह ज्यादा। नए साक्ष्य एवं अध्ययन इस बदलाव का संकेत देते हैं, जो संभवतः बढ़ते एकल परिवार परम्परा, तथाकथित आधुनिक-सुविधावादी जीवनशैली एवं कैरियर से जुड़ी प्राथमिकताओं के चलते लड़कों से जुड़े भय, उपेक्षा एवं उदासीनता को उजागर करते हैं। ‘द इकोनॉमिस्ट’ द्वारा ताजा प्रकाशित रिपोर्टों में लिंग प्राथमिकताओं को लेकर वैश्विक दृष्टिकोण में कुछ ऐसे ही दिलचस्प रुझान सामने आए हैं, जिसमें लड़कों के प्रति सदियों पुराना झुकाव अब कम हो रहा है। रिपोर्ट के अनुसार दुनियाभर में माता-पिता अब भविष्य की सुरक्षा को लेकर लड़कियों अधिक पसंद कर रहे हैं। विकासशील देशों में लड़कों के प्रति पूर्वाग्रह कम हो रहा है, जबकि अमीर देशों में लड़कियों को प्राथमिकता दी जा रही है। इसके अतिरिक्त युवा पुरुषों और महिलाओं के बीच लैंगिक भूमिकाओं को लेकर विचारों में अंतर बढ़ता जा रहा है।
ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट २०२५ में भारत १४८ देशों में १३१वें स्थान पर है, जो पिछले वर्ष की तुलना में २ नीचे है, और इसका लैंगिक समानता स्कोर ६४.१ प्रतिशत है। वर्तमान प्रगति की दर से पूर्ण लैंगिक समानता प्राप्त करने में १३४ वर्ष लगेंगे, जो दर्शाता है कि प्रगति की समग्र दर धीमी है। इन रिपोर्ट से पता चलता है कि दुनिया भर में लैंगिक समानता की दिशा में प्रगति हो रही है, लेकिन अभी भी बहुत कुछ किया जाना बाकी है। भारत के लिए लैंगिक समानता की दिशा में २ पायदान की गिरावट का सबसे बड़ा कारण महिला समानता को लेकर चल रहे आन्दोलन है। भारत की बेटियाँ आज अंतरिक्ष से लेकर खेल के मैदान तक में बुलंदियाँ छू रही हैं। वे परिवार की जिम्मेदारियों को निभाने में उल्लेखनीय भूमिकाओं का निर्वाह कर रही है। सरकार द्वारा ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’, ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ जैसी सराहनीय पहल के जरिए बेटियों को आगे बढ़ने के अवसर मिल रहे हैं।
इक्कीसवीं सदी की चौखट पर खड़ी दुनिया में बड़े व्यापक बदलाव हो रहे हैं। इंसानी रिश्तों की अहमियत को लेकर भी नई सोच पनप रही है। अब अमेरिका, दक्षिण कोरिया, भारत और चीन में लिंग अनुपात सामान्य या यहाँ तक कि बेटी की पसंद के संकेत दिखाने लगा है। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है कि इस बदलाव की असल वजह क्या है ? दरअसल, माता-पिता में यह धारणा बलवती होती जा रही है कि बेटियाँ उनकी ढलती उम्र में धीरे-धीरे अधिक विश्वसनीय देखभाल करने वाली साबित हो सकती हैं। उन्हें परिवार से गहरे तक जुड़े रहने की अधिक संभावना के रूप में देखा जाने लगा है। आज बेटियों को बेटों के मुकाबले बेहतर शैक्षणिक प्रदर्शनकर्ता, परिवार सार-संभालकर्ता, माता-पिता के प्रति जिम्मेदारी निर्वाहकर्ता के रूप में देखा जाने लगा है। तेजी से कामकाजी दुनिया का हिस्सा बनने के कारण वे आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने से अनेक पारिवारिक जिम्मेदारियों के लिए अधिक संवेदनशील है। ऐसा माना जाने लगा है कि बेटियाँ ज्यादा संवेदनशील होती हैं और जीवन के अंतिम पड़ाव में माँ-बाप को सुरक्षा कवच प्रदान कर सकती हैं।
पश्चिमी देशों में गोद लेने और आईवीएफ के आँकड़े दिखाते हैं कि बेटियों को चुनने की दिशा में स्पष्ट झुकाव है। दरअसल, पश्चिमी देशों के एकल परिवारों में बेटे अपनी गृहस्थी बसाकर माँ-बाप को उनके भाग्य पर छोड़ जाते हैं। भारत में भी यही स्थितियाँ देखने को मिल रही है, जबकि सदियों से भारत की समाज-व्यवस्था एवं परिवार-परम्परा पुत्र मोह की ग्रंथि से ग्रस्त रहा है। जिस तरह से लड़के-लड़कियों का अनुपात असंतुलित हो रहा है, उससे ऐसी चिन्ता भी है कि यही स्थिति बनी रही तो लड़कियाँ कहां से लाएंगे ? हालत यह है कि आंध्र प्रदेश में २०१६ में प्रति १ हजार लड़कों के मुकाबले महज ८०६ लड़कियों का जन्म दर्ज किया गया। हालांकि, अब आधिकारिक आँकड़े बता रहे हैं कि देश में शिशु लिंग अनुपात दर में सुधार हुआ है।
जन्म से पहले ही कन्या भ्रूण हत्या की बढ़ती घटनाएं इसी सोच का परिणाम बनी। पिछली सदी में समाज के एक बड़े वर्ग में यह एक विभीषिका ही थी कि परिवार की धुरी होते हुए भी नारी को वह स्थान प्राप्त नहीं था, जिसकी वह अधिकारिणी थी। कितनी विडम्बना है कि देश में हम ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ का नारा बुलन्द करते हुए एक जोरदार मुहिम चला रहे हैं उस देश में लगातार बालिकाओं की संख्या घटने का दाग लगता रहा है। यह दाग ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के संकल्प पर भी है और यह नारी को पूजने की परम्परा पर भी लगा है, लेकिन प्रश्न है कि हम कब बेदाग होंगे ?, लेकिन अब इस संकीर्ण सोच में बदलाव आना एक सुखद संकेत है।
अच्छे भविष्य के लिए हम बेटियों की पढ़ाई से ही सबसे ज्यादा उम्मीदें बांधते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसे नारे हमारे संकल्प को बताते हैं, लेकिन वर्तमान की हकीकत इससे उलट है। इसे बदलने में अभी भी लम्बा सफ़र तय करना होगा। बालिकाएं पढ़ाई में अपने झंडे भले ही गाड़ दें, लेकिन उन्हें आगे बढ़ने से रोकने की क्रूरताएं कई तरह की हैं। विडम्बना देखिए कि सदियों की पूजा के बाद भी कन्याओं को उचित स्थान और सम्मान नहीं दे पाए हैं।
लड़कियों को भावनात्मक लगाव या घरेलू स्थिरता के लिए तो महत्व दिया जा सकता है, लेकिन जरूरी नहीं कि पोषण, शिक्षा या विरासत तक उन्हें समान पहुंच दी जाए। भारतीय समाज में दहेज जैसी सांस्कृतिक प्रथाएं आज भी बेटी के माता-पिता की बड़ी चिंता बनी रहती है। परंपरावादी समाज में यह धारणा बलवती रही है कि बेटियाँ दूसरे परिवार की हैं। यही वजह है कि ग्रामीण और शहरी गरीब समुदायों में लड़कियाँ हाशिए पर रख जाती हैं। इसके बावजूद भारत को लिंग समानता के वैश्विक आंदोलन की किसी भी तरह अनदेखी नहीं करनी चाहिए। रिपोर्ट, वैश्विक लैंगिक अंतर का आकलन और तुलना करने के लिए एक समझने योग्य ढांचा प्रदान करने में उत्प्रेरक का काम करती है। भारत में समान संपत्ति अधिकार लागू करने, दहेज प्रथा की कुरीति को समाप्त करने की दिशा में सख्त कदम उठाने चाहिए। तभी भारतीय समाज में लिंगभेद की मानसिकता खत्म होगी और लैंगिक समानता की दिशा में मार्ग प्रशस्त होगा।