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बैंकिंग प्रणाली कितनी न्याय-संगत ?

गोवर्धन दास बिन्नाणी ‘राजा बाबू’
बीकानेर(राजस्थान)
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हाल ही में उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति धनंजय यशवंत चंद्रचूड़ ने एक आभासी कार्यक्रम में समाज के बौद्धिकों से जो कुछ आह्वान किया,उसका सारांश यही है कि तथ्यपरक आवाज उठाते रहना है। इसके कुछ ही दिन पहले टेलीविजन परिचर्चा के दौरान एक ख्याति प्राप्त कॉर्पोरेट विश्लेषक ने भी बैंकिंग प्रणाली से व्यथित होकर एक टिप्पणी करते हुए अपनी आवाज उठाकर सभी श्रोताओं के ध्यान में ला दी थी। इन दोनों टिप्पणी को दृष्टिगत रखते हुए आम जनता से सम्बन्धित बैंकिंग प्रणाली वाले केवल २ मसलों को सुधार हेतु बयाँ कर रहा हूँ,ताकि बैंकिंग प्रणाली से सम्बन्धित कोई तो अधिकारी इन मसलों पर अपना सकारात्मक सहयोग अवश्य प्रदान करेंगें,क्योंकि यह किसी एक व्यक्ति का नहीं,बल्कि साधारण आम जनता से जुड़े मसले हैं।
यह विडम्बना ही है कि,केन्द्रीय बैंक यानि रिजर्व बैंक में सभी पदाधिकारी चाहे वो अधिकारी हों या निदेशक सभी की विद्वता में कहीं भी किसी भी प्रकार की कमी नहीं है। फिर भी कुछ ऐसे मसले हैं,जिस पर बार-बार अवगत कराने के बावजूद वे (बैंक)लोग किसी भी प्रकार का सुधार करते नजर नहीं आ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर केवल २ मसले आपके सामने रखता हूँ-

हम सभी व्यक्तिगत ऋण बैंकों से लेते हैं चाहे वो मकान बाबत हो या फिर वाहन वगैरह के लिए,तो इससे जुड़ा पहला तथ्य यह कि,बैंक जब हमें किसी भी प्रकार का ऋण देता है तो हमसे उस पर ब्याज लेता है लेकिन एक ढेला भी खर्चा नहीं करता है। ऐसा क्यों,इसको समझने की आवश्यकता है। जैसे ही आप ऋण का आवेदन करते हैं तो बैंक आपको जो प्रक्रिया बताता है,उस प्रक्रिया को पूरा करने में २-३ तरह के खर्चे होते हैं। उस प्रक्रिया व खर्चों के बाद जब सभी तरह से बैंक संतुष्ट हो जाएगा,तभी ऋण देगा। यह तो सही है कि ऋण आवेदन के साथ यदि बैंक खर्चा वहन करने लगे तो फालतू ऋण आवेदन को रोकना मुश्किल होगा,लेकिन ऋण दे देने के बाद उन खर्चों में से बैंक कुछ भी आपको वापस नहीं देगा।यहाँ तक कि एक ढेला भी साझा नहीं करता है,जबकि यदि हमें ऋण की आवश्यकता है तो उतनी ही बैंक को ब्याज आय की भी आवश्यकता है। ऐसा क्यों ?

-अब समझिए दूसरे तथ्य को-जैसे ही ऋण लिए हुए २ साल हो जाएंगे,बैंक आपकी सहमति लिए बिना आपके खाते से कुछ रकम (जैसे २५० रुपए) बतौर निरीक्षण शुल्क काट लेगा,जबकि अचल संपत्ति के भौतिक निपटान की संभावना रहती ही नहीं है,और रेहन सही ढंग से किए जाने के बाद उसमें किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ की भी संभावना का भी कोई मौका बचता कहाँ है। इसके अलावा अचल संपत्ति के बाजार मूल्य का बीमा कराए बिना तो बैंक ऋण देता ही नहीं है। इसलिए इन सबके बावजूद भी निरीक्षण आवश्यक है तो यह शुल्क बैंक को स्वयं वहन करना चाहिए क्योंकि,वे हमसे ब्याज कमा रहे हैं।
यहाँ एक बात ध्यान देने लायक यह है कि अमूमन किसी भी प्रकार का निरीक्षण होता ही नही है, क्योंकि कोई निरीक्षण करने आएगा तो पहले ग्राहक को सूचना देगा,यानि समय निर्धारित कर आएगा। निरीक्षण पश्चात जो भी विवरण तैयार करेगा,उस पर मकान- वाहन(या कुछ और )उसके मालिक के हस्ताक्षर तो लेगा न,और यदि बिना बताए निरीक्षण किया है तो आवश्यकता पड़ने पर उस समय का वीडियो दिखाएगा,जबकि ऐसा कुछ होता ही नहीं है। इसे केवल एक आय का जरिया बना लिया गया है,जो सर्वथा अनुचित है ।
-अब ध्यान तीसरे तथ्य पर-क्या यह बैंक का दायित्व नहीं है कि,हर साल ब्याज व मूलधन कितना मिला,उसका हस्ताक्षरित प्रमाण-पत्र बिना मांगे ग्राहक को उसके पते पर भेज दे और समर्थन में पूरे साल का विवरण भी। यह हम सभी जानते हैं कि यह ब्याज व मूलधन वाला प्रमाण-पत्र आयकर के लिए आवश्यक होता है,जबकि हालत यह है कि इन दस्तावेजों के लिए बैंक के चक्कर लगाने पड़ते हैं। और घर वाली शाखा को छोड़ दूसरी शाखा वाले एक बार तो स्पष्ट मना कर देते हैं,अथवा अगर देंगे तो भी पूरे साल वाले ऋण खाते का विवरण तो दे भी देंगे,पर ब्याज व मूलधन वाला प्रमाण-पत्र तो जहाँ से ऋण लिया,वहीं से लेने को बोल देंगे,जबकि आज के इस अंकीयकरण (डिजिटल)समय में क्या यह बैंकिंग सिद्धांत के खिलाफ नहीं है ? इसके अलावा बैंकिंग में ‘सेवा दृष्टिकोण’ क्यों गायब होता जा रहा है ? सवाल यह है कि,इन सब पर नियामक ध्यान देकर व्यवस्था को कब दुरुस्त करेगा ? इस बैंकिंग प्रणाली से जब एक नामी-गिरामी विश्लेषक परेशान हो सकता है,तो हम-आप की परेशानी का तो कोई ठिकाना ही नहीं है।

यह हम सभी अच्छी तरह जानते हैं कि अभी भी साधारण जनता विशेषकर वरिष्ठजन व ग्रामीण जनता नगद लेन-देन ही पसंद करती है। उसका मुख्य कारण एक तो इंटरनेट की समस्या व दूसरा महत्वपूर्ण बैंक खर्चे हैं। उदाहरण के तौर पर यदि विद्यालय में शुल्क देना हो तो बैंकिंग नेट के माध्यम से देने पर जो भी खर्चा है,वो पढ़ाई शुल्क अदा करने वाले से बैंक वाले स्वतः ही काट लेते हैं,जो अखरता है। वास्तव में हकीकत यह है कि,बैंक व विद्यालय दोनों के खर्चों में बचत होनी शुरू हो गई है। कारण न तो बैंक को अपने यहाँ पर निश्चित तारीख में अलग से अधिकारी की ड्यूटी लगानी पड़ती है,न ही अतिरिक्त पटल (काउन्टर)की आवश्यकता रह गई है। ऐसे ही विद्यालय में जहाँ शुल्क जमा होता था,वहाँ भी पटल की आवश्यकता समाप्त होने से इस तरह की बचत तो हो ही रही है,साथ ही शुल्क जमा वाली पुस्तिका की भी आवश्यकता समाप्त होने से उस पर लगने वाला खर्चा बचने लग गया है,जबकि पहले वाले प्रणाली में शुल्क जमा करने वाले को किसी भी प्रकार का खर्चा लगता ही नहीं था। इस कारण यह स्पष्ट है कि नगदी से सम्बन्धित लागत एकदम समाप्त हो गई है। अब सॉफ्टवेयर सब तरह के आँकड़े आपको उपलब्ध करवा रहा है,यानि मानव श्रम की भी सब बचत हो रही है। इन सबके बावजूद अभिभावकों से जो शुल्क वसूला जा रहा है,उसमें विद्यालय प्रबंधन के साथ विद्यालय वाला बैंक दोषी नहीं हैं क्या…? ऐसा लगता है कि,दोनों की रजामंदी से ही यह शुल्क जबरन वसूला जा रहा है,जो न्यायसंगत नहीं है। ध्यान देने वाली बात यह है कि,अभिभावक इस मुद्दे को डर के मारे उठा नहीं रहे हैं। यदि आवाज उठाएंगे तो उनके बच्चों को बेवजह विद्यालय में परेशान करना प्रारम्भ कर देंगे।

इन सभी कारणों पर ध्यान देते हुए नियामक का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि ऐसे शुल्कों की अनुमति देते समय शुल्कों की तर्कसंगतता और खर्च किए गए खर्च को सत्यापित करना सुनिश्चित करें। अन्यथा भविष्य में बैंक प्रश्नों के उत्तर (मौखिक-लिखित) के लिए शुल्क लेना शुरू कर देंगे।
इस तरह बैंक से सम्बन्धित और भी अनेक मसले हैं,जहाँ केन्द्रीय बैंक यदि इच्छाशक्ति दिखाए तो आम जनता को राहत दी जा सकती है। उपरोक्त समस्या भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ध्यान में लाए जाने की आवश्यकता महसूस हो रही है। उनके दखल से सुधार निश्चित तौर पर होगा,क्योंकि वे विवेकशील राजनेता हैं।

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