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मनाभाव बनाम आजादी का अमृत महोत्सव!

डॉ.राम कुमार झा ‘निकुंज’
बेंगलुरु (कर्नाटक)

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आज़ादी का पचहत्तरवाॅं वर्ष और भारतीय सार्वभौमिक आज़ाद गणतंत्र भारत का अमृतोत्सव की समीक्षा वस्तुत: लेखनी को पशोपेश में डाल रही है। लाखों लोगों की ब्रिटिश अत्याचारी पर-तंत्रता से मुक्ति होने के लिए दिए गए बलिदानों, कोटि- कोटि जनों कै सैकड़ों वर्षों का प्रताड़ित संघर्ष, यातनाओं, कारा-वासों, वेदना-संवेदनाओं की सहनशीलता से फलीभूत प्राप्त स्वाधीनता का पचहत्तरवाॅं वर्ष क्या हमें वास्तविक सर्वहित सर्व सुख-साधनों से सम्पन्न, आत्मनिर्भर, समता और स्वतंत्रता के मूल अधिकारों और राष्ट्रीय सार्वजनिक सार्वकालिक और सार्वजनिक कर्तव्यों के परिप्रेक्ष्य में सफलता को प्रदान किया है। क्या दीनार्तों तृषार्तों, पददलितों, शोषितों, जाति-धर्म के विघटन- कारी तत्वों से हमें छुटकारा दिला पाया है, क्या पूर्वजों के महा-पराक्रमी शौर्य व साधना से प्राप्त स्वाधीनता प्राप्त राष्ट्र के चतुर्मुखी विकास, सार्वजानिक उपलब्ध शिक्षा और न्याय सर्वार्थ मिल पाया है, क्या शहीदों के खून से रक्तिम विजयी आज़ाद भारत के प्रति लोगों के अन्तर्मन में प्रेम, भक्ति और समर्पण का ज़ज्बा जग पाया है। मेरी दृष्टि में हमें यह सफलता पूर्णतः नहीं मिल पाई है। हम अपनी बलिदानी धरोहर रूप आज़ादी को सुरक्षित रखने, उसकी दशा दिशा बदलने और सर्वतोन्मुखी विकास करने में सफल नहीं हो पाए हैं, क्योंकि अभी भी भारत की ८० प्रतिशत जनता गरीबी रेखा के नीचे प्रशासन द्वारा प्रदत्त राशन- राहतों पर टिकी है। सड़कों के किनारे डिवाइडरों, सड़क सेतुओं के ऊपर और नीचे खुले आसमान की छत में भयंकर लू तापित गर्मी, विप्लव बरसात, और हाड़-मांसों को कंपकंपाने वाली ठिठुरन में अहर्निश रहने को मज़बूर है। राजनीतिक दल के नेता लोग ग्राम-पंचायत से लेकर संसद तक आलीशान शान-ए-शौकत, अट्टालिकाओं, सुख- सुविधाओं और जनता की मेहनत की कमाई को लूटने में लगे हुए हैं। नारियों के प्रति सम्मान, उनकी शिक्षा, और उनकी निर्भयता अभी भी अधूरी ही है। मात्र ७५ वर्ष की लघु अवधि में देश हिंसा, दंगा, नफ़रतों और आतंकियों का शरण स्थल बन सा गया है। सारे रिश्ते, सम्बन्ध, अनुबन्ध, अपनापन आज भौतिक चाहत की आग में जल रहे हैं। देश की सीमाओं की रात-दिन सेवा और रक्षा करने वाले और अपने परिवार की चिन्ता किए बिना हमें शान्ति, सुकून और सुखमय नींद को उपलब्ध कराने वाले परमवीर सैनिकों के बलिदानों पर प्रश्न-चिन्ह लगाए जाते हों, देश विरोधी नारे लगाए जाते हों, दुश्मन देशों के झंडे लहराए जाते हों, अपने देश के प्रधान को गालियाँ दी जाती हों,अपनी ही संस्कृतियों, प्रथाओं, सभ्यताओं, भाषाओं, देवी- देवताओं, मानदंडों, धर्मग्रन्थों, न्याय व्यवस्था, समरसता और सद्भावना, सत्य, त्याग, अहिंसा को नकारा जाता हो, यह कैसी आज़ादी हमें मिली है जो परमार्थ परक पुरुषार्थ से हमें विरमित कर रही हो। अपने सर्वस्व न्यौछावर करने वाले माता-पिता को अनाथालय या खुली सड़कों पर लावारिस की तरह सन्तानें छोड़ दें, बेटियाँ बलात्कार की शिकार हों, धनाभाव, मनाभाव, दया, क्षमा, करुणा, उदारता, सौहार्द्रता, सहनशीलता के बिना संवेदनाशून्यता फुफकार रही हो, फिर कैसी स्वाधीनता और कैसा अमृतोत्सव मनाऍं ? १५ अगस्त और गणतंत्र दिवस के दिन केवल तिरंगा ध्वजा लहराने नाच-गानों और मिठाई बाँटने से वास्तविक आज़ादी अमृतोत्सव नहीं हो सकता, जब तक कि मानवीय मूल्यों और नैतिकता पथ पर बढ़ते हुए देश और मातृभूमि के प्रति अगाध भक्ति प्रीति और अनुशासित सर्वोन्नति, चहुँ ओर ख़ुशियाँ, और सबके मुख पर संतोष जनक मुस्कान न हो।

परिचय-डॉ.राम कुमार झा का साहित्यिक उपनाम ‘निकुंज’ है। १४ जुलाई १९६६ को दरभंगा में जन्मे डॉ. झा का वर्तमान निवास बेंगलुरु (कर्नाटक)में,जबकि स्थाई पता-दिल्ली स्थित एन.सी.आर.(गाज़ियाबाद)है। हिन्दी,संस्कृत,अंग्रेजी,मैथिली,बंगला, नेपाली,असमिया,भोजपुरी एवं डोगरी आदि भाषाओं का ज्ञान रखने वाले श्री झा का संबंध शहर लोनी(गाजि़याबाद उत्तर प्रदेश)से है। शिक्षा एम.ए.(हिन्दी, संस्कृत,इतिहास),बी.एड.,एल.एल.बी., पीएच-डी. और जे.आर.एफ. है। आपका कार्यक्षेत्र-वरिष्ठ अध्यापक (मल्लेश्वरम्,बेंगलूरु) का है। सामाजिक गतिविधि के अंतर्गत आप हिंंदी भाषा के प्रसार-प्रचार में ५० से अधिक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक सामाजिक सांस्कृतिक संस्थाओं से जुड़कर सक्रिय हैं। लेखन विधा-मुक्तक,छन्दबद्ध काव्य,कथा,गीत,लेख ,ग़ज़ल और समालोचना है। प्रकाशन में डॉ.झा के खाते में काव्य संग्रह,दोहा मुक्तावली,कराहती संवेदनाएँ(शीघ्र ही)प्रस्तावित हैं,तो संस्कृत में महाभारते अंतर्राष्ट्रीय-सम्बन्धः कूटनीतिश्च(समालोचनात्मक ग्रन्थ) एवं सूक्ति-नवनीतम् भी आने वाली है। विभिन्न अखबारों में भी आपकी रचनाएँ प्रकाशित हैं। विशेष उपलब्धि-साहित्यिक संस्था का व्यवस्थापक सदस्य,मानद कवि से अलंकृत और एक संस्था का पूर्व महासचिव होना है। इनकी लेखनी का उद्देश्य-हिन्दी साहित्य का विशेषकर अहिन्दी भाषा भाषियों में लेखन माध्यम से प्रचार-प्रसार सह सेवा करना है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-महाप्राण सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ है। प्रेरणा पुंज- वैयाकरण झा(सह कवि स्व.पं. शिवशंकर झा)और डॉ.भगवतीचरण मिश्र है। आपकी विशेषज्ञता दोहा लेखन,मुक्तक काव्य और समालोचन सह रंगकर्मी की है। देश और हिन्दी भाषा के प्रति आपके विचार(दोहा)-
स्वभाषा सम्मान बढ़े,देश-भक्ति अभिमान।
जिसने दी है जिंदगी,बढ़ा शान दूँ जान॥ 
ऋण चुका मैं धन्य बनूँ,जो दी भाषा ज्ञान।
हिन्दी मेरी रूह है,जो भारत पहचान॥

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