डॉ. मुकेश ‘असीमित’
गंगापुर सिटी (राजस्थान)
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श्रद्धालु स्मृति…
श्रद्धा के महासमुद्र में डूबते प्राण गंगा किनारे,
अलसुबह ठिठुरते नंगे पाँव
श्रद्धा के विशाल पहाड़ तले दबे,
कुछ नाम, कुछ साँसें, कुछ धड़कनें।
भीड़ के समंदर में आस्था की एक लहर उठी,
हजारों भुजाएँ पुण्य लाभ की आकांक्षा में फैलीं
पर लहर जब लौटी,
तो कुछ मुट्ठियाँ खाली रह गईं।
ये भगदड़ या मृत्यु का विदीर्ण कोलाहल,
एक शरीर गिरा-
कोई नहीं झुका उठाने को,
दूसरा गिरा-
उसके ऊपर तीसरी आस्था चढ़ी,
श्रद्धा में डूबी भीड़ ने
अपनों को ठोकरों में बदल दिया।
आँकड़े गिनते रहे ‘तीस’,
पर ३ करोड़ की भीड़ में तीस की मौत
क्या मौत मानी जाती है…?
माँओं की गोदें ख़ाली थीं,
पिता के कंधे अपने ही बोझ से झुके थे
श्रद्धा से अधिक भारी आज उनके आँसू थे।
अख़बारों ने छापा-
‘हादसे से नहीं टूटा हौसला!’
आगे-‘साढ़े सात करोड़ ने अमृत स्नान किया!’
नीचे कहीं-
‘तीस श्रद्धालु काल के गाल में समाए!’
मुख्यमंत्री जी भावुक हुए,
शाम को आँखें नम कर दीं,
सुबह आँसू का समय नहीं था-
सत्ता के जल में लहरें स्थिर रखनी थीं,
सत्ता की नाव भावशून्य सागर में चलती है
बिना हिचकोले खाए।
जाँच कमिटी बैठेगी-
सत्य का अंतिम संस्कार करने ३ लोग बैठेंगे,
तीन महीनों तक सोचेंगे…
तीस मौतों की जिम्मेदारी शायद ठहरा दी जाए-
घोषित हो जाएगा मुआवजा, सरकारी खजाने से…
लेकिन क्या श्रद्धा का कोई मुआवज़ा होता है ?
वीआईपी स्नान में चहकते चेहरे,
आमजन की चीखें नक्कारखाने में खो गईं।
श्रद्धा अगर इंसान को कुचल दे,
तो वह पुण्य नहीं, पाप बन जाती है।
कुंभ फिर आएगा,
पर वे चेहरे नहीं लौटेंगे॥