कुल पृष्ठ दर्शन : 49

महिलाएँ कर रहीं दहेज कानून का दुरुपयोग, सख़्ती हो

सपना सी.पी. साहू ‘स्वप्निल’
इंदौर (मध्यप्रदेश )
********************************************

हमारे देश में कानून व्यवस्था बहुत लचर है। वह इतनी विसंगतियों से भरी है कि एक बार जो व्यक्ति कानून के पंजे में जकड़ा जाए तो उसका आर्थिक, मानसिक, और दैहिक शोषण होगा ही होगा, यह तय है। हमारे देश के कानून में औरत और पुरुष के लिए भी असमानताएं स्पष्ट दृष्टिगोचर है। इन सब बातों की पुष्टि हाल ही में घटित अतुल सुभाष के प्रकरण से होती है।

अतुल सुभाष (बैंगलोर निवासी) महिंद्रा ऑटो में एआई अभियंता के रूप में कार्यरत थे। उन्होंने अपने आपको खुद पर लगे दहेज प्रताड़ना के प्रकरण में औरतों को मिले अधिकार और देश की कानून व्यवस्था के आगे इतना तुच्छ पाया कि जीवन जीने से अधिक आत्महनन को सरल समझा। उन्होंने खुदकुशी से पहले २४ पन्नों का पत्र लिखा और ९० मिनिट की आप-बीती वीडियो बनाई। वह खुद अपनी मृत्यु की हफ्तों की तैयारी करते हैं। यहाँ आप और हम सोच सकते हैं कि वह व्यक्ति अपने को मिल रही मानसिक यातनाओं से किस कदर टूटा हुआ पा रहा होगा।
अतुल सुभाष की शादी निकिता सिंघानिया (जौनपुर, उ.प्र.) से हुई थी। वह स्वयं पढ़ी-लिखी होकर एसेंचर संस्थान में नौकरी करती थी। दोनों के जीवन में आपसी व्यवहार के न मिलने से अनबन इतनी बढ़ गई, कि पत्नी ने घर छोड़ दिया और जौनपुर रहने लगी। भारतीय कानून में महिला को मिले अधिकार के हथियार का उपयोग करते हुए उसने अतुल पर दहेज का मुकदमा दर्ज करवा दिया, साथ में अतुल के परिवार वालों को भी सम्मिलित अपराधी बनवा दिया। यहाँ सोचनीय है, कि विवाह की अनबन तो पति-पत्नी की थी तो आखिर क्यों लड़की के कहने पर दहेज प्रताड़ना का प्रकरण पूरे परिवार पर लगता है!
दूसरी बात, अतुल बैंगलोर के रहवासी थे और उनका प्रकरण जौनपुर की अदालत में चल रहा था, तो क्यों औरत को यह अधिकार है कि वह चाहे जहाँ बैठ दहेज का प्रकरण दायर करवा सकती है ? अतुल ने अपने आत्महत्या पत्र में लिखा भी है कि वह २४ महीने में १२० बार सुनवाई की तारीखों पर जौनपुर गए थे। यहाँ समझ सकते हैं कि न्यायालय द्वारा कैसे तारीख पर तारीख देकर प्रकरण को टाला जाता है, साथ ही एक कामकाजी आदमी का कितना समय व अर्थ, व्यर्थ चला जाता है। वह आगे-आगे की बढ़ती तारीखें भी इस डर से लेने गया होगा, कि चाहे कानून सुनवाई में देर पर देर करे, किन्तु उपस्थित न होने पर अपराधी जरूर सिद्ध कर दिया जाएगा। अतुल ने इस तकनीकी युग में ‘वीडियो कॉन्फ्रेसिंग’ से जरिए पेशी की मांग भी की, जो ‘यथास्थिति’ ही रखी गई। मतलब, यहाँ भी हमारे देश के कानून ने उस पुरुष की मदद नहीं की।
पत्र में वह आगे बताते हैं कि अदालत के आदेश के बाद वह अपनी कार्यरत पत्नी को ४० हजार रुपए महीना दे रहे थे, जो उनके 4 वर्षीय बच्चे की परवरिश के लिए तय था, पर उस बच्चे की शक्ल पिछले ३ साल से अतुल को दिखाई भी नहीं गई थी। यहाँ सवाल है-क्या देश के कानून में पिता के अधिकारों का ध्यान नहीं रखा जाना चाहिए ?
४० हजार ₹ में पत्नी अपने बच्चे की परवरिश नहीं कर पा रही थी, इसलिए रकम को बढ़वाने के लिए १ लाख ₹ भरण-पोषण की अर्जी न्यायालय में डाली हुई थी। सोचने की बात है, कि क्या ४ साल के बच्चे का खर्च इतना भी होता है ? निकिता, अतुल से प्रकरण खत्म करने के एवज में ३ करोड़ ₹ चाहती थी। यहाँ क्या न्यायधीश को अर्जी डालने वाली औरत का लालच नहीं दिखा ? यहाँ स्पष्ट पता चलता है कि निकिता का उद्देश्य अतुल को अधिक से अधिक परेशान करने का बन गया था। वह कानून में मिले अधिकार को हथियार बनाकर उसकी जेब पर डाका डालने की मंशा रखती थी। आखिर क्यों न्यायाधीश और वकील ऐसे समय में नैतिकता को भूल जाते हैं और फरियादी को सही सलाह नहीं देते ?
इतना ही नहीं, अतुल ने न्यायालय की एक बहस को बताते हुए लिखा कि जब उन्होंने जज साहिबा से कहा कि “एनसीआरबी के आँकड़े बताते हैं कि देश में फर्जी दहेज मुकदमों की वजह से प्रतिवर्ष कितने आदमी आत्महत्या कर लेते हैं तो उनकी पत्नी ने कहा कि “तुम भी क्यों नहीं कर लेते ?”
इस पर जज साहिबा हँसी और उनकी पत्नी को बाहर जाने को बोल दिया। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या महिला न्यायाधीश को निकिता का तेज-तरार्रपन नहीं दिखा होगा ? यहाँ महिला न्यायाधीश ने एक महिला का साथ दिया, पर उसे फटकार नहीं लगाई।
अतुल ने प्रकरण बंद करने की मांग न्यायाधीश साहिबा से की, लेकिन न्यायाधीश साहिबा ३ करोड़ देने का कहती है। जब अतुल इतने पैसे न देने की बात कहता है तो उसे ५ लाख ₹ में मामला समाप्त करवाने का कहती हैं। क्या न्यायाधीश का रिश्वत की मांग करना जायज था ? आखिर कहाँ जा रहा है हमारे देश का कानून ? इससे बढ़कर अतुल ने लिखा है कि “वह अपने ही दुश्मनों को, खुद के ही विरूद्ध कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए प्रतिमाह पैसे दे रहा है। वह इसे अब बिल्कुल नहीं सह पा रहा है।” हम और आप यह मनोस्थिति समझ पा रहे हैं, पर फेमनिज्म़ की शिकार पत्नी, न्यायाधीश नहीं समझ पाई। वह कानून की आड़ में एक आदमी को शोषित करते रहे। ऐसी स्थिति से हार मानकर ही अतुल सुभाष ने अपने आत्महनन का प्रण किया, जो अपने ही अंत का प्रण था।
उसने अपने अंत से पहले एक व्यवस्थित सूची बनाई, कि बारी- बारी से उसे आत्महत्या को कैसे अंजाम देना है। किस कागजात पर हस्ताक्षर करना है, किसे-किसे मेल करने हैं, राष्ट्रपति को चिट्ठी भेजनी है, स्नान करना है, १०१ बार ॐ नमः शिवाय का जाप करना है, दरवाजे बंद करना है, पर खिड़कियाँ खुली रखनी है, ताकि कोई देख भी ले तो मरने से विचलित न कर सके। उसने अलग-अलग फोल्डर बनाकर, कहाँ-क्या अपलोड करना है, कहाँ लिंक देनी है, सोशल मीडिया पर वीडियो बनाकर अपलोड करना है, जैसी सब चीजें अतुल सुभाष ने सूचीबद्ध की थी। अंत में एक कविता लिखी और बाद में उस सूची के जरिए एक के बाद एक काम निपटा लिए और अंत कर लिया खुद का… सब शांत, सब समाप्त।
यहाँ अतुल सुभाष की आत्महत्या ने ५४ साल में महिलाओं को सम्मान देने के लिए बनाए गए दहेज प्रताड़ना कानून की एकतरफा खामियों को उजागर कर दिया है। आज भारत में ऐसे, प्रकरणों में फंसे पुरुष आर्थिक, मानसिक, शारीरिक रूप से प्रताड़ित हो रहे हैं, पर इस कानून का दुरुपयोग कर रही लगभग ८० प्रतिशत अति चालाक महिलाएँ बाज नहीं आ रही। यह महिलाओं द्वारा मचाए जा रहे घरेलू आतंक की श्रेणी में आना ही चाहिए। इस दहेज प्रताड़ना विरोधी कानून में पुरुष व्याभिचारी हो, जरूरी तो नहीं। स्त्री भी गलत हो सकती है, जिसकी निष्पक्ष जाँच करके ही ऐसे मामले दर्ज होने चाहिए। इस कानून में स्त्री पक्ष के साथ पुलिस, वकील और न्यायाधीश एक ऐसा आतंकित करने वाला जाल बिछाते हैं, जिसमें फंसा पुरुष और उसका परिवार पूरी तरह अपनी प्रतिष्ठा धूमिल पाता है। यह अब बहुत विचारणीय होना चाहिए।
इतना पढ़ा-लिखा अभियंता अतुल सुभाष खुद के ऊपर ९ फर्जी मुकदमों से हार गया। देश में कुछ समय बाद इस मामले को भुला दिया जाएगा, लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। हमें इस मामले को कानून दुरूस्त करने की दिशा में दीपक समझना चाहिए।

दरअसल, अब दहेज कानून की विसंगतियों को दूर किया जाना अति आवश्यक हो चुका है, जिससे पुलिस-वकीलों के पास जाने से पहले ऐसी महिलाएँ खुद मनन करने वाली बनेंगी। कहने का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि वास्तविक रूप से शोषित महिलाओं को न्याय न मिले, पर कानून का दुरूपयोग करने वाली, तेज-तर्रार, गलत मंशा रखने वाली महिलाओं के खिलाफ भी कड़ी से कड़ी कार्यवाही होना जरूरी है। अगर ऐसा होता है तो दहेज कानून का मखौल बनाकर रख देने वालों को सबक मिलेगा। ऐसी महिलाएँ अकारण पुरुषों का जीवन बर्बाद नहीं कर पाएंगी और फिर दहेज प्रकरण में फंसा पुरुष अतुल सुभाष नहीं बनेगा। जब बार-बार सर्वोच्च न्यायालय भी बोल रहा है कि “दहेज विरोधी कानून परेशान करने का हथियार बन रहा” तो इस प्रकरण से कोई नया फैसला लिखा जाना आवश्यक हो गया है।