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मानक और सुरक्षा उपायों की कोताही क्यों ?

ललित गर्ग

दिल्ली
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२ राज्यों (राजस्थान और मध्यप्रदेश) में कफ सिरप से जुड़ी बच्चों की मौत की घटनाएं देश की दवा नियामक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं। यह केवल एक चिकित्सा त्रुटि या आकस्मिक दुर्घटना नहीं, बल्कि उस तंत्र की विफलता का प्रतीक है जिस पर जनता अपने जीवन की रक्षा के लिए भरोसा करती है। दवा जैसी जीवनदायी वस्तु में भी जब लालच, लापरवाही या भ्रष्टाचार घुसपैठ कर जाते हैं, तो अमृत भी विष बन जाता है। बच्चों की मासूम जानें जब घटिया या मिलावटी दवा के कारण चली जाती हैं, तो यह पूरे समाज की नैतिकता एवं विश्वास की मृत्यु होती है। सिरप में पाए गए विषैले तत्व (डाइएथिलीन ग्लाइकॉल या एथिलीन ग्लाइकॉल) पहले भी कई देशों में सैकड़ों बच्चों की जान ले चुके हैं। फिर भी बार-बार ऐसे हादसे होना इस बात का प्रमाण है, कि भारत की दवा नियामक व्यवस्था में संरचनात्मक खामियाँ बनी हुई हैं। सवाल है कि पिछली गलतियों से क्या सीखा गया ? भारत में बने कफ सिरप पहले भी सवालों में आ चुके हैं। २०२२ में गाम्बिया में कई बच्चों की मौत के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने एक भारतीय कंपनी के कफ सिरप को लेकर चेतावनी जारी की थी। इसके बाद भी कई और जगहों से इसी तरह की शिकायत आई।
दवाओं के उत्पादन में भारत दुनिया में तीसरे क्रम पर है। करीब २०० देशों में यहाँ से दवाएं निर्यात होती हैं और जेनेरिक दवाएं सबसे ज्यादा यहीं बनती हैं। इन उपलब्धियों के बीच कफ सिरप की वजह से बच्चों की मौत शर्मनाक एवं त्रासदीपूर्ण है। स्पष्ट है कि दवा के क्षेत्र में जिस तरह की निगरानी, मानक और सुरक्षा उपायों की जरूरत है, उसमें कोताही बरती जा रही है। दवा के रूप में जहर धड़ल्ले से मासूमों की मौत का कारण बन रहा है। इस घटना के सामने आने के बाद कार्रवाई का दौर भले ही जारी है, दवाएं वापस ली गई हैं, प्रकरण दर्ज हुआ है और नेशनल रेगुलेटर अथॉरिटी ने कई राज्यों में जांच की है, पर साफ है कि दवा निर्माण की प्रक्रिया में कच्चे माल के स्रोत से लेकर तैयार उत्पाद की गुणवत्ता जाँच तक हर स्तर पर लापरवाही व्याप्त है। कई कंपनियाँ लागत घटाने के लिए औद्योगिक स्तर के रसायनों का प्रयोग कर लेती हैं, जो मानव उपभोग के लिए निषिद्ध हैं। वहीं निरीक्षण और परीक्षण की सरकारी व्यवस्था न केवल कमज़ोर है, बल्कि अक्सर प्रभावशाली कंपनियों के दबाव में निष्क्रिय भी हो जाती है। राज्य और केंद्र स्तर के दवा-नियामक विभागों में पर्याप्त संसाधन और तकनीकी क्षमता का अभाव है, जिससे समय पर निगरानी और नमूना परीक्षण संभव नहीं हो पाता। जब निरीक्षण औपचारिकता बन जाए और प्रतिवेदन खरीद-फरोख्त की वस्तु बन जाएं, तब ऐसी त्रासदियाँ स्वाभाविक हैं। तमिलनाडु की दवा कंपनी श्रीसन फार्मास्युटिकल्स के ‘कोल्ड्रिफ’ कफ सिरप के नमूने में ४८.६ प्रतिशत डाई एथिलीन ग्लाइकॉल मिला है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार इसकी मात्रा ०.१० प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। यह एक खतरनाक औद्योगिक रसायन है, जिसका इस्तेमाल गाड़ियों और मशीनों में होता है। इसकी वजह से पीड़ित बच्चों की किडनी खराब हो गई।
इन घटनाओं ने न केवल स्वास्थ्य प्रशासन की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाई है, बल्कि भारत की वैश्विक छवि पर भी धब्बा लगा है। दुनिया के सबसे बड़े जेनेरिक दवा उत्पादक देश के रूप में भारत को यह मानना होगा कि केवल उत्पादन की मात्रा नहीं, बल्कि गुणवत्ता ही हमारी असली ताकत होनी चाहिए। इस संकट का सबसे पीड़ादायक पहलू यह है कि इसका शिकार वे मासूम बच्चे बने, जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अभी विकसित नहीं हुई थी और जिनकी रक्षा का उत्तरदायित्व समाज और राज्य पर है। इन मौतों की नैतिक जिम्मेदारी केवल दोषी कंपनियों पर नहीं, बल्कि उस पूरे तंत्र पर है जिसने नियमन और नैतिकता की आँखें मूंद लीं। दवाओं में मिलावट या गलत प्रमाण-पत्र देना कोई साधारण अपराध नहीं, बल्कि मानवता के खिलाफ घोर अपराध है। इस पर कड़े से कड़ा दंड होना चाहिए, ताकि भविष्य में कोई भी निर्माता या अधिकारी ऐसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचे।

सीडीएसीओ ने इस साल अप्रैल की रिपोर्ट में बताया था कि ज्यादातर छोटी और मझोली कंपनियों की दवाएं जांच में तयशुदा मानक से कमतर पाई गईं। इस जांच में ६८ प्रतिशत एमएसएमई असफल हो गई थीं। इससे पहले केंद्रीय एजेंसी ने २०२३ में जांच की, तब भी ६५ प्रतिशत कंपनियों की दवाएं निम्न स्तर पर मिली थीं। प्रश्न है कि यह तथ्य सामने आने के बाद आखिर सरकार ने क्या सोच कर इन दवाओं को बाजार में विक्रय क्यों जारी रहने दिया ? क्यों ऐसे हादसे होने दिए जाते रहे ? यह आवश्यक है कि दवाओं के मानक अंतरराष्ट्रीय स्तर के हों। जिन कंपनियों ने सुरक्षा मानकों का उल्लंघन किया है, उनके लाइसेंस तत्काल रद्द कर दिए जाने चाहिए और शीर्ष प्रबंधन को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। इन मामलों में आपराधिक जिम्मेदारी तय करना भी जरूरी है। चिकित्सा जगत और समाज को भी आत्मचिंतन करना चाहिए।
केंद्रीय और राज्य की नियामक एजेंसियों को ज्यादा बेहतर तालमेल के साथ, पारदर्शिता, ईमानदारी और ज्यादा तेजी से काम करने की जरूरत है, क्योंकि यह मामला देश की छवि ही नहीं, अनमोल जिंदगियों से जुड़ा है।

अंततः यह घटना हमें याद दिलाती है कि जीवन रक्षा के साधनों में जब नैतिकता का अभाव हो जाता है तो प्रगति की समूची इमारत ध्वस्त हो जाती है। अब वक्त आ गया है कि हम दवा नहीं, दायित्व बनाएं, नियमन नहीं, निष्ठा पैदा करें और इस मानवता विरोधी अपराध के लिए दोषियों को उदाहरण स्वरूप कठोरतम दंड।