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मानव जीवन में सुख आखिर है क्या ?

राधा गोयल
नई दिल्ली
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सुख-दु:ख की सबकी अपनी अलग-अलग परिभाषा होती है।शायद ही कोई मनुष्य ऐसा हो, जिसने जीवन में कभी दु:ख का अनुभव न किया हो। कोई व्यक्ति ऐसा भी नहीं होगा, जिसे जीवन में एक बार भी सुख न मिला हो। वास्तव में सुख-दु:ख जीवन की पूर्णता के लिए आवश्यक हैं। दोनों मनुष्य को शक्ति, सहजता और शिक्षा देते हैं। इसी लिए, कहा जाता है कि न तो दु:ख में घबराना चाहिए और न सुख में इतराना चाहिए। सुख-दु:ख तो जीवन की ऊर्जा के आधार हैं। मानव सुख के पीछे जीवन भर भागता रहता है। कैसी मृगतृष्णा है यह ? मानव जीवन में सुख आखिर है क्या ? माना सुख से शांति, पवित्रता और शुभता का संचार होता है, तो दु:ख से जीवन के आवश्यक सबक मिलते हैं। फिर भी यह किसी विडंबना से कम नहीं कि मनुष्य जीवन में कभी भी कोई दु:ख नहीं चाहता। वह हमेशा सुखी रहना चाहता है और वह भी इच्छा या आवश्यकता के अनुसार। महाभारत में वेदव्यास कहते हैं कि “सुख और दु:ख मानव के कर्मों के ही परिणाम हैं। इसीलिए परिणाम को सहजता से स्वीकार करने में ही बुद्धिमानी है। जो परिणाम को सहजता से स्वीकार कर लेता है, वह अनेक प्रकार की विसंगतियों और मनोविकारों से बच जाता है।” इसी में जीवन के सुख का सूत्र निहित है।

कहावत है-“मन के हारे हार है मन के जीते जीत।”
संसार में कौन सुखी नहीं रहना चाहता। संसार में सुखी व्यक्ति जहाँ और अधिक सुखी होने को धन जोड़ता है, वह उससे भौतिक सुविधाओं को पाकर क्षणिक सुख तो प्राप्त कर सकता है, लेकिन वो विशेष सुख नहीं मिलता, जिससे मन को शान्ति मिले। वह संपूर्ण जीवन सुख की प्रतीक्षा करता रहता है।
सुख-दु:ख जुड़वाँ भाई के समान हैं, जो सदैव एक-दूसरे के साथ ही रहते हैं। मनुष्य दु:ख में इतना दुखी हो जाता है, कि उसे सुख का आभास तक भी नहीं हो पाता है और अपने-आपको दुखी समझकर सुख की तलाश करने लगता है।
सुख और दु:ख २ अलग एहसास नहीं हैं। एक ही वस्तु या विचार, कभी सुख तो कभी दु:ख का कारण हो सकता है। जब कोई व्यक्ति या विचार या वस्तु अथवा किसी का व्यवहार हमें अनुकूल लगता है, तो हमें लगता है कि हमें सुख हो रहा है। इसके विपरीत हो तो हम दुखी होने लगते हैं।
सुख कभी लंबे समय तक नहीं टिकता और टिके तो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता। हाँ, दु:ख लंबे समय तक रहता है और बिना बुलाए आता है। सुख अतिथि बनकर आता है। दु:ख भी बिन बुलाए आता है, मगर अतिथि बनकर नहीं, अपितु डेरा जमा कर बैठ जाता है। फिर भी उससे दुखी नहीं होना चाहिए, अपितु बहादुरी से मुकाबला करना चाहिए।
सुख-दु:ख एक ही सिक्के के २ पहलू हैं। जैसे खाने में केवल मीठा या केवल खट्टा हो तो हम भोजन का आनंद नहीं ले पाएंगे, ऐसे ही केवल सुख या दु:ख होने पर हम आनंद नहीं ले पाएंगे। जैसे दिन के बाद रात आती है, तभी दिन का महत्व है। वैसे ही दु:ख और सुख का महत्व है। कुछ लोग सोचते हैं कि सम्पन्नता मनुष्य के जीवन में सुख लाती है और हम उस मृगमरीचिका के पीछे भागने लगते हैं। सच्चाई यह है कि सम्पन्नता केवल थोड़ी देर के लिए ही खुशी लाती है, और वह भी सांसारिक।
हर इंसान के लिए सुख-दुख अलग है, किन्तु क्या दु:ख के बिना सुख संभव है ? हरगिज़ नहीं।
असल में सुख हमारी देह छूते हैं और दुख हमेशा आत्मा। एक भूखा ही समझ सकता है कि भोजन का सुख क्या होता है।
एक बेघर ही घर का सुख जान सकता है। एक निर्धन ही धन का सुख समझ सकता है। एक बेरोजगार ही नौकरी का सुख समझ सकता है। ऐसे एक नहीं, कई उदाहरण हैं। किसी एक के बिना दूसरे की कल्पना नहीं हो सकती। अर्थात जब तक दु:ख नहीं भोगेंगे, तब तक न तो सुख की चाह होगी और न ही अनुभूति।
एक उदाहरण देखिए-कोई अफीमची है। उसको अफीम लेकर बहुत आनंद आता है। वह उसके लिए सुख है, लेकिन जो नहीं लेते, उनको वह अपार कष्ट देगा। वह उनके लिए दुखी होगा। इसी तरह किसी को मिठाई खाने में बहुत आनंद आता है। मधुमेह वाले के लिए तो मिठाई जहर है। इसका यह मतलब हुआ कि सुख-दु:ख उत्पन्न करने की शक्ति किसी भी पदार्थ में नहीं है। हम सभी के सुख-दु:ख की परिभाषा एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न है, क्योंकि हमारे विचार… हमारे संस्कार एक-दूसरे से भिन्न-भिन्न हैं।
वैसे कहा भी है-
जब तक मन में दुर्बलता है,
दुख में दु:ख, सुख में ममता है।
पर सदा न रहता जग में सुख,
रहता न सदा जीवन में दु:ख।
छाया से माया से दोनों, आने- जाने हैं ये सुख-दु:ख।

सुख भी नश्वर दु:ख भी नश्वर, यद्यपि सुख-दु:ख संगी साथी।
कौन घुले फिर सोच फ़िक्र में, आज घड़ी क्या है, कल क्या थी ?
देख तोड़ सीमाएं अपनी, जोगी नित निर्भय रमता है।
जब तक मन में दुर्बलता है,
दुख में दु:ख, सुख में ममता है।

जब तक तन है, आधि-व्याधि हैं,जब तक मन, सुख-दु:ख हैं घेरे।
तू निर्बल तो क्रीत भृत्य हैं, तू चाहे तो तेरे चेरे।
तू इनसे पानी भरवा, भर ज्ञान कूप तुझमें क्षमता है
जब तक मन में दुर्बलता है,
दुख में दु:ख, सुख में ममता है।