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मौन ही रहने दो

डॉ. विद्या ‘सौम्य’
प्रयागराज (उत्तर प्रदेश)
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एक दिन मुझे,
मौन ही रहने दो
आज न कुछ सुनने को है,
और
न कुछ सुनाने को…
एक दिन जी लो तुम भी,
अपने वास्ते
और
मैं, अपने वास्ते…
पर, मौन रहकर भी क्या ?
मौन रह पाई…
हृदय में उफनती लहरें
क्या ? शांत हो पाई…
न खुद को समझ पाई
और
न ही समझा पाई…
वही गूँजती रही,
रोज-रोज की किच-किच
और
ढेर सारे अनुत्तरित, सवालों के घेरे में
खुद को कैद पाया।

व्यथा भी व्यर्थ ही,
आँसुओं के सैलाब में
सिमटती रही,
आज सिर्फ आज
एक दिन,
मुझे मौन ही रहने दो
बस…
थोड़ा-सा सज लूँ, संवर लूँ
अपने वास्ते,
घूम लूँ, टहल लूँ, मौज कर लूँ
और
तुम भी स्वतंत्र हो मेरे वास्ते…
पर बच्चे ?
चूल्हा-चौका, बर्तन, झाड़ू-पोंछा
नाश्ता-खाना,
सब कुछ पड़ा है
सिर्फ और सिर्फ
मेरे वास्ते।
हाँ, सिर्फ,
स्त्री के वास्ते॥