दिल्ली
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अरविंद केजरीवाल राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं। उन्होंने राजनीति में कुछ मौलिक प्रतिस्थापनाएं की है, बने-बनाए रास्तों पर न चलकर नये रास्ते इजाद किए हैं। उनके व्यवहार एवं वचनों में विरोधाभास स्पष्ट परिलक्षित होते रहे हैं, लेकिन ये ही विरोधाभास उनकी राजनीतिक चमक का कारण भी बने हैं, क्योंकि राजनीति में सब जायज माना जाता है। सर्वोच्च न्यायालय से सशर्त जमानत मिलने से खुद को बंधा महसूस करते हुए उन्होंने इस्तीफे का धारदार दाँव चलाकर राजनीतिक जगत में एक हलचल पैदा कर दी, दल पार्टी में संभावनाओं भरे अनेक चेहरों के होने के बावजूद उन्होंने आतिशी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया, जबकि वह वरिष्ठता क्रम में निचले पायदान पर थी, लेकिन श्री केजरीवाल ऐसे चौंकाने वाले फैसले पहले भी लेते रहे हैं। इस तरह वे जनादेश का मज़ाक भी बनाते रहे हैं, तो संवैधानिक स्थितियों की धता भी करते रहे हैं।
अरविंद केजरीवाल साहस के कदम एवं चतुराई की आँख लेकर परम्परागत राजनीति की जंजीरों को तोड़कर आगे निकलते रहे हैं। अधिक संभावनाएं उनकी पत्नी सुनीता केजरीवाल को मुख्यमंत्री बनाए जाने की थी, क्योंकि क्षेत्रीय दलों में किसी राजनीतिक या कानूनी संकट के चलते परिवार के ही किसी सदस्य को सत्ता की बागडोर सौंप देने की परंपरा रही है, ताकि स्थिति सामान्य होने पर फिर मुख्यमंत्री की गद्दी आसानी से वापस ली जा सके। इसके अनेक उदाहरण हैं, जिनमें बिहार में चारा घोटाले में घिरने के बाद लालू यादव ने पत्नी राबड़ी देवी को सत्ता की बागडोर सौंपी थी। बहरहाल, श्री केजरीवाल ने जो तीर चले हैं, उनकी धार को महसूस किया जा सकता है। इन तीरों से हरियाणा व जम्मू कश्मीर चुनाव समेत अन्य राष्ट्रीय मुद्दों में उलझी भाजपा व कांग्रेस पर मनोवैज्ञानिक-राजनीतिक दबाव तो बना ही दिया है। हरियाणा में स्वतंत्र चुनाव लड़ने का निर्णय लेकर उन्होंने सत्ता के गठन में स्वयं को एक ताकतवर मोहरे के रूप में प्रस्तुत करने का चतुराई भरा खेल भी खेला है। दिल्ली में भी उन्होंने अपनी निस्तेज होती स्थितियों को मजबूती दी है।
दरअसल, श्री केजरीवाल भ्रष्टाचार के विरोध में आन्दोलन के योद्धा के रूप में वर्ष २०१४ के इस्तीफे के दाँव की तरह २०१५ में आम आदमी पार्टी को मिली भारी जीत का अध्याय दोहरा देना चाहते हैं, लेकिन इस बार की स्थितियाँ खुद भ्रष्टाचार में लिप्त होने से खासी चुनौतीपूर्ण व जोखिमभरी हैं। निस्संदेह, यह दाँव मुश्किल भी पैदा कर सकता है, क्योंकि पिछले लोकसभा चुनाव में दल को १ भी सीट नहीं मिली थी। भले ही श्री केजरीवाल अपने को समय को पहचानने वाला साबित कर रहे हों, लेकिन वे देश को, अपने पैरों की जमीन को एवं राजनीतिक मूल्यों को नहीं पहचान रहे हैं। ‘आप’ की राजनीतिक नियति भी विसंगति का खेल खेलती रहती है। पहले जेल जाने वालों को कुर्सी मिलती थी, अब कुर्सी वाले वाले जेल जा रहे हैं। यह नियति का व्यंग्य है या सबक ? कैसे ‘आप’ की राजनीति इस शर्म के साथ जनता से मुखातिब होगी और जनता क्या जबाव देगी, यह भविष्य के गर्भ में है।
जिन अप्रत्याशित हालात में आतिशी को दिल्ली का मुख्यमंत्री बनाया गया है, वे बेहद चुनौतीपूर्ण हैं। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले राज्य में नेतृत्व परिवर्तन के कई उदाहरण हाल के वर्षों में दिखे हैं, लेकिन यह मामला उन सबसे अलग है। पिछले करीब २ साल न केवल आम आदमी पार्टी के लिए, बल्कि दिल्ली सरकार के लिए भी इस मायने में चुनौतीपूर्ण रहे कि एक-एक कर उसके कई बड़े नेता और मंत्री जेल भेज दिए गए। दिल्ली का विकास मुफ्त की संस्कृति की भेट चढ़कर विकास को अवरुद्ध किए हुए हैं। मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के जेल जाने के बाद आतिशी ने सौरभ भारद्वाज और अन्य साथियों के साथ मिलकर सड़क से मीडिया तक दल की जंग लड़ी, उससे कार्यकर्ताओं में उनकी एक जुझारू छवि बनी है। ऐसे में, उनसे उम्मीदें भी बढ़ गई हैं। उनके हिस्से में यह पद तब आया, जब दल के २ सबसे बड़े नेताओं अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया ने कह दिया कि वे नए सिरे से जनादेश हासिल करने के बाद ही पद पर बैठेंगे। अगर पार्टी जनादेश हासिल नहीं कर पाती तब तो उन्हें पद छोड़ना ही पड़ेगा, अगर पार्टी चुनाव जीतती है, तब भी मुख्यमंत्री पद से उनका हटना लगभग तय है। इन स्थितियों में काँटों भरा ताज पहनकर उनके कामकाज एवं प्रभावी नेतृत्व का क्या औचित्य है ?
अतिशी एक वफादार एवं जिम्मेदार नेता के रूप में अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रही है।
आतिशी का यह पहला कार्यकाल है, और किसी गैर-राजनीतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि की महिला का ५ साल के भीतर यूँ मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुँचने का यह विरल उदाहरण भी है। आतिशी दिल्ली जैसे सूबे की मुखिया बनी हैं, जिस दिल्ली ने सुषमा स्वराज और शीला दीक्षित जैसी दिग्गज महिला नेताओं का शासन देखा है। कुल मिलाकर दिल्ली में शुरू हुए ‘आप’ के इस नए प्रयोग और उसके नतीजों पर सबकी नजरें होंगी।
अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा सोची-समझी रणनीति के तहत ही दिया है, ताकि आगामी विधानसभा चुनाव को अपनी ईमानदारी के जनमत संग्रह के रूप में दर्शा सकें। उनका मकसद भाजपा सरकार द्वारा दर्ज भ्रष्टाचार के आरोपों का मुकाबला करने तथा खुद को राजनीतिक प्रतिशोध के शिकार के रूप में दिखा जनता की सहानुभूति अर्जित करना भी है, लेकिन इस तरह की राजनीतिक चतुराई में अगर कोई आधार नहीं होता, कोई तथ्य नहीं होता, कोई सच्चाई नहीं होती है तो दूसरों के लिए खोदे गए खड्डों में स्वयं गिर जाने की स्थिति बन जाती है। कुछ लोग इस प्रकार से प्राप्त जीत की खुशी मनाते हैं, कुछ इस प्रकार की हार की खुशी मनाते हैं, जो कभी जीत से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि गलत तरीकों से प्राप्त जीत से सिद्धांतों पर अडिग रहकर हारना सम्मानजनक होता है। निस्संदेह, जनता से ईमानदारी का प्रमाण-पत्र हासिल करने की योजना उनकी दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा जान पड़ती है। ऐसे में, दिल्ली में निश्चित रूप से उसकी लड़ाई भाजपा के साथ ही कांग्रेस से भी अपनी जमीन बचाने की होगी। नागरिकों की अपेक्षाओं पर खरा उतरने के साथ दल की चुनावी नैया पार लगाने की चुनौती तो है ही।