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राष्ट्रीयता की नब्ज के सच्चे पारखी ‘काका कालेलकर’

प्रो. अमरनाथ
कलकत्ता (पश्चिम बंगाल )
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हिन्दी योद्धा:पुण्यतिथि विशेष……


गाँधी जी की प्रेरणा से अपने जीवन को हिन्दी की सेवा और उसके प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित कर देने वालों में काका कालेलकर का नाम पहली पंक्ति में रखा जा सकता है। उनका पूरा नाम दत्तात्रेय बालकृष्ण कालेलकर (१-१२-१८८५ से २१ अगस्त १९८१) है। वे हिन्दी के अनन्य सेवी के साथ ही प्रख्यात् स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, शिक्षाविद्, पत्रकार तथा प्रतिष्ठित लेखक हैं।
मराठी भाषी काका कालेलकर का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले में हुआ था। बी.ए. करने के बाद वे बेलगाँव के एक विद्यालय में अध्यापन करने लगे, किन्तु अचानक सब-कुछ छोड़कर मुक्ति की तलाश में हिमालय की ओर चले गए। इसी बीच १९१४) में वे विश्व भारती शान्ति निकेतन आए और अध्यापन करने लगे। १ वर्ष बाद निकेतन में ही उनकी भेंट गाँधी जी से हुई। मिलने के बाद वे इतने प्रभावित हुए कि अपना सारा जीवन गाँधी जी के कार्यों को समर्पित कर दिया। वे गाँधी जी के साथ साबरमती आश्रम चले गए और वहाँ चलने वाले विद्यालय के प्रधानाचार्य बने। गाँधी जी ने अहमदाबाद में जब गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की, तो काका साहब की उसमें महत्वपूर्ण भूमिका थी। वे उसमें प्रोफेसर बने और बाद में उसके कुलपति भी रहे।
१९३५ में काका कालेलकर राष्ट्रभाषा समिति के सदस्य बने। इस समिति का मुख्य उद्देश्य हिन्दी जिसे गाँधी जी हिन्दुस्तानी कहते थे, को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में लोकप्रिय बनाना था। १९३६ में गाँधी जी के साथ काका साहब वर्धा चले गए और नागरी लिपि तथा हिन्दी के प्रचार में लग गए।
गाँधी जी की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने गुजराती पत्र ‘नवजीवन’ का सम्पादन भी किया। १९६४ में उन्हें ‘पद्म विभूषण’ से सम्मानित किया गया। वे ‘पिछड़ा वर्ग आयोग’, ‘बेसिक एजुकेशन बोर्ड’, ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’, ‘गाँधी विचार परिषद’ के अध्यक्ष तथा ‘गाँधी स्मारक संग्रहालय’ के निदेशक रहे।
१९३८ ई. में दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा के अधिवेशन में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था, “राष्ट्रभाषा का प्रचार हमारा राष्ट्रीय कार्यक्रम है।” अपने इसी सिद्धांत को लक्ष्य मानते हुए उन्होंने हिन्दी के प्रचार-प्रसार को राष्ट्रीय कार्यक्रम का दर्जा दिया और आजीवन उसमें लगे रहे। गुजरात विद्यापीठ की स्थापना के समय उसकी माध्यम-भाषा के मुद्दे पर उन्होंने जो कहा है, उससे उनके भाषा संबंधी चिन्तन का सहज अनुमान किया जा सकता है। उन्होंने कहा-“हमारा शिक्षा विषयक आदर्श तो भारतीय ही होगा। शिक्षक भी वृत्ति से अखिल भारतीय ही होंगे, पर विद्यापीठ का माध्यम तो गुजराती ही होना चाहिए। भले ही यह पहला राष्ट्रीय विद्यापीठ हो। वह राष्ट्र का एकमेव विद्यापीठ नहीं है। इसके अनुकरण में या इससे प्रेरणा पाकर देश में जगह-जगह ऐसे ही राष्ट्रीय विद्यापीठ खोले जाएंगे और खोले जाने भी चाहिए। इन सब विद्यापीठों का माध्यम हर एक प्रदेश की भाषा होगी, होनी भी चाहिए। किसी भी प्रदेश में उसकी प्रमुख प्रादेशिक भाषा को दोयम स्थान नहीं मिलना चाहिए। प्रमुख स्थान का उसका अधिकार हमें मंजूर करना चाहिए। गुजरात विद्यापीठ को मुख्य रूप से गुजरात प्रदेश की ही सेवा करनी है। इसलिए उसका माध्यम गुजराती ही होगी। द्वितीय भाषा के रूप में नीचे से ऊपर तक हिन्दी को अत्यंत आदर का स्थान हम देंगे। अंग्रेजी के लिए भी एक कोना सुरक्षित रखेंगे, क्योंकि यह अत्यंत उपयोगी और सर्वत्र फैली हुई एक समर्थ भाषा है पर गुजरात विद्यापीठ का वाहन नीचे से ऊपर तक गुजराती ही होगी।”
इस विषय पर अपनी प्रतिक्रिया देते हुए रवीन्द्र केलेकर ने लिखा है,-“मजे की बात है- गुजरात विद्यापीठ के संचालक सभी गुजराती थे, पर सभी हिन्दी के पक्ष में थे और महाराष्ट्रीय काका साहब अकेले गुजराती के पक्ष में थे। हिन्दी के पक्ष में प्रचंड बहुमत था, पर काका साहब अपने आग्रह में अडिग रहे। अंतिम निर्णय के लिए जब प्रश्न गाँधी जी के पास गया, तब उन्होंने फैसला दिया कि काका साहब जो कहते हैं, वही दुरुस्त है। गुजरात विद्यापीठ का माध्यम गुजराती ही रहेगी॥ गुजरात के बाहर का जो विद्यार्थी इस विद्यापीठ में पढ़ने के लिए आएगा, उसे गुजराती में ही पढ़ना होगा। गुजराती पढ़ाने का उसके लिए अलग प्रबंध किया जाएगा। गुजराती के बाद हिन्दी या हिन्दुस्तानी आएगी और हिन्दी के बाद अंग्रेजी आएगी।”
काका साहब मराठी थे, किन्तु गाँधी जी की प्रेरणा से उन्होंने सबसे पहले हिन्दी सीखी और फिर कई वर्ष तक दक्षिण में सम्मेलन की ओर से राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार किया। हिन्दी प्रचार के कार्य में जहाँ कहीं कोई समस्या होती अथवा किन्हीं कारणों से प्रगति में बाधा पड़ती तो गाँधी जी वहाँ काका कालेलकर को ही भेजते। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना के बाद गुजरात में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की व्यवस्था के लिए गाँधी जी ने काका कालेलकर को ही चुना। नया काम सौंपे जाने पर उन्होंने सबसे पहले गुजराती का अध्ययन किया। गुजरात में हिन्दी प्रचार को जो सफलता मिली उसका मुख्य श्रेय काका साहब को ही है।
१९५४ में अखिल भारतीय नई तालीम सम्मेलन (सणोसरा, सौराष्ट्र) में उन्होंने जो अध्यक्षीय भाषण दिया था उसमें उन्होंने कहा था, “इस शिक्षा पद्धति की संस्थाओं में तथा छात्रावासों में समाज के सभी जाति-वर्ग, वर्ण के छात्र होंगे। यह अलग से बताने की जरूरत नहीं है। यहाँ हर धर्म, जाति के छात्र होंगे, साथ खाएंगे-पिएंगे, संडास-सफाई का काम भी सब हिल-मिलकर करेंगे। रसोई घर के कामों में भी सबका सहयोग होगा। न कोई छोटा न कोई बड़ा। न कोई ऊँच न कोई नीच। सभी एक ही परिवार के सदस्य बनकर रहेंगे। भारत माता को अपनी माता मानकर उसकी भक्ति तथा सेवा करेंगे। इसी प्रकार से हम नवभारत का निर्माण करेंगे।” कहना न होगा, उनके वक्तव्य का यह अंश आज से एक सौ साल पहले शिक्षा-पद्धति के बारे में उनकी आधुनिक सोच का बेहतरीन उदाहरण उपस्थित करता है।
काका कालेलकर ने मराठी से अधिक गुजराती और हिन्दी में लिखा है। भाषा, साहित्य, शिक्षा और संस्कृति के अलावा उन्होंने राजनीति, समाजशास्त्र, विज्ञान, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, अध्यात्म आदि सभी महत्वपूर्ण विषयों पर गंभीर और प्रामाणिक लेखन किया है। उनकी स्मरण क्षमता अद्भुत थी। महात्मा गाँधी के अलावा रवीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन का उन पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा था। उन्होंने गुजराती, मराठी, हिन्दी और अंग्रेज़ी में विविध विषयों पर ३० से अधिक पुस्तकों की रचना की है। रवीन्द्रनाथ टैगोर के साहित्य का मराठी और गुजराती में उन्होंने अनुवाद भी किया है।
काका कालेलकर को साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी मिल चुका है। हिन्दी भाषा के प्रचार-प्रसार से संबंधित उनकी कृतियों में ‘राष्ट्रीय शिक्षा का आदर्श’, ‘महात्मा गाँधी का स्वदेशी धर्म’, ‘हिन्दुस्तानी की नीति’, ‘स्वराज संस्कृति के सेतरी’, ‘भाषा’, ‘प्रजा का राज प्रजा की भाषा में’, ‘राष्ट्रभारती हिन्दी का मिशन’ आदि प्रमुख हैं।
सरदार पटेल विश्वविद्यालय, गुजरात विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ ने उन्हें मानद् डी. लिट्. से और साहित्य अकादमी (नई दिल्ली) ने ‘फ़ैलो’ से अलंकृत किया।
काका कालेलकर का निधन २१ अगस्त १९८१ को नई दिल्ली में उनके ‘संनिधि’ आश्रम में हुआ। आज उनकी पुण्यतिथि के अवसर पर हम हिन्दी भाषा के हित में किए गए उनके महान कार्यों का स्मरण और उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं।

(सौजन्य:वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई)


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