डॉ.शैलेश शुक्ला
बेल्लारी (कर्नाटक)
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२०२० में जब भारत सरकार ने नई ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति’ को प्रस्तुत किया, तो यह देश के शिक्षा जगत में एक निर्णायक मोड़ साबित
हुआ। यह नीति न केवल औपचारिक शिक्षा प्रणाली में सुधार की बात करती है, बल्कि शिक्षा को भारतीय संस्कृति से जोड़ने, वैश्विक प्रतिस्पर्धा हेतु तैयार करने और बच्चों के सर्वांगीण विकास कोसुनिश्चित करने का एक समग्र दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है। ३४ वर्ष बाद आई इस नई नीति में ‘५+३+३+४’ की संरचना, मातृभाषा में प्रारंभिक शिक्षा, डिजिटल नवाचार, कौशल आधारित शिक्षा और उच्चतर शिक्षा में लचीलापन जैसे कई ऐसे बदलाव प्रस्तावित किए गए, जो इसे यथार्थवादी और दूरदर्शी दोनों बनाते हैं। यह नीति शिक्षा को केवल ज्ञानार्जन नहीं, बल्कि नैतिकता, नवाचार और समावेशी विकास का माध्यम मानती है, लेकिन जिस प्रकारसे इस नीति को लागू करने की प्रक्रिया आरंभ हुई, वह कई मोर्चों पर धीमी और टुकड़ों में बँटी हुई दिखाई दी। भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में शिक्षा नीति का प्रभावी कार्यान्वयन तभी संभव है, जब इसे जमीनी हकीकत के साथ जोड़कर देखा जाए और इसकी प्रत्येक बाधा का ठोस, व्यावहारिक और व्यापक समाधान खोजा जाए।
इस नीति की सफलता का सबसे बड़ा आधार शिक्षक हैं, लेकिन यथार्थ यह है कि भारत में अधिकांश शिक्षक न तो इस नीति की मूल भावना से परिचित हैं, न हीउन्हें नई शिक्षण पद्धतियों जैसे ‘लर्निंग, कॉम्पटेंसी-बेस्ड कुरिकुलम’ व ‘फॉर्मेटिव असेसमेंट’ आदि का समुचित प्रशिक्षण मिला है। खासकर ग्रामीण और दूरदराज क्षेत्रों में शिक्षक बहुधा एकाधिक कक्षाओं को एकसाथ पढ़ा रहे हैं, संसाधनों की भारी कमी झेल रहे हैं और तकनीकी साक्षरता के अभाव में नीति के उद्देश्यों से बहुत दूर हैं।
शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों में अभी भी पुरानी पद्धतियाँ चल रही हैं, जो मौजूदा जरूरतों से मेल नहीं खातीं। समाधान यही है कि ‘सेवा पूर्व’ और ‘सेवा के दौरान’ प्रशिक्षण को पूरी तरह से नई शिक्षा नीति के अनुरूप पुनर्गठित किया जाए, जहाँ शिक्षक केवल आदेश पालक न रहकर शिक्षा के सह-निर्माता बनें। ‘दीक्षा’ और ‘स्वयम’ जैसे डिजिटल मंचों को स्थानीय भाषाओं में अधिक उपयोगी बनाया जाए और प्रत्येक ब्लॉक स्तर पर प्रशिक्षण केंद्रों को सशक्त किया जाए।
बुनियादी ढाँचा नीति के क्रियान्वयन में दूसरी सबसे बड़ी चुनौती है। नीति में ‘फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमैरसी’ को पहली प्राथमिकता दी गई है, लेकिन देश के हज़ारों सरकारी विद्यालय अभी भी कक्षा-कक्ष, पुस्तकालय, पानी, प्रयोगशाला एवं शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। डिजिटल शिक्षा की बात की जाए तो लाखों बच्चे ऐसे हैं, जो बिजली, इंटरनेट या आधुनिक उपकरणों तक की पहुँच नहीं रखते। इस स्थिति में डिजिटल लर्निंग केवल शहरी छात्रों तक सीमित रह जाती है और ग्रामीण छात्र इससे पूरी तरह कट जाते हैं। इस बाधा को दूर करने के लिए वित्तीय संसाधनों का स्मार्ट और विकेन्द्रित उपयोग आवश्यक है। केंद्र व राज्य सरकारों को पंचायतों, सीएसआर और सार्वजनिक-निजी भागीदारी के माध्यम से शालाओं के ढांचे में सुधार लाना चाहिए। भाषा के मुद्दे पर नीति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि कक्षा ५ (या जहाँ संभव हो, कक्षा ८) तक बच्चों को मातृभाषा या स्थानीय भाषा में शिक्षा दी जानी चाहिए। यह प्रस्ताव शैक्षिक मनोविज्ञान के अनुरूप है, जिससे बच्चों में गहरी समझ, भावनात्मक जुड़ाव और तर्क क्षमता का विकास होता है, पर शहरी क्षेत्रों में मातृभाषा की जगह अंग्रेजीको सामाजिक प्रतिष्ठा और व्यावसायिक सफलता का माध्यम माना जाता है, जिससे अधिकांश अभिभावक मातृभाषा में शिक्षा कोअवनति समझते हैं।वहीं, ग्रामीण क्षेत्रों में योग्य शिक्षकों की कमी और स्थानीय भाषाओं में
सामग्री के अभाव के कारण यह प्रयास ठोस स्वरूप नहीं ले पा रहा।समाधान यही है, कि एक लचीलीद्विभाषिक प्रणाली विकसित की जाए, जहाँ स्थानीय भाषा में शिक्षा के साथ-साथ कक्षा ६ से आगे अंग्रेजी की दक्षता को भी सुनिश्चितकिया जाए, साथ ही स्थानीय भाषाओं में गुणवत्तापूर्ण पाठ्य सामग्री का तेजी से निर्माण हो व शिक्षक भी भाषायी रूप से दक्ष बनाए जाएँ।
भारत जैसे सामाजिक विविधता वाले देश में इस नीति का सबसे बड़ा मूल्य यह है, कि यह समावेशी शिक्षा की बात करती है, लेकिन जाति, वर्ग, लिंग, धर्म और क्षेत्रीय विषमताएँ आज भी शिक्षा में बड़ीबाधा हैं। अनुसूचित जातियों, जनजातियों, अल्पसंख्यकों और आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों को आज भी शिक्षा के क्षेत्र में भेद-भाव, संसाधनहीनता व अवसरों की कमी का सामना करना पड़ता है। लड़कियों की शालेय त्यागी दर, जनजातिय क्षेत्रों में शालाओं की अनुपलब्धता और मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में शैक्षणिक पिछड़ापन आज भी गंभीर मुद्दे हैं। इस असमानता को दूर करने के लिए एक ‘समान अवसर आयोग’ जैसी संस्था को सक्रिय किया जाना चाहिए।
नीति के क्रियान्वयन में राज्यों की असमान तत्परता भी एक बड़ी बाधाहै। यह असमानता नीति के राष्ट्रीय लक्ष्यों की प्राप्ति में बाधक बनती है। समाधान यही है, कि केंद्र सरकार राज्य स्तरीय कैपेसिटी बिल्डिंग फंड्स बनाए, राज्यवार कार्ययोजना तय करे और नीति आयोग द्वारा राज्यों के प्रदर्शन का स्वतंत्र मूल्यांकन किया जाए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-२०२० शिक्षा के क्षेत्र में एक युगांतकारी दस्तावेज है। यह केवल पाठ्यक्रम का पुनर्गठन नहीं, बल्कि भारत की सामाजिक, आर्थिक व सांस्कृतिक पुनर्रचना का संकल्प है, पर यह तब तक सफल नहीं होगी, जब तक इसे केवल एक सरकारी घोषणा-पत्र मानकर छोड़ न दिया जाए।
इसे राष्ट्रव्यापी आंदोलन की तरह अपनाने की आवश्यकता है जहाँ केंद्र,राज्य, पंचायत, शिक्षक, अभिभावक और विद्यार्थी-सभी सक्रिय भागीदार बनें। तभी यह नीति भारत के भविष्य की सबसे सशक्त नींव बन सकती है, अन्यथा यह एक और अधूरी आशा बनकर इतिहास में दर्ज हो जाएगी।