चतुर्थ राष्ट्रीय राजभाषा सम्मेलन..
मुम्बई (महाराष्ट्र)।
राजभाषा विभाग (गृह मंत्रालय) द्वारा भारत मंडपम में आयोजित चौथा राष्ट्रीय राजभाषा सम्मेलन कुल मिलाकर सार्थक और सफल रहा। मंडपम की भव्यता ने इस आयोजन को और अधिक भव्य बना दिया। छोटी-मोटी बातों को छोड़ दें तो व्यवस्था भी अच्छी थी।
अगर पहले दिन की बात की जाए तो अधिकारियों ने वैसे ही भाषण दिए, जैसे अधिकारी देते हैं। मुख्य वक्तव्य रहा गृह मंत्री अमित शाह का। उनका हर वाक्य बहुत ही सधा हुआ और सुविचारित था। जिस प्रकार पिछले कुछ समय से दलगत राजनीति के चलते कुछ नेतागण भाषा के नाम पर लोगों को उकसाने की कोशिश करते रहे हैं, राजनीतिक स्वार्थ के लिए हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं से लड़ाने की कोशिश करते रहे हैं, इन सबको देखते हुए केंद्रीय गृह मंत्री ने स्पष्ट शब्दों में यह बात कही कि हिंदी की किसी भी भारतीय भाषा से कोई स्पर्धा नहीं है। उन्होंने कहा कि सभी भारतीय भाषाएँ परस्पर सखी हैं। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद ३५१ की भावनाओं का समावेश करते हुए इस बात पर जोर दिया कि हिंदी को अन्य भारतीय भाषाओं से भी शब्दों को लेना चाहिए। सरल शब्दों में कहें तो उन्होंने भाषाई एकता की बात की। निश्चित रूप से उनका वक्तव्य भारतीय भाषाओं के समन्वित विकास और प्रयोग की नीति को अभिव्यक्त कर रहा था। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने भी अपने तरीके से लगभग इन्हीं बातों को कहा। उनका यह कहना था कि हम सरल-सहज हिंदी का प्रयोग करें और भारतीय भाषाओं में जो अच्छे और सरल शब्द हैं उनको स्वीकार करते हुए आगे बढ़ें।
अगर नीतिगत रूप से देखें तो एक बड़ा परिवर्तन यह दिखाई दिया कि कुछ वर्ष पहले तक जहाँ पहले केवल हिंदी की बात होती थी, अब हिंदी के साथ सभी भारतीय भाषाओं की बात की जा रही है। सभी भाषाओं और बोलियों के सम्मान की बात, भाषाई सद्भाव की बात और सांस्कृतिक धरातल पर भारतीय भाषाओं की एकता की बात की जा रही है। इसी का परिणाम है कि राजभाषा विभाग में एक भारतीय भाषाओं का अलग अनुभाग भी स्थापित किया गया है। निश्चय ही यह एक सराहनीय संकेत है। हो सकता है अगले कुछ वर्षों में राजभाषा विभाग का नाम बदलकर भारतीय भाषा विभाग हो जाए। पूर्व गृह मंत्री अजय मिश्र ने भी लगभग इसी बात को अपने तरीके से कहा।
राज्यसभा के उपसभापति हरिवंश नारायण सिंह ने अपने संक्षिप्त संबोधन में राजभाषा हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के प्रयोग व प्रसार को बढ़ाने के लिए सरकार की नीतियों और किए गए कार्यों पर प्रकाश डाला।
सम्मेलन का एक बड़ा आकर्षण रहे प्रखर वक्ता एवं राज्यसभा सांसद सुधांशु त्रिवेदी। सुधांशु त्रिवेदी ने अनेक उदाहरणों द्वारा अपनी भाषा के महत्व और उसके प्रभाव को प्रतिपादित किया। यह भी कहा कि भाषा का स्तर गिराने से भाषा को या किसी को कोई लाभ नहीं होता। उन्होंने हिंदी फिल्मों के महानायक अमिताभ बच्चन सहित कई कलाकारों का उदाहरण देते हुए कहा कि उनकी भाषा का स्तर हमेशा बहुत अच्छा रहा, इसके बावजूद भी कहीं उनके प्रभाव में कोई कमी नहीं आई।
इन तमाम वक्ताओं के मूल मंतव्य में एक महत्वपूर्ण बात यह थी कि गुलामी के सभी प्रतीकों को छोड़ते हुए अपनी भाषाओं के माध्यम से शिक्षा, अपनी संस्कृति की स्वीकार्यता और सम्मान तथा आत्मनिर्भर भारत के माध्यम से भारत को आगे बढ़ाने की बात। निश्चय ही यह अपनी भाषाओं से और अपनी भाषाओं के बीच सामंजस्य से ही संभव है।
कुमार विश्वास हमेशा की तरह प्रभावी थे, लेकिन बार-बार उनकी तालियों की मांग कुछ दर्शकों के मन में खीज़ पैदा कर रही थी। कुछ लोग कह रहे थे, तालियाँ मांग क्यों रहे हो, बात तो तब है कि जब तालियाँ खुद-ब-खुद बजें। दूसरा उनका बार-बार पारिश्रमिक अथवा मानदेय की बात को बीच-बीच में लाना, कवि सम्मेलन में जाने का अपना भाव बताना, कवियों को अधिक पैसा देने की बात करना, उनका चार्टर्ड प्लेन में यात्रा करना और ऐसी ही कुछ बातें श्रोताओं को अच्छी नहीं लग रही थीं। हालांकि, भाषा को लेकर उन्होंने जो कुछ कहा, वह बहुत प्रभावी था। चुटकुलेबाज सतही कवियों की सम्मेलनों के मंचों पर कब्जा करने की बात को भी उन्होंने रखा। उनके वक्तव्य और कविता के अंदाज़ ने लोगों को हँसाया और गुदगुदाया भी। मातृभाषा की महिमा को उन्होंने अपने वक्तव्य से बखूबी प्रस्तुत किया।
दूसरे दिन पूर्वाह्न का सत्र तो हम सुन नहीं सके। पहले तो हमें चाय नाश्ते के लिए भेज दिया गया और जब लौट कर आए तो बाहर ही रोक दिया। सुरक्षाकर्मियों ने कहा कि अंदर हॉल भर गया है, बाहर खड़े रहिए, जब व्यवस्था होगी तो अंदर बुलाएँगे। तब तक तो कई वक्ता निपट चुके थे, लेकिन सत्र के आखिरी वक्त भाषाविद विमलेश कांति वर्मा का आधा वक्तव्य सुना। निश्चय ही वे प्रभावी भी थे और उन्होंने हिंदी भाषा के कुछ महत्वपूर्ण बिंदुओं को भी हमारे सामने रखा। उन्होंने हिंदी सहित भारतीय भाषाओं का मूल आधार संस्कृत को बताया।
राजभाषा सम्मेलन के दूसरे दिन के दोपहर बाद के सत्र में पहले तो दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और विभिन्न चैनलों पर चर्चा में शामिल होने वाले प्रो. संगीत रागी एवं भारत के विधि राज्य मंत्री अर्जुनराम मेघवाल थे। हमेशा की तरह प्रो. रागी प्रभावी रहे। हालांकि, वे बीच-बीच में अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए कई बार राजनीति के छोर को भी स्पर्श करते दिखे। शायद बेबाकी से अपनी बात कहने और अपने मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए वह जरूरी रहा हो।
आमतौर पर विधि मंत्री और विधिवेत्ताओं के बारे में यह माना जाता है कि वे अंग्रेजी में या अंग्रेजीमय हिंदी में अपनी बात को बहुत ही संजीदा ढंग से रखते हैं, जो अक्सर बड़ा उबाऊ हो जाता है, लेकिन मेघवाल जी ने जिस प्रकार से राजस्थानी शैली में देसी भाषा के अंदाज में हँसते-हँसाते विधि क्षेत्र की आवश्यकताओं और परिवर्तनों को प्रस्तुत किया, वह रोचक ही नहीं प्रभावी और ज्ञानवर्धक भी रहा।
अगर आखिरी सत्र की बात करें तो यह कहना पड़ेगा कि यदि अनुपम खेर, चंद्र प्रकाश द्विवेदी के प्रश्नों में बंध कर नहीं रहते तो उनकी प्रस्तुति बहुत उत्तम होती। असल में यह प्रश्न-उत्तर सत्र होना ही नहीं चाहिए था। अनुपम खेर को जो भी कहना था, वे अपने ढंग से, अपने अंदाज में, जो मन में आता कहते। जब बातें उनके हृदय से सीधे निकलती तो प्रस्तुति की बात ही कुछ और होती।
जिस तरह के प्रश्न चंद्र प्रकाश द्विवेदी पूछ रहे थे, वे ऐसे थे जैसे किसी भाषाविद या किसी लेखक का साक्षात्कार किया जा रहा हो। अनुपम खेर अभिनेता हैं, दिल की बात सुनते हैं, दिल की बात समझते हैं और दिल की बात कहते हैं।
मैं तो यह कहूंगा कि चंद्र प्रकाश द्विवेदी न तो खुद प्रभावी रहे और न ही अनुपम खेर की प्रतिभा को ऊपर ला सके। हालांकि, अनुपम खेर ने अपने हिंदी-प्रेम, निम्न मध्यम और मध्यम वर्ग के लोगों की भाषा, भावनाओं एवं व्यवहार को बखूबी प्रस्तुत किया तथा दर्शकों का दिल मोह लिया। उपस्थित लोगों को लगा कि चमचमाती फिल्मी दुनिया में कोई उनके जैसा भी है। उनका हर अंदाज दर्शकों को भा रहा था।
अपनी भाषा-संस्कृति के प्रति उनका लगाव और प्रेम उनकी बातों एवं भाव-भंगिमाओं से मानो टपक रहा था। उन्होंने अपने अंदाज में इस बात को स्थापित किया कि हमें अनावश्यक अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी संस्कृति से डरने या शर्मिंदा होने की कोई जरूरत नहीं है। हम जैसे हैं, बहुत अच्छे हैं। हमें अपनी भाषा और अपने तौर-तरीके से रहना चाहिए।उनका अंदाज कुछ ऐसा था जैसे कि बहुत लंबे समय के बाद वे कल के सामान्य परिवार के अनुपम जैसे आम लोगों के बीच आए हैं, अपने लोगों से बातें कर रहे हैं, अपने मन की बात कर रहे हैं।
कई वक्ताओं और कलाकारों ने जनभाषा में न्याय की बात कही और पुरजोर ढंग से उसके लिए आवाज उठाई। इससे व्यक्तिगत तौर पर मुझे और मेरी तरह ऐसे अनेक व्यक्तियों, अधिवक्ताओं और संस्थाओं का मनोबल भी बढ़ा होगा, जो जनता की भाषा में जनता को न्याय के लिए बरसों से संघर्ष कर रहे हैं। इस सम्मेलन के माध्यम से जनभाषा में न्याय की माँग न केवल देश की जनता को, न केवल इसके लिए संघर्ष करने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को बल्कि औपनिवेशिक रंग-ढंग और अंग्रेजी भाषा में डूबी न्यायपालिका तक भी पहुँचेगी, इसमें कोई संदेह नहीं है। अगर न पहुँचे तो पहुँचाई जानी चाहिए कि माननीय अब भारत को अंग्रेजों से आजाद हुए ७५ वर्ष बीत गए हैं, जागो।
कुल मिलाकर सम्मेलन देशवासियों को भाषायी एकता, राष्ट्रीय संपर्क भाषा की आवश्यकता को समझने और जनतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप, जनभाषा को महत्व देने का संदेश दे गया।
-डॉ. मोतीलाल गुप्ता ‘आदित्य’, मुम्बई