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‘रेवड़ी संस्कृति’ लोकतंत्र का आधार नहीं

ललित गर्ग

दिल्ली
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बिहार की राजनीति एक बार फिर चुनावी रंग में रंग चुकी है। हर चुनावी सभा में, गली-मोहल्ले से लेकर सोशल मीडिया तक मुफ्त रेवड़ियों की घोषणाओं और वादों की बाढ़ आई हुई है। यह चुनावी मौसम पहले की तरह इस बार भी ‘रेवड़ी संस्कृति’ से सराबोर है। महागठबंधन हो या एनडीए-दोनों गठबंधन एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में ऐसे-ऐसे वादे कर रहे हैं, जो सुनने में आकर्षक लगते हैं, पर उनकी व्यवहारिकता और आर्थिक सम्भावना पर गंभीर प्रश्न उठते हैं। ये चुनावी वादे कैसे पूरे होंगे या जनता के साथ विश्वासघात होगा ? हर दल मतदाताओं को लुभाने के लिए घोषणाओं की झड़ी लगा रहा है, लेकिन शायद ही किसी ने यह सोचा हो कि इन लोक लुभावन योजनाओं के लिए धन कहाँ से आएगा, कैसे उनकी पूर्ति होगी और क्या यह राज्य की कमजोर आर्थिक स्थिति पर और बोझ नहीं बनेगा।
बिहार का यह चुनाव इसलिए खास नहीं है, क्योंकि इससे २ दशक से राज्य का चेहरा रहे मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भविष्य तय होना है-खास इसलिए है क्योंकि दोनों गठबंधनों की तरफ से एक जैसी राजनीति चल रही है-लोक लुभावन घोषणाओं की। दोनों की गठबंधन की आसमानी घोषणाएं लुभा रही है, जनता को गुमराह कर रही है, सीधे-सीधे रूप में यह मतों को खरीदने की साजिश है। नीति आयोग के आँकड़े बताते हैं कि देश की जनसंख्या में बिहार का हिस्सा ९ प्रतिशत से ज्यादा है, पर जीडीपी में योगदान २०२१-२२ में घटकर २.८ प्रतिशत रह गया। बिहार की प्रति व्यक्ति आय देश की औसत प्रति व्यक्ति आय का केवल ३० प्रतिशत है, जबकि बेरोजगारी ज्यादा है। २२-२३ में राज्य की जीडीपी की तुलना में ऋण का अनुपात ३९.६ प्रतिशत था।
बिहार के सामने सबसे बड़ी समस्या है आय के साधन जुटाने की। कुल कमाई में उसका अपना कर राजस्व केवल २३ प्रतिशत है और केंद्र की तरफ से अनुदान का हिस्सा २१ प्रतिशत। जन सुराज का दावा है कि मुफ्त की योजनाओं को पूरा करने के लिए ३३ हजार करोड़ चाहिए होंगे। इसको सच मान लें तो राज्य के कुल बजट में से रोजमर्रा के कामकाज व योजनाओं का खर्च निकालने के बाद करीब ४० हजार करोड़ ₹ बचते हैं। क्या मुफ्त रेवड़ियों की घोषणाओं के वादे इससे पूरे होंगे ? एनडीए और महागठबंधन, दोनों ही एक-दूसरे की घोषणाओं पर सवाल उठा रहे हैं। हालांकि, हकीकत में दोनों को बताना चाहिए कि वे किस तरह इन वादों को पूरा करेंगे। बेरोजगारों को भत्ता, महिलाओं को नकद सहायता, युवाओं को लैपटॉप, किसानों के लिए ऋणमाफी-इन घोषणाओं की बाढ़ ने लोकतंत्र को मजबूती देने के बजाय उसे लोक लुभावन जाल में फंसा दिया है। यह स्थिति केवल बिहार की नहीं, पूरे देश की राजनीति में एक नई प्रवृत्ति के रूप में उभर रही है, जहां सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता जनता की विवेकशीलता से नहीं, बल्कि प्रलोभनों की मिठास से तय किया जा रहा है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं, क्योंकि यह मतदाता को उपभोक्ता में बदल देती है और राजनीति को नीति से भटकाकर लाभ के गणित में फंसा देती है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा कही गई ‘रेवड़ी संस्कृति’ की अवधारणा आज बिहार की राजनीति में पूर्णरूपेण साकार होती दिख रही है। मुफ्त बिजली, राशन, यात्रा या सहायता योजनाएं अब चुनावी घोषणाओं की अनिवार्य शर्त बन गई हैं। जनकल्याण का उद्देश्य पीछे छूट गया है, सामने है तो केवल मतों की गिनती। इन घोषणाओं से मतदाता को प्रभावित करना एक तरह का नरम भ्रष्टाचार है, जहां खरीदी खुलकर नहीं होती, पर मानसिक रूप से मतदाता को बंधक बना लिया जाता है। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र की आत्मा पर आघात है, क्योंकि यह नीतियों-सिद्धांतों को कमजोर करती है और राजनीति को केवल सत्ता प्राप्ति का खेल बना देती है। लोकतंत्र तभी सशक्त होगा, जब चुनाव नैतिक और नीति-सम्मत हों। चुनाव का अर्थ केवल जीत और हार नहीं, बल्कि समाज के चरित्र और दिशा का निर्धारण है। नैतिक राजनीति वही है जिसमें जनहित को सर्वाेपरि माना जाए, न कि तत्कालिक लाभ को। यदि राजनीतिक दल अपने घोषणा-पत्र में केवल आकर्षक वादे ही भरते जाएं और उनके पीछे कोई आर्थिक या सामाजिक दृष्टि न हो, तो यह लोकतंत्र की आत्मा के साथ खिलवाड़ है। मतदाता को चाहिए कि वह ऐसी घोषणाओं से प्रभावित न हो, बल्कि यह देखे कि कौन-सी पार्टी या नेता दीर्घकालिक सुधार, रोजगार सृजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और सुशासन की बात कर रहा है। लोकतंत्र उपहार नहीं, उत्तरदायित्व है, इसे समझना और निभाना नागरिक का धर्म है।
वोट किसी के द्वारा दी जा रही मुफ्त सुविधाओं के लिए नहीं, बल्कि भविष्य की स्थिरता, सुशासन और सच्चे विकास के लिए दिया जाना चाहिए। महागठबंधन को चाहिए कि वह अपने घोषणा-पत्र को भावनात्मक अपील की बजाय आर्थिक व्यवहार्यता के साथ तैयार करे। यही रणनीति जनता में भरोसा जगाएगी और विपक्ष के हमलों को कमजोर करेगी। तेजस्वी यादव की पूरी चुनावी रणनीति धुआंधार वादों के इर्द-गिर्द घूम रही है। राजनीति में कोई भी वादा तब ताकत बनता है, जब उसमें विश्वसनीयता, यथार्थता और क्रियान्वयन की संभावना हो।
लोकतंत्र की पवित्रता तभी बचेगी, जब राजनीति नीति से संचालित होगी, जब सत्ता सेवा का माध्यम बनेगी और जब मतदाता अपने विवेक से निर्णय लेगा। बिहार जैसे प्रबुद्ध राज्य को चाहिए कि वह रेवड़ी संस्कृति से ऊपर उठकर विकास, रोजगार, शिक्षा, नैतिकता और सुशासन पर आधारित राजनीति का चयन करे।