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रोका जाए बच्चों के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता को

ललित गर्ग
दिल्ली
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बच्चों के प्रति समाज को जितना संवेदनशील होना चाहिए, उतना नहीं हो पाया है। कैसा विरोधाभास है कि, समाज, सरकार और राजनीतिज्ञ बच्चों को देश का भविष्य मानते नहीं थकते। फिर भी उनकी बाल-सुलभ संवेदनाओं को कुचला जाना लगातार जारी है। बच्चों के प्रति संवेदनहीनता को सिर्फ जघन्य अपराधों में ही नहीं देखा जाना चाहिए, बल्कि कई ऐसे मौके हैं, जब समाज के संवेदनहीन व्यवहार का हमें अहसास भी नहीं होता, वैसा व्यवहार लगातार बच्चों पर होता रहता है। सोशल मीडिया पर बच्चों के बारे में की गई टिप्पणियों के आईने में समाज को अपना चेहरा देखना चाहिए। क्यों हम नन्हें बच्चों को अपनी विकृत मानसिकता एवं वीभत्स सोच का शिकार बनाते हैं ? ऐसी ही एक त्रासद एवं विडम्बना घटना ने एक बार फिर बच्चों के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता को दर्शाया है। क्रिकेट जगत की दो हस्तियों महेंद्र सिंह धोनी और विराट कोहली की बेटियों पर की गई अभद्र एवं अश्लील टिप्पणियों की शर्मनाक घटना की जितनी भर्त्सना की जाए कम है।
प्रश्न कार्रवाई का नहीं है, प्रश्न है कि ऐसी विकृत सोच क्यों पनप रही है ? प्रश्न यह भी है कि हम खेल को खेल की तरह देखना कब सीखेंगे ? प्रश्न यह भी है कि ऐसी घटनाओं पर स्थायी नियंत्रण के लिए सरकार क्या व्यवस्था कर रही है ?, क्योंकि यह देश के करीब ३० करोड़ बच्चों से जुड़ा ऐसा मामला है जिसे समय पर काबू में नहीं किया गया तो तैयार होने वाले बच्चों में विकृतियाँ एवं विद्रूपताएं घर कर लेगी। एक बीमार पीढ़ी का निर्माण होना तय है। विडंबना यह भी है कि, सरकारी एजेंसियों की सख्ती भी काम नहीं आ रही है और लगातार ऐसी घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। अक्सर हम इसे नजरअंदाज कर देते हैं। मामला तभी तूल पकड़ता है, जब किसी हस्ती के साथ ऐसी घटना हो जाए।अब फिर हमेशा की तरह ऐसे आदेश ‘वही ढाक के तीन पात’ साबित नहीं हो जाएं, इसकी पुख्ता व्यवस्था होना ज्यादा जरूरी है। कुछ लोग २ और ७ साल की बच्चियों के विषय में ऐसी अभद्र, अश्लील एवं शर्मनाक बातें कर रहे है, जो इन अबोध बच्चों के साथ-साथ करोड़ों बच्चों के मानस पर गहरा नकारात्मक प्रभाव डालती है एवं सबके माथे पर शर्म का धब्बा लगाती है। यदि कोई खिलाड़ी पसंद नहीं है, तो क्या उसके बच्चों को गाली दी जाएगी। क्रिकेट का कोई भी मैच हारने के बाद निराश क्रिकेट प्रशंसकों द्वारा खिलाड़ियों को कोसना-चिढ़ाना कोई नया नहीं है, लेकिन कई बार खिलाड़ियों के परिवार वालों को गालियां तक देने लगते हैं, और अब तो बच्चों तक को आक्रोश का निशाना बनाने लगे हैं। किसी के खिलाफ भी ऐसी कार्रवाई नहीं हुई है, जिसे सबक माना जाए।
कई अन्य मौकों पर भी हम बच्चों के प्रति असामान्य व्यवहार की झलक देख सकते हैं। जैसे बच्चों के खिलौनों को ही लें। कभी ऐसे खिलौने मिट्टी और काठ के बनते थे। उन पर रंग भी ऐसे लगाए जाते थे जिनसे बच्चों को कोई नुकसान न हो, बल्कि उन पर सकारात्मक असर करें, लेकिन विडम्बना देखिए कि ज्यादा मुनाफाखोरी व बाजारवादी सोच की प्रवृत्ति ने बच्चों को भी नहीं बख्शा है। ऐसे खिलौनों के बाजार का तेजी से विकास किया है, जिनसे बच्चों के स्वास्थ्य, सोच एवं संस्कारों पर वितरीत प्रभाव पड़ता है और भारत का बचपन इन खिलौने के कारण अपने स्वास्थ्य को खतरे में डाल रहा है। हानिकारक खिलौनों को बाजार से हटाने के लिए सरकार ने नियम बना दिए हैं, फिर भी वे धड़ल्लेे से बेचे जा रहे हैं। ई-कॉमर्स के वर्तमान दौर में तो ऐसे खिलौनों के लिए बाजार जाने की भी जरूरत नहीं है। मोबाइल के एक क्लिक पर ऐसे हानिकारक खिलौने घर पर ही पहुंच जाते हैं।
बच्चों के प्रति बढ़ती संवेदनहीनता के खिलौनों एवं अभद्र टिप्पणियों के अलावा और भी डरावने दृश्य हैं, जो विचलित भी करते है एवं दुःख पहुंचाते हैं। कथित धमर्गुरुओं द्वारा अपनी मासूम शिष्याओं के साथ अवांछित बर्ताव की तो कई शिकायतें आती ही रहती हैं, लेकिन पश्चिमी उत्तर प्रदेश में एक आदमी का अपनी पत्नी से झगड़ा हो गया, तो उसने अपने मासूम बेटे का कत्ल कर दिया। मानो घर, परिवार, शाला, आश्रम, देवालय, बाजार, पंचायतों, छोटे से बड़े पर्दे तक पर मासूम बच्चे किसी वहशियाना, अभद्र, अश्लील एवं शर्मनाक बर्ताव झेलने को अभिशप्त हैं।
मासूम बच्चे केवल अंधविश्वासों के शिकार नहीं होते। सयानों के लालच, परस्पर प्रपंच और संपत्ति के लिए किए जाने वाले षड्यंत्र भी उन्हें अपना शिकार बनाते हैं। पिछले साल आई रिपोर्ट के अनुसार प्रतिदिन देश में ९०० से अधिक बच्चे यौन अपराधों के शिकार होते हैं।
मासूम मन पर हो रहे इन हमलों के कारण हम ऐसा समाज निर्मित कर रहे हैं, जिसमें हिंसा, अराजकता, अश्लीलता व्याप्त है। बच्चों के स्वभाव में चिड़चिड़ापन एवं अपसंस्कार शामिल हो रहा है। अमेरिका सहित पश्चिम के कई देशों में तो यह भी हुआ है कि, किसी बात पर परस्पर झगड़ा होने पर बच्चा हथियार लेकर विद्यालय पहुंच गया। कुछ घटनाएं दुर्याेग या तात्कालिक परिस्थितियों का परिणाम हो सकती हैं, लेकिन दुनियाभर के बच्चों के स्वभाव में बढ़ता चिड़चिड़ापन और उग्रता निश्चित रूप से हर संवेदनशील व्यक्ति के लिए चिंता का विषय होना चाहिए। बाँह पसार कर अपने आत्मीयों से मिलने को आतुर बचपन अपने समाज एवं घर के आसपास ही अनेक संकटों का सामना कर रहा है। महानगरों में तो कामकाजी माता-पिताओं के बच्चे घरेलू बाइयों के भरोसे होते हैं और इनके बुरे बर्ताव की खबरें आए-दिन सामने आती रहती हैं। जरूरत इस बात की है कि, हम बच्चों के संवेदनशील मन की जरूरतों को समझें और इससे पहले कि उनका अकेलापन किसी उग्रता से ग्रसित हो, प्रेम की एक जादू भरी झप्पी के साथ उन्हें संस्कारित करें, क्योंकि बच्चों के प्रति निभाया गया यह दायित्व ही हमारे भविष्य को सुनहरा करेगा। बच्चों के प्रति संवेदनहीनता बरतने की बजाय उनके बीच स्नेह, आत्मीयता और विश्वास का भरा-पूरा वातावरण पैदा किया जाए। सरकार को बच्चों से जुड़े कानूनों पर पुनर्विचार करना चाहिए एवं बच्चों के प्रति घटने वाली संवेदनहीनता की घटनाओं पर रोक लगाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।

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