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वाह रे! ओ खुदगर्ज इंसान

हेमराज ठाकुर
मंडी (हिमाचल प्रदेश)
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वाह रे ओ खुदगर्ज! चौरासी श्रेष्ठ इंसान,
मैं हूँ इंसान बस, मैं ही रहूंगा जिंदा
निरीह प्राणियों की, बलि चढ़ा कर,
क्यों करता है इंसानियत को शर्मिंदा ?

हिन्दू-मुस्लिम दोनों ढोंगी,
देव-खुदा का करते बहाना
प्रथा तो यहां पर नर बलि की भी थी,
काटना मुझको,पकाना-खाना।

बकरों की बलि से सुधरे कुछ तो,
इंसानी बलि से फिर होगा कमाल
नर बलि को तो कानून बना डाले,
वे कटते रहे और होते रहे हलाल।

वे देव कहां फिर दानव है सब,
जो खुश होने को लेते हैं किसी की जान
वे इंसान कहां फिर राक्षस है सब,
जो अपनी सलामती में करते निरीह कुर्बान।

वे बकरीद की नमाज में हलाली चाहते हैं,
ये मंदिरों में काट-काट के करते हैं पूजा
मेरे लेखे ये दोनों ही नृशंस-निरीह हत्यारे,
न एक है धर्मी गुण ज्ञानी और न ही तो दूजा।

वेद-कतेब में कहां लिखी बलि ?
कौन स्वीकारता है इनकी पूजा ?
ये दानव संस्कृति के संवाहक सारे,
मानव संस्कृति में कौन है जूझा ?

बकरे का बच्चा काट कर,
खुद के बच्चे की मनाते हैं खैर
ईमान-धर्म तुम बांट रहे हो,
या कि, गुड में मिला मीठा जहर ?

प्रलय-कयामत में क्या होगा ?
जब खुदा-प्रभु की कचहरी होगी
निरीह की होगी बल्ले-बल्ले,
तुम पर चोटें,गहरी होगी।

कुदरत सिखाती सत्य साहेब,
तालाबंदी में क्यों सब बिन बलि रहे ?
देव-खुदा का दोष नहीं सब,
इंसानी फितरत, क्या किससे कहे… ?

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