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विपक्षी दल भाजपा को मात देने में होंगे सफल ?

ललित गर्ग
दिल्ली
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नया वर्ष शुरु होते ही राजनीतिक दलों की सरगर्मियां भी नए मोड़ पर आने लगी हैं। क्योंकि इस वर्ष ९ राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तेलंगाना, त्रिपुरा, मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में विधानसभा चुनाव होने हैं एवं अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव। खास तौर से अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव की तैयारियों को लेकर भारतीय जनता पार्टी एवं अन्य राजनीतिक दलों ने अभी से कमर कसना शुरु कर दिया है। भाजपा ने राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में जिस तरह का जोश और जितना आत्मविश्वास दिखाया, उसे स्वाभाविक ही कहा जा सकता है और माना जा रहा है कि इस वर्ष के विधानसभा चुनावों के साथ अगले वर्ष के लोकसभा चुनाव में फिर भाजपा चमत्कार घटित करने की तैयारी में है। विपक्षी दलों का उत्साह एवं जोश भी कम नहीं है। केन्द्रीय एवं राष्ट्रीय राजनीति में एक बार फिर राष्ट्रीय दल व क्षत्रप संगठित होते दिख रहे हैं। छोटे-से-छोटा दल भी यह माने बैठा है कि, हम ही सत्ता प्राप्ति में संतुलन बिठाएंगे। चुनावी गणित जिस प्रकार से बनाने के प्रयास हो रहे हैं, उसमें क्या तीसरी शक्ति निर्णायक बनने की मुद्रा में आ सकेगी ? राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ का भी इन चुनावों में असर देखने को मिल सकता है। बावजूद इन सब स्थितियों एवं जोड़-तोड़ के राजनीतिक गणित के लगता नहीं है कि केन्द्र में भाजपा की सरकार बनाने में कोई बड़ा अवरोध खड़ा करने में विपक्षी दल सफल होंगे।
भाजपा की बैठक ने विभिन्न दलों की नींद उड़ा दी है। बैठक ऐसे समय हुई है, जब न केवल लोकसभा चुनाव ज्यादा दूर हैं, बल्कि उससे पहले विधानसभा चुनाव भी होने हैं। इनमें से ५ राज्यों में भाजपा या तो अकेली या सहयोगी दलों के साथ सरकार में है। इस वर्ष जिन २ राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए हैं, उसमें कोई दो राय नहीं कि गुजरात में दल ने ऐतिहासिक जीत हासिल की, लेकिन हिमाचल प्रदेश में जो कसर रह गई, उससे कांग्रेस के हौंसले बुलंद हैं। भाजपा के अपराजेय रहने का लक्ष्य हासिल नहीं करने दिया, जिसकी समर्थक उम्मीद कर रहे थे। ऐसे में अब और जरूरी हो गया है कि, उस कसर की भरपाई नेतृत्व कार्यकर्ताओं के जोश और उनके मनोबल को कई गुना बढ़ाकर करे।
सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस प्रकार दल-टूटन व गठबंधन की संभावनाएं बन रही है इससे सबके मन में अकल्पनीय सम्भावनाओं की सिहरन है। विपक्ष संगठित हो, अच्छी बात है लेकिन इससे राष्ट्र और राष्ट्रीयता के अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगने चाहिए। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ क्या राजनीतिक दलों को जोड़ पाएगी ? नजरें उनकी इस यात्रा में शामिल होने वाले राजनीतिक दलों पर भी लगी है, लेकिन ऐसा कोई दल अभी तक तो सामने नहीं आया है। बहुजन समाज पार्टी ने आगामी चुनावों में अकेले लड़ने का ऐलान कर रणनीति साफ कर दी है, वहीं कांग्रेस ने यात्रा के समापन पर विपक्षी दलों को आमंत्रण देकर नए सिरे से विपक्षी एकता की ताकत आँकने का पासा फेंका है। इतना ही नहीं, दूसरे छोटे-बड़े राजनीतिक दल भी अपने राजनीतिक फायदे के लिए गठजोड़ की राजनीति के गुणा-भाग में व्यस्त हो गए हैं। कांग्रेस में एक और दांव खेला जा रहा भाजपा नेता वरुण गांधी को पार्टी में लाने एवं २ भाइयों का राजनीतिक मिलन कराने का। यह भी आगामी चुनावों के मद्देनजर है। प्रजातंत्र में टकराव भी हो, तो मिलन भी हो, मन-मुटाव भी हो, पर मर्यादापूर्वक, लेकिन राजनीति की विडम्बना है कि अब मर्यादा एवं राजनीतिक मूल्यों के इस आधार को ताक पर रख दिया गया है। राजनीति में दुश्मन स्थाई नहीं होते। अवसरवादिता दुश्मन को दोस्त और दोस्त को दुश्मन बना देती है। यह भी बडे़ रूप में देखने को मिल रहा है और जैसे-जैसे चुनावों का समय नजदीक आएगा, ये दृश्य व्यापक रूप में दिखाई देंगे।
चुनाव के मौकों पर नए समीकरणों के साथ गठबंधन की बातों से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन, अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि इन समीकरणों के पीछे विचारधारा का जोड़ कम और राजनीतिक फायदे का तोड़ अधिक नजर आता है। वर्ष १९७७ के बाद से गठजोड़ की राजनीति के गवाह रहे देश ने कई समीकरण बनते-बिगड़ते देखे हैं। कभी भाजपा का चौधरी चरण सिंह से गठजोड़, तो कभी कांग्रेस को रोकने के लिए वीपी सिंह के नेतृत्व में भाजपा और वाम दलों का परोक्ष रूप से हाथ मिलाना। पिछले लोकसभा चुनाव में शिवसेना, जनता दल-यू और अकाली दल के साथ मिलकर चुनाव लड़ी भाजपा बदले समीकरणों में अगला चुनाव इनके खिलाफ लड़ सकती है। चिंता इस बात की है कि, ऐसे बनते-बिगड़ते समीकरणों का सीधा मकसद विचारधारा का आधार नहीं, बल्कि सत्ता में भागीदारी करना भर रह गया है। राजनीतिक मूल्यों एवं लोकतंत्र को मजबूती देने का लक्ष्य किसी के भी सामने दिखाई नहीं देता। गठबंधन की राजनीति की शुरुआत में ही टूटन एवं निराशा के बादल छाए हैं। एक और बात है कि भाजपा ने दुनिया में देश की छवि को बुलंद करने का अपना मुख्य उद्देश्य काफी हद तक बनाए रखा है। राममंदिर के समय पर निर्माण में कामयाबी भी भाजपा के पक्ष में काम करेगी और पार्टी अगले लोस चुनाव में इसका पूरा इस्तेमाल करने में हिचकेगी नहीं। भाजपा की ओर से विकास, रोजगार एवं महंगाई पर नियंत्रण भी बड़े मुद्दे हांगे। प्रधानमंत्री की लोकप्रियता को अब भी पार्टी अपना ऐसा अचूक हथियार मानती है जिसकी कोई काट विपक्ष के पास नहीं है। क्या विपक्षी दल भी ऐसे तीक्ष्ण एवं व्यापक प्रभाव वाले निर्णयों एवं कार्ययोजनाओं की ओर अग्रसर होंगे ? क्या भाजपा को रोकने के लिए वे साझा उम्मीदवार उतारेंगे ? यह सवाल इसलिए, क्योंकि राजनीति की प्रयोगशाला में गठबंधन के प्रयोग विचारधारा को ताक में रखने के कारण ही विफल होते रहे हैं।

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