कल्याण सिंह राजपूत ‘केसर’
देवास (मध्यप्रदेश)
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आज का समाज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है, जहाँ बाहरी स्वतंत्रता तो बढ़ी है, पर आंतरिक अनुशासन लगातार कमजोर होता जा रहा है। मनुष्य के मन, मस्तिष्क, वाणी, कर्म और व्यवहार पर उसका स्वयं का नियंत्रण कम और बाहरी तत्वों का प्रभाव अधिक दिखाई देता है। यह स्थिति केवल व्यक्तिगत जीवन तक सीमित नहीं है, बल्कि परिवार, समाज और राष्ट्र की संरचना को भी प्रभावित कर रही है।
अक्सर देखने में आता है कि व्यक्ति अपने ही सबसे पवित्र रिश्तों-पति-पत्नी, माता-पिता, भाई-बहन और संतान के प्रति क्रोध, ईर्ष्या, अशिष्टता और हिंसक व्यवहार करने लगता है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर यह बदलाव क्यों ? इसका उत्तर हमें व्यक्ति के कुसंग, व्यसन, हिंसक व अश्लील मनोरंजन और असंस्कारी प्रभावों में मिलता है। ये तत्व धीरे-धीरे व्यक्ति के विचारों पर अधिकार कर लेते हैं और रिश्तों में विष घोल देते हैं।
विशेषकर आज की युवा पीढ़ी अनेक विकृत आचरणों से घिरी हुई है। उग्रता, असहिष्णुता, नशा और अनैतिक व्यवहार को सामान्य- प्रशंसनीय मान लिया गया है। विडंबना यह है कि गलत बातों पर तालियाँ मिलती हैं, जबकि सच्चाई, धैर्य, शांति और शिष्टाचार की बात करने पर व्यक्ति आक्रोशित हो उठता है। यह प्रवृत्ति बताती है कि बौद्धिक क्षमता की कमी नहीं है, बल्कि विवेक के सही उपयोग का अभाव है। नैतिकता, शिष्टाचार, सभ्यता, शुद्ध आचरण,स्वाभिमान, सम्मान आदि से इंसान का बौद्धिक स्तर श्रेष्ठ है, क्योंकि सोशल मीडिया या सोशल साइट में विश्व स्तरीय ज्ञान का भंडार है, जिसे आज का युवा पढ़ता भी है। दुर्भाग्यवश समझ कर इन सबका उपयोग नहीं कर पाता है। विशेषकर घर-परिवार, रिश्तेदार, समाज में ही सदबुद्धि का उपयोग नहीं करता है, जिसके कारण पारिवारिक रिश्ते पति- पत्नी, पिता-पुत्र, भाई-बहन, माता-पिता आदि में गहराई से समझ, समर्पण, त्याग, अर्पण, बलिदान आदि की भावना विलुप्त- सी होकर स्वार्थ, लालच और ईर्ष्या की भावना उत्पन्न होने लगी है। ऐसे ही चंद कारणों से रिश्तों में दूरी खटास-दरार सी होने लगी है। सारे रिश्ते-नाते झूठ से लगने लगते हैं। सब आडंबर सा लगता है।
आज का मनुष्य आंतरिक रूप से कमजोर हो गया है। वह भौतिक संसाधनों और सुविधाओं में सुख खोजता है, पर आत्म-संतोष संतुष्टि, धैर्य ईमान, धर्म और आत्म-संयम को पीछे छोड़ देता है। परिणामस्वरूप जैसे ही परिस्थितियाँ विपरीत होती हैं, व्यक्ति अपने व्यवहार और वाणी पर नियंत्रण खो देता है। सामाजिक और आर्थिक पतन के बाद ही उसे अपनी भूल का एहसास होता है, जो अक्सर बहुत देर से आता है।
समाधान बाहरी नियंत्रण में नहीं, बल्कि आत्म-अवलोकन और आत्म-मंथन में निहित है। व्यक्ति को यह समझना होगा, कि सच्ची शक्ति बाहरी साधनों में नहीं, बल्कि भीतर के चरित्र में होती है। जब मनुष्य आंतरिक रूप से दृढ़ होता है, तो कोई भी बुराई उसे विचलित नहीं कर सकती। ठीक वैसे ही, जैसे चंदन पर चाहे कितने ही विषैले सर्प लिपटे हों, उसकी सुगंध बनी रहती है;और सोना हर परिस्थिति में सोना ही रहता है।
आज आवश्यकता है कि परिवार, शिक्षा व्यवस्था और समाज मिलकर युवाओं में आत्म-नियंत्रण, नैतिकता और विवेक के मूल्यों को पुनः स्थापित करें। यही मूल्य व्यक्ति को सशक्त बनाएंगे, रिश्तों को सुरक्षित रखेंगे और समाज को सही दिशा देंगे, क्योंकि आत्म-नियंत्रण ही वह आधार है, जिस पर एक स्वस्थ व्यक्ति, परिवार, समाज और सशक्त राष्ट्र का निर्माण कर सकता है।