डॉ.वेदप्रताप वैदिक
गुड़गांव (दिल्ली)
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गुजरात के उच्च न्यायालय में भाषा के सवाल पर फिर विवाद खड़ा हो गया है। एक पत्रकार विशाल व्यास ने गुजराती में ज्यों ही बोलना शुरु किया, जजों ने कहा कि आप अंग्रेजी में बोलिए। व्यास अड़े रहे। उन्होंने कहा कि मैं गुजराती में ही बोलूंगा। जजों ने कहा कि संविधान की धारा ३४८ के अनुसार इस अदालत की भाषा अंग्रेजी है। यदि व्यास चाहें तो उनकी बात का अंग्रेजी अनुवाद करने की सुविधा का इंतजाम अदालत कर देगी। अदालत की यह उदारता सराहनीय थी,लेकिन यह कितने दु:ख की बात है कि भारत की अदालतों में आज भी अंग्रेजी का एकाधिकार है। धारा ३४८ कहती है कि अदालत की भाषा अंग्रेजी होगी, लेकिन इनसे कोई पूछे कि क्या अपराधी या याचिकाकर्ता को भी अदालत मानते हैं ? आप उन्हें उनकी भाषा में क्यों नहीं बोलने देते ? आप उन पर अंग्रेजी लादकर उनके मौलिक अधिकार का हनन कर रहे हैं। इतना ही नहीं,अंग्रेजी में चलनेवाली सारी अदालती कार्रवाई के कारण देश के साधारण लोगों से ठगी होती है। उन्हें पल्ले ही नहीं पड़ता कि उनके और विपक्ष के वकील क्या बहस कर रहे हैं? उनके तथ्य और तर्क सीधे हैं या उल्टे हैं,यह मुवक्किल लोग तय ही नहीं कर पाते हैं और अंग्रेजी में जो फैसले होते हैं,उनको समझना तो हिमालय पर चढ़ने जैसा है। धारा ३४८ यह भी कहती है कि संसद चाहे तो वह संविधान में संशोधन करके ऊंची अदालतों में भारतीय भाषाओं को चला सकती है। वह कानून को अंग्रेजी में बनाने की अनिवार्यता भी खत्म कर सकती है। इसके अलावा इसी धारा में यह प्रावधान भी है कि किसी भी प्रांत का राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति से अपने उच्च न्यायालय में हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं के इस्तेमाल की इजाजत दे सकता है। यहां सवाल यही है कि, गुजरात-जैसे राज्य में भी इस प्रावधान को अभी तक लागू क्यों नहीं किया गया ? यह वही गुजरात है,जिसमें भाजपा के नरेंद्र मोदी वर्षों मुख्यमंत्री रहे हैं और अब प्रधानमंत्री हैं। महर्षि दयानंद और महात्मा गांधी,दोनों ही गुजराती थे और दोनों ने ही हिंदी का बीड़ा उठा रखा था। भारत के सभी राज्यों में गुजरात को तो सबसे आगे होकर विधानसभा और उच्च न्यायालय में गुजराती और हिंदी को अनिवार्य करना चाहिए था। संसद के प्रबुद्ध सांसदों को चाहिए कि वे संविधान की धारा ३४८ में संशोधन करवाकर अंग्रेजी के एकाधिकार को कानून-निर्माण और अदालतों से बाहर करें। यदि संसद और विधानसभाएं दृढ़ संकल्प कर लें तो अंग्रेजी की गुलामी तत्काल खत्म हो सकती है,जैसे १९१७ में सोवियत रुस में से फ्रांसीसी,२०० साल पहले फिनलैंड में से स्वीडी और १६वीं सदी में ब्रिटेन में से फ्रांसीसी और तुर्की में से फ्रांसीसी भाषा और अरबी लिपि को खत्म किया गया। अंग्रेजी भाषा की गुलामी अंग्रेज लोगों की गुलामी से भी बदतर है। क्या देश में कोई ऐसा राजनीतिक दल या नेता है,जो इस गुलामी से भारत का छुटकारा करवा सके ?
परिचय– डाॅ.वेदप्रताप वैदिक की गणना उन राष्ट्रीय अग्रदूतों में होती है,जिन्होंने हिंदी को मौलिक चिंतन की भाषा बनाया और भारतीय भाषाओं को उनका उचित स्थान दिलवाने के लिए सतत संघर्ष और त्याग किया। पत्रकारिता सहित राजनीतिक चिंतन, अंतरराष्ट्रीय राजनीति और हिंदी के लिए अपूर्व संघर्ष आदि अनेक क्षेत्रों में एकसाथ मूर्धन्यता प्रदर्शित करने वाले डाॅ.वैदिक का जन्म ३० दिसम्बर १९४४ को इंदौर में हुआ। आप रुसी, फारसी, जर्मन और संस्कृत भाषा के जानकार हैं। अपनी पीएच.डी. के शोध कार्य के दौरान कई विदेशी विश्वविद्यालयों में अध्ययन और शोध किया। अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त करके आप भारत के ऐसे पहले विद्वान हैं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय राजनीति का शोध-ग्रंथ हिन्दी में लिखा है। इस पर उनका निष्कासन हुआ तो डाॅ. राममनोहर लोहिया,मधु लिमये,आचार्य कृपालानी,इंदिरा गांधी,गुरू गोलवलकर,दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी सहित डाॅ. हरिवंशराय बच्चन जैसे कई नामी लोगों ने आपका डटकर समर्थन किया। सभी दलों के समर्थन से तब पहली बार उच्च शोध के लिए भारतीय भाषाओं के द्वार खुले। श्री वैदिक ने अपनी पहली जेल-यात्रा सिर्फ १३ वर्ष की आयु में हिंदी सत्याग्रही के तौर पर १९५७ में पटियाला जेल में की। कई भारतीय और विदेशी प्रधानमंत्रियों के व्यक्तिगत मित्र और अनौपचारिक सलाहकार डॉ.वैदिक लगभग ८० देशों की कूटनीतिक और अकादमिक यात्राएं कर चुके हैं। बड़ी उपलब्धि यह भी है कि १९९९ में संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आप पिछले ६० वर्ष में हजारों लेख लिख और भाषण दे चुके हैं। लगभग १० वर्ष तक समाचार समिति के संस्थापक-संपादक और उसके पहले अखबार के संपादक भी रहे हैं। फिलहाल दिल्ली तथा प्रदेशों और विदेशों के लगभग २०० समाचार पत्रों में भारतीय राजनीति और अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर आपके लेख निरन्तर प्रकाशित होते हैं। आपको छात्र-काल में वक्तृत्व के अनेक अखिल भारतीय पुरस्कार मिले हैं तो भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों में विशेष व्याख्यान दिए एवं अनेक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व किया है। आपकी प्रमुख पुस्तकें- ‘अफगानिस्तान में सोवियत-अमेरिकी प्रतिस्पर्धा’, ‘अंग्रेजी हटाओ:क्यों और कैसे ?’, ‘हिन्दी पत्रकारिता-विविध आयाम’,‘भारतीय विदेश नीतिः नए दिशा संकेत’,‘एथनिक क्राइसिस इन श्रीलंका:इंडियाज आॅप्शन्स’,‘हिन्दी का संपूर्ण समाचार-पत्र कैसा हो ?’ और ‘वर्तमान भारत’ आदि हैं। आप अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों और सम्मानों से विभूषित हैं,जिसमें विश्व हिन्दी सम्मान (२००३),महात्मा गांधी सम्मान (२००८),दिनकर शिखर सम्मान,पुरुषोत्तम टंडन स्वर्ण पदक, गोविंद वल्लभ पंत पुरस्कार,हिन्दी अकादमी सम्मान सहित लोहिया सम्मान आदि हैं। गतिविधि के तहत डॉ.वैदिक अनेक न्यास, संस्थाओं और संगठनों में सक्रिय हैं तो भारतीय भाषा सम्मेलन एवं भारतीय विदेश नीति परिषद से भी जुड़े हुए हैं। पेशे से आपकी वृत्ति-सम्पादकीय निदेशक (भारतीय भाषाओं का महापोर्टल) तथा लगभग दर्जनभर प्रमुख अखबारों के लिए नियमित स्तंभ-लेखन की है। आपकी शिक्षा बी.ए.,एम.ए. (राजनीति शास्त्र),संस्कृत (सातवलेकर परीक्षा), रूसी और फारसी भाषा है। पिछले ३० वर्षों में अनेक भारतीय एवं विदेशी विश्वविद्यालयों में अन्तरराष्ट्रीय राजनीति एवं पत्रकारिता पर अध्यापन कार्यक्रम चलाते रहे हैं। भारत सरकार की अनेक सलाहकार समितियों के सदस्य,अंतरराष्ट्रीय राजनीति के विशेषज्ञ और हिंदी को विश्व भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने के लिए कृतसंकल्पित डॉ.वैदिक का निवास दिल्ली स्थित गुड़गांव में है।