विजयलक्ष्मी विभा
इलाहाबाद(उत्तरप्रदेश)
************************************
मुंशी जी-कथा संवेदना के पितामह …
हिन्दी कहानी जगत में मुंशी प्रेमचंद का अभ्युदय सूर्योदय की भांति हुआ, जो माघ पूस की बर्फीली सर्दी में धूप का सुख प्रदान करता है। वे अपनी कहानी में जो स्वानुभूत पीड़ा से उद्भूत कथ्य शिल्प लेकर आए, उसमें क्लान्त श्रांत मानवता की बहुआयामी पीड़ा से लेकर विशुद्ध मानवता की स्थापना हेतु चेतना जागृत करने तक का लम्बा और कठिन सफ़र है, जिसे हम उनकी रचनाधर्मिता की सर्वोच्च स्थिति मानते हैं। अपनी पीड़ा में समूची मानव जाति की पीड़ा का अनुभव कर मुंशी प्रेमचंद ने सामाजिक उत्पीड़न का कोई भी ऐसा पहलू नहीं छोड़ा, जिसे हम उनकी कहानियों में न पाते हों। व्यक्तिगत व्यथा, पारिवारिक व्यथा, सामाजिक व्यथा, सामन्तशाही की तानाशाही से उत्पन्न व्यथा, जाति और सम्प्रदायगत व्यथा, वर्ण व्यवस्था से जन्मे विभेदों की व्यथा, धर्म और कर्म-कांडों के पीछे चलते दुष्कृत्यों से उपजी व्यथा, सबल द्वारा निर्बल को प्रताड़ित करने की व्यथा, सवर्णों द्वारा दलितों के शोषण की व्यथा, न्याय के मठाधीशों द्वारा किए जाने वाले अन्याय और अत्याचारों की व्यथा, गरीबी और अमीरी के बीच की असमानता से आहूत घुटन और आक्रोश की व्यथा, मानवता के बीच विसंगतियों से पैदा हुई हिंसा और आतंक की व्यथा से लेकर संवेदनशून्य मानवता की स्थापना तक विचारों के ऐसे चित्र उनकी कहानियों में मिलते हैं, जो सहज ही पाठक के मन-मस्तिष्क को अभिभूत कर उसे सकारात्मक निष्कर्ष के संकल्प की प्रेरणा से भर देते हैं। यही कारण है कि, उनके पूर्ववर्ती कहानीकार उनके प्रकाश के आगे ठहर नहीं पाते। हिन्दी-कहानी के अभ्युदय का श्रेय उन्हें ही मिला और वे ही कहानी जगत में प्रेय बने।
हम उनकी कोई भी कहानी उठा लें, उनमें कहानी की वे विशेषताएँ भी अनिवार्य रूप से दिखाई पड़ती हैं, जिन्हें हिन्दी साहित्य के मनीषियों ने कहानी के कला पक्ष के रूप में रखा है। भाव पक्ष तो उनका अपना है, जो अद्वितीय है। उदाहरण के लिए उनकी कहानी ‘पूस की रात’ को उद्धत करती हूँ-
‘पूस की रात’ में निर्धनता से पीड़ित कृषक की व्यथा कथा है। हलकू ने मजूरी से एक-एक पैसा काट कर ३ रुपए मात्र कम्बल खरीदने के लिए बचा कर रखे थे, परन्तु एक दिन सहना बाकी लेने को आ गया। हलकू ने पत्नी से वे ३ रुपए मांगते हुए कहा, “सहना आया है, लाओ जो रुपए रखे हैं, उसे दे दूं। किसी तरह गला तो छूटे।”, परन्तु हल्कू की पत्नी ने रुपए देने से इंकार करते हुए कहा,”३ ही तो रुपए हैं, दे दोगे तो कम्बल कहाँ से आएगा ? माघ पूस की रात हार में कैसे कटेगी ?”
हल्कू ने कहा, “कम्बल के लिए कोई दूसरा उपाय सोचूंगा।”
मुन्नी आँखें तरेरती हुई बोली, ” कर चुके दूसरा उपाय…! मैं कहती हूँ, तुम क्यों नहीं खेती छोड़ देते ? मर-मर के काम करो, उपज हो तो बाकी दे दो, चलो छुट्टी हुई। बाकी चुकाने के लिए ही तो हमारा जन्म हुआ है। पेट के लिए मजूरी करो। ऐसी खेती से बाज आये। मैं रुपए न दूंगी।”
हल्कू उदास होकर बोला, “तो क्या गाली खाऊँ ?”
मुन्नी हल्कू द्वारा कहे इस वाक्य के सत्य से गम्भीर हो गई और रुपए लाकर हलकू को दे दिए। अन्तत: कम्बल के अभाव में हलकू ने पूस की रात हार में कैसे काटी, यह उसी दर्दनाक रात की कहानी है। हलकू अपने पालतू कुत्ता झबरू के साथ काँटों-सी चुभती ठंडी हवा के झकोरों से ठिठुरते हुए सारी रात बैठा रहा। जब जाड़ा सहन नहीं हुआ तो उसने कुछ पत्ते और ईधन बटोर कर आग जला ली। आग के सामने दोनों को राहत मिली, लेकिन तभी खेत में पद चापों की आवाज़ सुनाई दी। वफादार झबरा खेत की ओर दौड़ गया। देखा, नील गायें खेत रौंद रही थीं। झबरा भौंक-भौंक कर मालिक को बुलाने लगा, परन्तु हलकू का साहस जवाब दे गया। वह आग के सामने पैर फैलाए मानो ठंड को ललकार रहा था। वह उठा नहीं।
सुबह फिर दोनों खेत की डांड़ पर आए। देखा, सारा खेत रौंदा पड़ा है और झबरा मड़ैया के नीचे चित्त पड़ा है।
मुन्नी के मुख पर उदासी थी, पर हलकू प्रसन्न था।
यह कहानी का संक्षिप्त सार है। यह वो स्थिति है, जहाँ मनुष्य सब कुछ खोकर भी प्राण-रक्षा में कामयाबी हासिल कर ख़ुश हो जाता है।
यथार्थ के धरातल पर यह एक ऐसा जीवन्त कथानक है, जिसकी विश्वसनीयता समाज के प्रत्येक गरीब किसान और मजदूर के जीवन में देखी जा सकती है।
दलित और निर्धन वर्ग के साथ होने वाले शोषण के प्रति मुंशी प्रेमचंद जी की कहानी के पात्र पहले चुपचाप समर्पण करने के लिए मजबूर दिखाई देते हैं। यहाँ उनकी जड़ और भाग्यवादी मानसिकता कार्य करती है। वे अपने स्व अस्तित्व के प्रति संवेदनशील नहीं होते, न ही उन्हें अपनी पहचान बनाने की फिक्र है। इन पात्रों की चेतना सुप्त है। उनकी जीवन-शैली मालिक कॆे आगे मूक समर्पण की है। मालिक उनका शोषण करे या उन पर अत्याचार करे, वे उसके विरुद्ध क्रिया नहीं करते।
तत्पश्चात प्रेमचंद जी के दलित और निर्धन पात्रों के चरित्र में एक गुणात्मक मोड़ आता है। वे अन्याय और शोषण के विरुद्ध आक्रोशित हो उठते हैं। उनमें संगठित होकर संघर्ष करने की भावना जागृत होती है। उनकी जड़ मानसिकता में चेतना का संचार होता है। धीरे-धीरे उनका आक्रोश विद्रोह का रूप ले लेता है और एक विशुद्ध समाज की स्थापना में ये पात्र सच्चे सैनिक की भांति कभी विजयी होते हैं, कभी शहीद हो जाते हैं।
यहाँ दोनों प्रकार की स्थितियाँ अलग-अलग पात्रों के चरित्र चित्रण में व्यक्त हैं। एक पात्र अन्याय से समझौता करता है, दूसरा विरोध प्रकट करता है, परन्तु आक्रामक कोई नहीं है। न कोई विद्रोह के लिए तैयार है।
कहानी में चरित्रों का जो क्रमश: मनोवैग्यानिक विकास हुआ है, वह अत्यन्त प्रभावशाली है। मानव पात्रों के अतिरिक्त पशु चरित्र का भी मर्मस्पर्शी चित्रण है। मनुष्य की क्रूर प्रवृत्तियों को प्राय: पाशविक कह कर उसे हेय बना दिया जाता है, परन्तु पशु की संवेदनशील प्रकृति को मानवीयता का श्रेय नहीं दिया जाता। यद्यपि कि, मनुष्य पशु की संवेदना को स्वीकार भी करता है और उसकी आवश्यकता भी महसूस करता है। यह संवेदना प्राणी मात्र की संवेदना है, जो पूस की रात के पशु पात्र झबरा के चरित्र से व्यक्त होती है। मनष्य हो या पशु, अन्याय और अत्याचार से भयभीत होता है एवं निरन्तर सहते-सहते अपने-आपको विद्रोह के लिए तैयार करता है। यह स्वाभाविक प्रक्रिया है। ‘पूस की रात’ में जो पात्र अन्याय से समझौता करते हैं, वही ‘कफन’ तक आते-आते शोषण और अन्याय के विरुद्ध सोचते हैं तथा बोलते भी हैं।
‘कफ़न’ के चरित्रों को एक ही बिंदु पर विभिन्न दृष्टिकोणों से देखना समीचीन होगा। प्रथम तो कफ़न के प्रमुख पात्र धीसू और माधव ग़ैर-जिम्मेदार, अकर्मण्य, लापरवाह और नशेबाज किस्म के चरित्र हैं, जिनमें मानवीय संवेदना का अभाव है। वे अपनी वधू बुधिया को प्रसव पीड़ा में तड़पते छोड़ कर अलाव के सामने बैठे आलू भून-भून कर खाते हैं। बुधिया तड़पते-तड़पते प्राण त्याग देती है, परन्तु दोनों में से कोई उसे देखने तक नहीं जाते। बल्कि माधव चिढ़ कर बोलता है, “मरना है तो जल्दी मर क्यों नहीं जाती, देख कर क्या करूं ?”
घीसू और माधव का यह चरित्र प्रत्यक्ष में तो मानवीय संवेदना के विपरीत दिखाई देता है, परन्तु अप्रत्यक्ष रूप से संवेदनहीन व्यवस्था पर ही करारी चोट करता है। घीसू और माधव अपने जीवन से हारे हुए दलित हैं, जिनका परिश्रम पर से विश्वास उठा हुआ है। वे नहीं मानते कि रात-दिन कड़ी मेहनत करके भी वे अपने दारिद्र्य को दूर कर पाएंगे। घीसू कहता है, “जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कहीं ज्यादा सम्पन्न थे।”
व्यवस्था और शोषक वर्ग से हताश घीसू एवं माधव अपने- आपको किस्मत के हवाले छोड़ कर पूर्णतया अकर्मण्य और ग़ैर-ज़िम्मेदार बन जाते हैं। वे सोचते हैं कि, भगवान देंगे तो सब मिल जाएगा, अन्यथा कुछ नहीं होगा चाहे जितना श्रम किया जाए, और यही नैराश्य उन दोनों को संवेदन शून्य बना देता है।
दूसरी ओर माधव और घीसू की भूख उन दोनों को आपस में भी एक-दूसरे के प्रति संवेदना हीन बनाती है एवं अविश्वास से भर देती है। वे पिता-पुत्र होते हुए भी भोजन के मामले में एक-दूसरे पर भरोसा नहीं करते। माधव को लगता है कि, यदि वह प्रसव पीड़ा से तड़पती बुधिया को देखने जाएगा तो घीसू उसके हिस्से के आलू भी खा जाएगा। यही ख़्याल घीसू के मन में भी है और इसीलिए दोनों ही बुधिया को देखने नहीं जाते।
क्षुधा मनुष्य को कितना कठोर और निर्मम बना देती है, यह घीसू और माधव के चरित्र में देखा जा सकता है।
वे दोनों मांग-मांग कर बुधिया के कफ़न के लिए पैसे जुटाते हैं और उन पैसों से भी पेट की क्षुधा शांत कर लेते हैं। उन पैसों से वे शराब पीते हैं और पेट भर भोजन करते हैं। तत्पश्चात घीसू कहता है “कफ़न लगाने से क्या मिलता ? आख़िर जल ही ते जाता। कुछ बहू के साथ तो न जाता।” भूख की पीड़ा घीसू- माधव को सोचने के लिए बाध्य करती है कि, कफ़न में पैसा गंवाने से तो भोजन कर लेना बेहतर है। आगे वह फिर कहता है, “हमारी आत्मा प्रसन्न हो रही है तो क्या उसे पुन्न न होगा।”
यह हृदय विदारक कथन घीसू के अन्तर्द्वन्द और व्यथा का ऐसा प्रसंग है, जो पाठक के मन पर अमिट प्रभाव छोड़ता है। पाठक घीसू-माधव के नशे और अकर्मण्यता के पीछे छिपे नैराश्य को पढ़ लेता है। वह ऐसा नैराश्य है जो उन्हें मानवता के विपरीत क्रियाएं करने को प्रेरित करता है। यदि वे कफ़न के पैसे से भोजन करते हैं, तो उनका यह चरित्र संवेदन शून्य नहीं कहा जा सकता, न ही यह अमानुषिक है। वे शोषक भी नहीं कहे जा सकते। उनके इन निकृष्ट कृत्यों के लिए भूख और व्यवस्था ज़िम्मेदार है। ऐसी व्यवस्था, जो समाज के एक बड़े वर्ग को जीते-जी पेट के लिए भोजन नहीं देती, परन्तु मरणोपरान्त कफ़न दे देती है। यह दलितों द्वारा मनुज विरोधी व्यवस्था पर तीखा प्रहार है और खुला विद्रोह।
मुंशी प्रेमचंद जी दलित-शोषण के इस प्रसंग से यह संदेश संप्रेषित करते हैं कि, धन का अभाव या धन की अधिकता दोनों ही मनुष्य को एक ही बिन्दु पर ले जाकर खड़ा करते हैं। धनाभाव में मनुष्य संवेदनशून्य हो जाता है और धनाधिक्य में उसे क्रूरता और पाशविकता घेर लेती है। इन दोनों ही प्रवृत्तियों के मूल में हमारी अर्थ व्यवस्था है। पेटभर भोजन करने के बाद घीसू और माधव थालियों में बचा हुआ भोजन एक भिखारी को दे देते हैं, जो खड़ा हुआ उनकी ओर भूखी आँखों से देख रहा था।
यह प्रसंग स्पष्ट करता है कि, घीसू और माधव भूख के कारण संवेदन हीन हो गए थे। भूख से तृप्ति होते ही उनकी मनुष्यता जाग उठती है और वे बुधिया के गुणगान करने लगते हैं। उसके प्रति करुणा से भर जाते हैं। माधव फूट-फूट कर रोते हुए कहता है, “वह वैकुंठ में जाएगी दादा। वैकुंठ की रानी बनेगी।”
घीसू कहता है, “हाँ बेटा, वैकुंठ में जाएगी। उसने किसी को सताया नहीं। किसी को दबाया नहीं। मरते-मरते हमारी ज़िंदगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई। वह वैकुंठ में न जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे, जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं।
अन्याय और शोषण की असहनीय पीड़ा से कुपित हुए घीसू की यह भावुकता पूर्ण प्रतिक्रिया है, जिसमें शोषक वर्ग के प्रति अत्यधिक घृणा और तिरस्कार है।
घीसू का उपर्युक्त कथन “मरते-मरते ज़िंदगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई” मर्माहत करने वाला कथन है।
घीसू और माधव की जीवन में एक बार अच्छा भोजन करने की लालसा प्रबल हो रही थी, परन्तु उन जैसे दलितों के लिए एक जून की रोटी भी नसीब नहीं होती। यह तभी सम्भव हुआ, जब उन्होंने बुधिया के कफ़न के पैसे से भोजन किया। इसी लिए अंत में दोनों बुधिया की सराहना करते हैं।
अन्तत: हम प्रेमचंद की कहानियों में मानवीय संवेदना के साथ-साथ व्यथा की वह पराकाष्ठा देखते हैं, जहां कहानी के चरित्रों में पाठक अपने-आपको पाता है। वे हिन्दी भाषा के प्रथम कहानीकार हैं, जिन्होंने अपनी संवेदना में उपेक्षित और तिरस्कृत वर्ग के लोगों को इतनी सहजता से उनके यथार्थ रूप में स्वीकार किया। यही कारण है कि, मुंशी प्रेम चंद जी कथा संवेदना के पितामह कहे जाते हैं।
परिचय-विजयलक्ष्मी खरे की जन्म तारीख २५ अगस्त १९४६ है।आपका नाता मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ से है। वर्तमान में निवास इलाहाबाद स्थित चकिया में है। एम.ए.(हिन्दी,अंग्रेजी,पुरातत्व) सहित बी.एड.भी आपने किया है। आप शिक्षा विभाग में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हैं। समाज सेवा के निमित्त परिवार एवं बाल कल्याण परियोजना (अजयगढ) में अध्यक्ष पद पर कार्यरत तथा जनपद पंचायत के समाज कल्याण विभाग की सक्रिय सदस्य रही हैं। उपनाम विभा है। लेखन में कविता, गीत, गजल, कहानी, लेख, उपन्यास,परिचर्चाएं एवं सभी प्रकार का सामयिक लेखन करती हैं।आपकी प्रकाशित पुस्तकों में-विजय गीतिका,बूंद-बूंद मन अंखिया पानी-पानी (बहुचर्चित आध्यात्मिक पदों की)और जग में मेरे होने पर(कविता संग्रह)है। ऐसे ही अप्रकाशित में-विहग स्वन,चिंतन,तरंग तथा सीता के मूक प्रश्न सहित करीब १६ हैं। बात सम्मान की करें तो १९९१ में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ.शंकर दयाल शर्मा द्वारा ‘साहित्य श्री’ सम्मान,१९९२ में हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा सम्मान,साहित्य सुरभि सम्मान,१९८४ में सारस्वत सम्मान सहित २००३ में पश्चिम बंगाल के राज्यपाल की जन्मतिथि पर सम्मान पत्र,२००४ में सारस्वत सम्मान और २०१२ में साहित्य सौरभ मानद उपाधि आदि शामिल हैं। इसी प्रकार पुरस्कार में काव्यकृति ‘जग में मेरे होने पर’ प्रथम पुरस्कार,भारत एक्सीलेंस अवार्ड एवं निबन्ध प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त है। श्रीमती खरे लेखन क्षेत्र में कई संस्थाओं से सम्बद्ध हैं। देश के विभिन्न नगरों-महानगरों में कवि सम्मेलन एवं मुशायरों में भी काव्य पाठ करती हैं। विशेष में बारह वर्ष की अवस्था में रूसी भाई-बहनों के नाम दोस्ती का हाथ बढ़ाते हुए कविता में इक पत्र लिखा था,जो मास्को से प्रकाशित अखबार में रूसी भाषा में अनुवादित कर प्रकाशित की गई थी। इसके प्रति उत्तर में दस हजार रूसी भाई-बहनों के पत्र, चित्र,उपहार और पुस्तकें प्राप्त हुई। विशेष उपलब्धि में आपके खाते में आध्यत्मिक पुस्तक ‘अंखिया पानी-पानी’ पर शोध कार्य होना है। ऐसे ही छात्रा नलिनी शर्मा ने डॉ. पद्मा सिंह के निर्देशन में विजयलक्ष्मी ‘विभा’ की इस पुस्तक के ‘प्रेम और दर्शन’ विषय पर एम.फिल किया है। आपने कुछ किताबों में सम्पादन का सहयोग भी किया है। आपकी रचनाएं पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर भी रचनाओं का प्रसारण हो चुका है।