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स्वयं को जीत लेना ही शिवत्व की प्राप्ति

ललित गर्ग

दिल्ली
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महाशिवरात्रि विशेष…

आदि देव महादेव शिव सभी देवताओं में सर्वोच्च हैं, महानतम हैं, दुःखों को हरने एवं पापों का नाश करने वाले हैं। वे कल्याणकारी हैं तो संहारकर्ता भी हैं। आशुतोष है तो भोले शंकर भी, एक ओर जन-जन के आदर्श तो दूसरी ओर साधकों के साधक हैं। ‘सत्यं शिवं सुन्दरम्’ के प्रतीक शिव और उनकी रात्रि, जन-जन के जागरण की महाशिवरात्रि प्रतिवर्ष फाल्गुण मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी को मनाई जाती है, जो शिवत्व का जन्म दिवस है। यह शिव से पार्वती के मिलन की रात्रि का सुअवसर है। इसी दिन निशीथ अर्धरात्रि में शिवलिंग का प्रादुर्भाव हुआ था। इसी लिए यह पुनीत पर्व सांस्कृतिक एवं धार्मिक चेतना की ज्योति किरण है, जो शिव से एकाएक होने की चरम साधना का उत्कर्ष है। इससे जीवन एवं जगत में प्रसन्नता, गति, संगति, सौहार्द, ऊर्जा, आत्मशुद्धि एवं नवप्रेरणा का प्रकाश परिव्याप्त होता है। यह पर्व जीवन के श्रेष्ठ एवं मंगलकारी व्रतों, संकल्पों तथा विचारों को अपनाने की प्रेरणा देता है।

शिवरात्रि आत्म स्वरूप को जानने की रात्रि है। स्वयं से स्वयं के साक्षात्कार का दुर्लभ आध्यात्मिक अनुभव है। यह स्वयं के भीतर जाकर अथवा अंतश्चेतना की गहराइयों में उतरकर आत्म साक्षात्कार का प्रयोग है। यह आत्मयुद्ध की प्रेरणा है, क्योंकि स्वयं को जीत लेना ही जीवन की सच्ची जीत है, शिवत्व की प्राप्ति है। काल के इस क्षण की सार्थकता शिवमय हो जाने में है। शक्ति माया नहीं है, मिथ्या नहीं है, प्रपंच नहीं है। इसके विपरीत शक्ति सत्य है। जीव और जगत भी सत्य है। सभी तत्वतः सत्य हैं, सभी शिवमय हैं। शिवरात्रि भोगवादी मनोवृत्ति के विरुद्ध एक प्रेरणा है, संयम, त्याग, भक्ति व संतुलन की। सुविधाओं के बीच रहने वालों के लिए सोचने का अवसर है, कि वे आवश्यक जरूरतों के साथ जीते हैं या ज्यादा आवश्यकताओं की मांग करते हैं। इस शिवभक्ति एवं उपवास की यात्रा में हर व्यक्ति में अहंकार नहीं, बल्कि शिशुभाव जागता है। क्रोध नहीं, क्षमा शोभती है। कष्टों में मन का विचलन नहीं, सहने का धैर्य रहता है। यह तपस्या स्वयं के बदलाव की एक प्रक्रिया है। इसमें भौतिक परिणाम पाने की महत्वाकांक्षा नहीं, सभी चाहों का संन्यास है।
ग्रहों और नक्षत्रों के विशेष संयोग के चलते इस बार की शिवरात्रि बेहद पुण्यदायक बताई जा रही है। इस बार सूर्य का चुम्बकीय प्रभाव बहुत ही दिव्य है। ऐसा दैवीय संयोग सैकड़ों साल के बाद बन रहा है। इस बार की महाशिवरात्रि में शिवयोग भी शामिल है, जो बेहद फलदायक होता है।
शिव पुराण के अनुसार सृष्टि के आरंभ में ब्रह्मा ने इसी दिन रुद्र रूपी शिव को उत्पन्न किया था। शिव एवं हिमालय पुत्री पार्वती का विवाह भी इसी दिन हुआ था। अतः यह शिव एवं शक्ति के पूर्ण समरस होने की रात्रि भी है। वे सृष्टि के सर्जक हैं। उन्होंने मनुष्य जाति को नया जीवन दर्शन दिया। जीने की शैली सिखलाई।
सृष्टि के कल्याण हेतु जीर्ण-शीर्ण वस्तुओं का विनाश आवश्यक है। इस विनाश में ही निर्माण के बीज छुपे हैं। इसलिए शिव संहारकर्ता के रूप में निर्माण एवं नव-जीवन के प्रेरक भी हैं। सृष्टि पर जब कभी कोई संकट पड़ा तो उसके समाधान के लिए वे सबसे आगे रहे। समुद्र-मंथन में देवता और राक्षस दोनों ही लगे हुए थे। सभी अमृत चाहते थे, अमृत मिला भी लेकिन पहले हलाहल विष निकला। प्रश्न था कौन ग्रहण करे ? तब भोलेनाथ को याद किया गया गया। इन्होंने विष को ग्रहण कर सृष्टि के सम्मुख उपस्थित संकट से रक्षा की। उन्होंने इसको कंठ तक ही रखा और वे नीलकंठ कहलाए। इसी प्रकार गंगा को पृथ्वी पर लाने के लिए भोले बाबा ने ही सहयोग किया। ऐसे सृष्टि से जुड़े अनेक संकट और विकास से जुड़ी घटनाएं हैं, जिनके लिए शिव जी ने शक्तियों और साधना का प्रयोग करके दुनिया को नव-जीवन प्रदान किया। शिव का अर्थ ही कल्याण है, वही शंकर है, और रुद्र भी है। शंकर में ‘शं’ का अर्थ कल्याण है और ‘कर’ का अर्थ करने वाला। रुद्र में ‘रु’ का अर्थ दुःख और ‘द्र’ का अर्थ हरना- हटाना है। इस प्रकार रुद्र का अर्थ हुआ-दुःख को दूर करने वाले अथवा कल्याण करने वाले।
भोलेनाथ भाव के भूखे हैं, कोई भी उन्हें सच्ची श्रद्धा और प्रेम के पुष्प अर्पित कर अपनी मनोकामना पूर्ति की प्रार्थना कर सकता है। दिखावे, ढोंग एवं आडम्बर से मुक्त विद्वान-अनपढ़, धनी-निर्धन कोई भी अपनी सुविधा तथा सामर्थ्य से उनकी पूजा और अर्चना कर सकता है। शिव न काठ में रहता है, न पत्थर में, न मिट्टी की मूर्ति में, न मन्दिर की भव्यता में, वे तो भावों में निवास करते हैं। यह पर्व महाकाल शिव की आराधना का महापर्व है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन पूजा एवं अभिषेक करने पर उपासक को समस्त तीर्थों के स्नान का फल प्राप्त होता है। शिवरात्रि वह समय है जो पारलौकिक, मानसिक एवं भौतिक तीनों प्रकार की व्यथा व संतापों से मुक्त कर देता है। शिव की रात शरीर, मन और आत्मा को ऐसी शान्ति प्रदान करती है, जिससे शिव तत्व की प्राप्ति सम्भव है। लौकिक जगत में लिंग का सामान्य अर्थ चिह्न होता है जिससे पुल्लिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसक लिंग की पहचान होती है। शिव लिंग लौकिक के परे है। इस कारण एक लिंगी है, आत्मा है। शिव पापों के संहारक हैं। शिव की गोद में पहुंचकर हर व्यक्ति भय-ताप से मुक्त हो जाता है।

शिव ने संसार और संन्यास दोनों को जीया है। उन्होंने पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति की जीवन में आवश्यकता और उपयोगिता का प्रशिक्षण दिया। कला, साहित्य, शिल्प, मनोविज्ञान, विज्ञान, पराविज्ञान और शिक्षा के साथ साधना के मानक निश्चित किए। सबको काम, अर्थ, धर्म, मोक्ष की पुरुषार्थ चतुष्टयी की सार्थकता सिखलाई। वे भारतीय जीवन-दर्शन के पुरोधा हैं, लेकिन हम इतने भोले हैं कि अपने शंकर को नहीं समझ पाए। उनको समझना, जानना एवं आत्मसात करना हमारे लिए स्वाभिमान और आत्मविश्वास को बढ़ाने वाला अनुभव सिद्ध हो सकता है। मानवीय जीवन के सभी आयाम शिव से ही पूर्णत्व को पाते हैं।