राधा गोयल
नई दिल्ली
******************************************
‘कोरोना’ काल में अच्छे-अच्छे लोगों की नौकरी छूट गई थी। मकान का किराया तक नहीं दे पा रहे थे, तो मकान मालिक ने खाली करने के लिए कह दिया। कई लड़के एक ही गाँव के रहने वाले थे। आपस में फैसला किया कि अपने गाँव में रहकर ही कुछ करेंगे। अपनी योग्यता से गाँव को एक नई पहचान दिलाएंगे। रास्ते में जा रहे थे, तो संयोग से एक मजदूर भी मिला, जो उसी गाँव का था। चलते-चलते सभी लोग बहुत थक चुके थे। सड़क पर कहीं कोई वृक्ष नहीं थे। कहीं पानी का जुगाड़ नहीं था, तभी उन्हें एक लड़का बैठा हुआ नजर आया। वह अकेला ही बैठा हुआ था।
“तुम्हारे पिता कहाँ हैं ? तुम इतनी धूप में अकेले बैठे क्या कर रहे हो ?”
“पिताजी नहीं हैं। घर की जिम्मेदारी मेरे ऊपर है।”
“घर में कौन-कौन है ?”
“२ बहनें और माँ।”
“वो क्या करती हैं ?”
वो तीनों घर में बैठकर मॉस्क बनाती हैं। पिताजी स्टेशनरी बेचते थे। कोरोना में उनकी मौत हो गई।उनकी दुकान बंद हो गई। स्कूल भी बंद हैं तो गाँव में स्टेशनरी इतनी नहीं बिकती कि दो जून की रोटी का जुगाड़ हो पाए। मैं सड़क पर इस उम्मीद में बैठकर स्टेशनरी बेचता हूँ कि शायद आते-जाते लोग कुछ खरीद लें, लेकिन सारी सड़कें सुनसान पड़ी हैं। आज इतने दिनों बाद कोई नजर आया है।”
“बेटा! शायद हमें भी तुम्हारी जरूरत है। हमें मॉस्क और पेन चाहिए, लेकिन यह भी बताओ कि कहीं से पानी और भोजन का जुगाड़ हो सकता है ?”
“हाँ हाँ, क्यों नहीं ? पास ही मेरा गाँव है। वहाँ छायादार पेड़ लगे हुए हैं। उनकी छाँव में बैठकर सुस्ता सकते हो। कुआँ भी है, पानी भी मिल जाएगा।”
सबने उस बच्चे से अपने अपने लिए १०-१०₹ में ५-५ मॉस्क खरीदे। मजदूर के पास पैसे नहीं थे, तो एक व्यक्ति ने उस मजदूर के लिए भी ५ मॉस्क खरीद लिए। बिना मोलभाव किए स्टेशनरी भी खरीदी
फिर बच्चा उन लोगों को अपने गाँव लेकर गया। पेड़ की छाँव में सब सुस्ताने बैठे और बातचीत का दौर फिर चल पड़ा।
“दोस्त! हम तो खुद को बदकिस्मत समझ रहे थे, पर इस छोटे से बच्चे को देखा। कितनी तपती धूप में घर की जरूरत पूरी करने के लिए यह सड़क पर बैठा हुआ था और हमारी मदद करने को तैयार हो गया। सही मायने में तो हम इसका सहारा नहीं बने, बल्कि इसने हमें सहारा दिया है।” एक ने कहा।
इतनी देर में बच्चा घर से बाल्टी और गिलास लेकर आया। कुएँ में बाल्टी डाली। बाल्टी और गिलास उनके पास रखकर बोला- “आप लोग पानी पिओ। इतनी देर में मैं आपके लिए खाने का कुछ जुगाड़ करता हूँ।”
अब तो उसके पास पैसे भी थे, इसलिए उसे चिंता नहीं थी। बनिए से उधार तो लेना नहीं था। बनिए की दुकान खुलवाई। उससे सत्तू और शक्कर ली। माँ से उसका घोल बनवाया और सबको पिलाया।
“हा हा हा हा, कितनी ठंडक मिली इसे पीकर।” संतुष्टि भरी साँस खींचकर सब एकसाथ बोले। एक ने पूछा- “यह क्या चीज है, जिसे ५ मिनट में बनवा कर ले आया ?”
“यह सत्तू है अंकल। इसे बनाने में बिल्कुल भी देर नहीं लगती। चाहो तो शरबत बनाकर पी लो। चाहे तो इसमें नमक-मिर्च मिलाकर आटे की तरह गूँथकर वैसे ही खा लो। बहुत स्वादिष्ट लगता है और ५ मिनट में बन जाता है।”
“बेटा! तुमने बड़ी अच्छी बात बताई। कुछ-कुछ याद आ रहा है। बचपन में हम बहुत खाते थे। शहर जाकर सब भूल गए। यह किस चीज से बनता है ?”
“अंकल! यह ज्वार को पीसकर बनता है।”
“अरे हाँ-हाँ, याद आया। अब हम भी अपने गाँव में जाकर ज्वार उगाएंगे। गाँव की महिलाएँ उसे चक्की में पीसकर आटा बनाएंगी। इसे खाकर तो गर्मी से निजात मिल गई और पेट भी भर गया।”
पेड़ की ठंडी छाँव में बैठकर उन लोगों की सुस्ती थोड़ी दूर हो गई थी। जो सत्तू का शरबत पिया था, उससे भी पेट थोड़ा-सा भर गया था। थोड़ी देर आराम करके सब चलने लगे तो बच्चे को शरबत के पैसे देने लगे। बच्चे ने मना किया, लेकिन सबने उसे जबरदस्ती पैसे दिए। और कहा कि “हम मुफ्त में कुछ नहीं खाते। इससे हमारे स्वाभिमान को ठेस लगेगी। तुम तो इतने छोटे होकर भी अपने परिवार का पेट पालने के लिए तपती धूप में बैठे थे और हम तुम्हारी भलमनसाहत का नाजायज फायदा उठा लें। भला ऐसे कैसे हो सकता है।” सबने उसे पैसे दिए और अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। रास्ते में बातें भी होती रहीं। बातें करते-करते गाँव आ गया। गाँव के सब लोगों ने गर्मजोशी से दूर से ही उनका स्वागत किया और कहा-” यहाँ स्कूल में १५ दिन आप लोग रहो। अभी गाँव में मत आओ। आपके खाने-पीने की जिम्मेदारी हमारे ऊपर है। हम आपके कमरों का दरवाजा खटखटाएंगे और उसके बाहर सामान रख देंगे। आप १० मिनट के बाद दरवाजा खोलना। तब तक हम लोग वहाँ से चले जायेंगे। दरवाजे के बाहर से अपना सामान उठाकर खा लेना।”
रोजाना सबको अपने कमरों के दरवाजे के बाहर दूध की डोलची, मोटे पराठे और आलू की सूखी सब्जी रखी हुई मिलती थी। पानी की बाल्टी और गिलास भी साथ में होता था। उन्होंने अपने कमरों में ही बैठकर आपस में जूम मीटिंग की। जिस शाला में उनको ठहराया गया था, वह बिल्कुल जर्जर हो चुका था। उन्होंने आपस में फैसला किया कि क्वारेंटाइन के बाद वे लोग इस जर्जर भवन को ठीक करवाएंगे।
जब ठीक होकर बाहर निकले तो पता लगा कि बहुत से विद्यार्थी भी गाँव लौट आए थे, क्योंकि पी.जी. की बिजली काट दी गई थी। विद्यार्थी गाँव तो लौट आए थे, लेकिन पढ़ने का माहौल नहीं मिल रहा था। उन लोगों ने अपनी टीम बनाई। गाँव में ही पढ़ाई और खेल का बेहतर माहौल तैयार करने का फैसला किया। सबसे पहले तो उस बंद हो चुके स्कूल के जर्जर भवन को श्रमदान से ठीक करवाया। लाइट ठीक की, ताकि गाँव के युवा दिन भर पढ़ाई कर सकें। फिर विद्यालय के मैदान को समतल बनाया। एक कमरे को फिटनेस सेंटर में बदल दिया, ताकि सेहत ठीक रहे। सेहत ठीक होगी, तभी तो कुछ कर सकते हैं। अभी वो यहीं नहीं रुके। उन्होंने मैदान में बैठने के लिए बेंच भी लगाईं। एक लड़का उनका नेतृत्व करने वाला था-दीपक बुडानिया। उन लोगों ने ग्राम के चारों तरफ खूब सारे पौधे भी लगाए। जो एक मजदूर उनके साथ आया था, वह अपने बहुत से साथियों के साथ इस काम में लगा रहा। सबने श्रमदान से यह सब कुछ किया। जब लोगों ने इनकी ऊर्जा को देखा तो गाँव के बुजुर्ग और जनप्रतिनिधि भी इस पहल में सहयोग करने लगे। गाँव की पर्यावरण, शिक्षा, खेल समिति बनाई। उनके सदस्य आपसी सहयोग से खर्च के लिए राशि जुटाने लगे। शुरुआत में पूरे प्रोजेक्ट के लिए २ लाख ₹ जमा किए। समिति के नौकरी करने वाले हर माह ४००₹ देते थे। बेरोजगारों से साल में ३६५ रुपए लिए जाते थे।
पुस्तकालय में उन युवाओं ने अपने नोट्स व किताबें दे रखी हैं, जिनकी नौकरी लग चुकी है। अब तो नौकरी भी ऑनलाइन हो रही है। पैसा खाते में आ जाता है। समिति का पूरा रिकॉर्ड ऑनलाइन है। उन लोगों ने सारे कार्यों के वीडियो अपलोड किए। इस पुस्तकालय में प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए पूरा माहौल रहता है। युवा एक दूसरे से महत्वपूर्ण विषयों पर और मुद्दों पर चर्चा करते हैं। मॉडल पेपर और परीक्षाओं के तैयारी के लिए जरूरी अध्ययन सामग्री भी पुस्तकालय में ही उपलब्ध करवाई जाती है।
नौकरी छूटने पर रोते रहते तो यह सब कुछ नहीं कर सकते थे। फिर तो जख्म रिसते रहते। उन्होंने समस्या में से ही उसका समाधान ढूँढा। तभी तो कहा गया है कि-
“कभी-कभी समस्या भी समाधान बन कर आती है।”
