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होलिका

संजय एम. वासनिक
मुम्बई (महाराष्ट्र)
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अगर होलिका बुरी थी,
तो उसे पूजते क्यों हो ?
अगर होलिका अच्छी थी
तो उसे जलाते क्यों हो ?

अगर होलिका बुरी थी,
उसे जलाने के बाद
शोक करते क्यों हो ?
अगर होलिका अच्छी थी,
उसे जलाने के बाद
फेरों में नाचते क्यों हो ?

अगर होलिका बुरी थी,
तो रंगोत्सव मनाते क्यों हो ?
अगर होलिका अच्छी थी
तो दूसरे दिन दु:ख भुलाने,
के लिये नशा करते क्यों हो ?

ये सब-कुछ नहीं साहिब,
ये सब नाटक है मर्दों का
होलिका एक नारी जो थी,
यही जो उसकी गलती थी।

पाँवों में उसके पुरुषी,
अहंकार की बेड़ियाँ थी
हाथों में उसके नारी,
होने की हथकड़ियाँ थी
नारी के हुनर का स्वीकार,
कर पाने की हिम्मत ना थी।

नहीं सह पाए थे होना उसका,
जननायक जनसामान्य का
नारी उत्पीड़न का शिकार थी,
भय था उनको जननायक होकर,
पुरुषों के पुरुषार्थ को ललकार का।

बना के बहाना उन्होंने ठान लिया,
अस्तित्व के उसके नेस्तनाबूत करने का
दिया करार उसे उन्होंने राक्षसी होने का,
दांभिक जाल में उसे फँसाकर
नष्ट कर दिया उसे जला कर।

मिटा दिया उसके अस्तित्व को,
जागृत कर पुरुषी उन्माद को।
बना लिया पर्व उसकी हत्या को भुलाने का,
फिर हुआ विजय पुरुषप्रधान संस्कृति का…॥

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