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प्यारी अपनी धरती है

डॉ.विजय कुमार ‘पुरी’
कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) 
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प्यारी अपनी धरती है और प्यारा अपना देश है।
हरे-भरे पेड़ों से सजता सुंदर ये परिवेश है॥

कुछ लोग यहाँ पर ऐसे हैं,
जो धरती को गन्दा करते हैं।
उनकी करनी-धरनी से भई,
वन्य जीव सब मरते हैं।
उनकी रक्षा करना ही,सब धर्मों का सन्देश है,
हरे-भरे पेड़ों से सजता सुंदर ये परिवेश है॥

गिद्ध और कौए हमसे कहते,
हम धरा की शान हैं।
प्रदूषण को कम हैं करते,
न इससे तुम अनजान हैं।
मत ऐसा व्यवहार करो कि लगे हमें परदेस है,
हरे-भरे पेड़ों से सजता सुंदर ये परिवेश है॥

देख यहाँ पर कूड़ा कचरा,
अपना जी भर आया है।
बहुत कोशिशें कर ली लेकिन,
सब कुछ न हो पाया है।
कुछ तो अच्छा करना सीखो,नवयुग में प्रवेश है,
हरे-भरे पेड़ों से सजता सुंदर ये परिवेश है॥

सब झूम-झूम कर गाएंगे,
हम पर्यावरण बचाएंगे।
धरती के श्रृंगार के लिए,
पेड़ और पौधे लगाएँगे।
जन-जन में अब जाग उठा ये नया नया उन्मेष है,
हरे-भरे पेड़ों से सजता सुंदर ये परिवेश है॥

वृक्ष धरा के भूषण हैं और,
उनसे जीवन मिलता है।
निर्मल सुंदर स्वच्छ धरा में,
सबका ही मन खिलता है।
रंग-रंगीले फूलों से अब बदला धरा ने भेष है।
हरे भरे पेड़ों से सजता सुंदर ये परिवेश है॥

परिचय-डॉ. विजय कुमार का साहित्यिक उपनाम ‘पुरी’ है। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश के ग्राम पदरा (तहसील पालमपुर)में स्थाई रुप से बसे हुए डॉ. कुमार का जन्म जिला कांगड़ा के पालमपुर में १२ अक्टूबर १९७३ को हुआ। आपको हिंदी,अंग्रेजी,हिमाचली पहाड़ी भाषा का ज्ञान है। पर्यटन के धनी राज्य हिमाचल वासी ‘पुरी’ की पूर्ण शिक्षा पी.एच-डी.,एम.फिल. एवं नेट,स्लेट,बीएड है। पेशे से प्राथमिक शिक्षक हैं। सामाजिक गतिविधि में संस्था के पदाधिकारी हैं। लेखन विधा-गीत,कविता,कहानी एवं समीक्षा है। ‘पहचान’ काव्य संग्रह सहित ‘मालती जोशी के कथा साहित्य में मध्यवर्गीय चेतना’ समीक्षात्मक पुस्तक प्रकाशित है तो ‘कांगड़ा के लोकगीत-जीवनशैली एवं रीति-रिवाज’ अनुसंधानात्मक पुस्तक का सम्पादन आपके नाम है। आप २ हिंदी पत्रिका का सम्पादन भी देखते हैं। इनकी रचनाएं अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। प्राप्त सम्मान-पुरस्कार में आपके साहित्यिक खाते में-राज्य स्तरीय शिक्षक सम्मान (हिमाचल सरकार- २०१९),अकादमी अवार्ड (जालंधर) एवं ‘साहित्यश्री सम्मान’ आदि हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-समाज सापेक्ष रचनाकर्म है। पसंदीदा हिन्दी लेखक-तुलसीदास,मैथिली शरण गुप्त हैं,तो प्रेरणापुंज-माता-पिता हैं। देश और हिंदी भाषा के प्रति आपके विचार-
“अपने ही घर में हारती,ये हिन्दी क्यों लाचार है।
यह भाषागत नीति नहीं,व्यापार ही व्यापार है॥”

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