शंकरलाल जांगिड़ ‘शंकर दादाजी’
रावतसर(राजस्थान)
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प्रकृति है सृष्टि की जननी पीर दे रहा उसको,
खेला-कूदा बड़ा हुआ है माँ माना है जिसको।
आज अपनी धरती माता क्यों बिलख रही बेचारी,
बेटा होकर कष्ट दे रहा कैसी बात विचारी।
प्रकृति की अनमोल धरोहर क्यों उजाड़ करता है,
मिली संपदा जो धरती से अपना घर भरता है।
कैसा निष्ठुर है मानव तू तनिक नहीं शर्माता,
जंगल,नदियां नष्ट कर रहा जरा नहीं घबराता।
जल से ही जीवन है अपना कैसे तू जियेगा,
खत्म हो गया गर पानी तो फिर तू क्या पियेगा।
प्रकृति के श्रृंगार वृक्ष तू उनको काट रहा है,
अपनी साँस की डोरी अपने हाथों काट रहा है।
जीवन के दाता पेेड़ों को तू काट न ऐ नादान,
भीतर का शैतान मार कर बन जा तू इंसान।
कुपित हुई जो ये प्रकृति तो ऐसा ताण्डव होगा,
रौद्र रूप होगा शिव जैसा कोई नहीं बचेगा।
पर्वत भी अपने रक्षक हैं ये हैं पिता हमारे,
हम सबकी रक्षा करने सन्नध रहते हैं सारे।
नदियों के उद्गम हैं ये जो कल-कल करती बहती,
कूड़ा करकट और गंदगी लाशें तक ये सहती।
प्रकृति की है देन सभी जीवन इन बिना है सूना,
छेड़-छाड़ मत कर वर्ना तो कष्ट पड़ेगा सहना।
धरती के माध्यम से ये सब कुछ हमको देती है,
सोना-चाँदी,हीरे-मोती,अन्न से घर भरती है।
जीने की हर एक वस्तु हम प्रकृति से हैं पाते,
फिर भी इसको दु:ख देने में कभी नहीं शरमाते।
जल पेड़ नहीं होंगे तो धरती मसान हो जाएगी,
पशु,पक्षी, मानव तड़पेंगे वीरान धरा हो जाएगी।
कुपित प्रकृति हो जाएगी तो रोक न उसको पायेगा,
ज्वालामुखी,बाढ़,भूकम्प से कैसे धरा बचायेगा।
अभी समय है चेत बावरे प्रकृति का अहसान मना,
पर्यावरण शुद्ध करने को घर-घर जाकर अलख जगा।
जल की बूँद-बूँद अमृत है जो तू इसे बचायेगा,
बच जाएगी कई जिंदगी तू इंसान कहाएगा॥
परिचय-शंकरलाल जांगिड़ का लेखन क्षेत्र में उपनाम-शंकर दादाजी है। आपकी जन्मतिथि-२६ फरवरी १९४३ एवं जन्म स्थान-फतेहपुर शेखावटी (सीकर,राजस्थान) है। वर्तमान में रावतसर (जिला हनुमानगढ़)में बसेरा है,जो स्थाई पता है। आपकी शिक्षा सिद्धांत सरोज,सिद्धांत रत्न,संस्कृत प्रवेशिका(जिसमें १० वीं का पाठ्यक्रम था)है। शंकर दादाजी की २ किताबों में १०-१५ रचनाएँ छपी हैं। इनका कार्यक्षेत्र कलकत्ता में नौकरी थी,अब सेवानिवृत्त हैं। श्री जांगिड़ की लेखन विधा कविता, गीत, ग़ज़ल,छंद,दोहे आदि है। आपकी लेखनी का उद्देश्य-लेखन का शौक है।